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तारिक आज़मी की मोरबतियाँ – जब पढ़े लिखे लोग भी व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी का ज्ञान परोस रहे है तख़्त-ए-ताऊस के मुताल्लिक, जाने तख़्त-ए-ताऊस की तवारीख और अब वो कहा है

तारिक़ आज़मी (साभार – मशहूर इतिहासकार डॉ मोहम्मद आरिफ के द्वारा प्रदान इनपुट से)

अमूमन मैं इस तरीके के मुद्दों पर कभी लिखता ही नहीं हु। लोगो की सोच है कि वह क्या सोचते है। मगर जब पढ़े लिखे लोग भी ऐसी बाते करने लगे जो तथ्यों से अलग हो तो अचम्भा होता है। दरअसल ये इस वजह से है कि देश में एक नई यूनिवर्सिटी का निर्माण स्वतः ही हो चूका है। आप वो यूनिवर्सिटी जानते होंगे जहा आप और हम पढ़े है। मगर अब एक और यूनिवर्सिटी है व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी। इस व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी में क्रोनोलाजी कब थेथ्रोलाजी बन गई पता ही नही चला।

एक शिक्षा जगत से जुड़े हमारे मित्र ने कल शाम ऐसी ही थेथ्रोलाजी से भरे व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के ज्ञान को बघारते हुवे एक पोस्ट मुझको भेज डाली। मैं भी परेशान और हलकान हो गया कि तख़्त-ए-ताऊस कब सांप्रदायिक मुद्दा हो गया। आखिर कब किसी राजा जो किसी धर्म सम्प्रदाय का नहीं बल्कि राजधर्म कर पालन करने वाला होता है वो धर्म विशेष का हो गया। पोस्ट के माध्यम से मुझको बताया गया कि तख़्त-ए-ताऊस का असली नाम सिंघासन मयूरी था और उसको हिन्दू राजा से ज़बरदस्ती कब्ज़ा कर लिए गया था।

पोस्ट पढ़कर मुझको हंसी का ठिकाना नही रहा। पढ़ा लिखा इंसान इस प्रकार की जानकारी रखता है इसको सोच कर मुझको हंसी आ रही थी। साथ ही अफ़सोस भी हो रहा था कि हमारे मुआशरे को आखिर ये क्या हुआ है। हर तरफ सिर्फ धुआ धुआ है। कौन कब क्या नया ज्ञान बघार दे समझ में नहीं आता है। कब टीपू सुल्तान को मुल्क पर्स्स्ती का सर्टिफिकेट लेना पड़े समझ में नहीं आता है। क्रोनोलाजी पूरी तरह थेथ्रोलाजी में बदल चुकी है। हर नुक्कड़ पर ज्ञानचंद्र दिखाई दे रहे है। ढंग से अपना नाम न लिख पाने वाला व्यक्ति भी खुद को व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी का प्रोफ़ेसर समझ रहा है। पढ़े लिखे लोग तक पढना बंद कर अब व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी का ज्ञान बटोर रहे है और बांच रहे है। आखिर उनको ये कब नही समझ आया कि ये जो हो रहा है वो सामाजिक ताने बाने की रीढ़ को कमज़ोर कर रहा है।

बहरहाल, व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी पर फैले तख़्त-ए-ताऊस को असली सिंघासन मयूरी बताने वाले पोस्ट के सम्बंधित असली बात आपको बता देता हु। दरअसल तख़्त-ए-ताऊस को मयूर सिंघासन कहा जाता है। फ़ारसी में ताऊस का मतलब मोर होता है और हिंदी में मयूर का मतलब मोर होता है। दूसरी बात तख़्त का मायने सिंघासन होता है। वही मसनद का मायने भी गद्दीनशी होता है। गद्दिनाशिनी का मतलब भी सत्ताधारी होता है। इस शब्द “मसनद” को लेकर स्व0 डॉ0 राहत इन्दौरी साहब ने एक बेहतरीन शेर भी अर्ज़ किया है कि “आज जो साहिब-ए-मसनद (सत्ताधीश) है, कल नहीं होंगे, किरायदार है जाती मकान थोड़ी है।”

बहरहाल अब तख़्त-ए-ताऊस के तवारीख पर थोडा नज़र डाल लेते है। तख़्त-ए-ताऊस वह मशहूर सिंहासन है जिसे मुगल बादशाह शाहजहाँ ने बनवाया था। यहाँ इस बात की सनद इतिहास के विभिन्न श्रोतो में भी मिलती है कि तख़्त-ए-ताऊस का निर्माण मुग़ल शहनशाह शाहजहा ने करवाया था। दरअसल शाहजहाँ को आप इतिहास में खुबसूरत चीजों का शौक़ीन और शानो-शौकत के साथ जीने वाले बादशाह के तौर पर भी देख सकते है। ताज महल जैसी नायाब इमारत इसका एक उदहारण है। तख़्त-ए-ताऊस को पहले आगरे के किले में रखा गया था। वहाँ से इसे दिल्ली के लाल किले में ले जाकर रख दिया गया। इसका नाम ‘मयूर सिंहासन’ इसलिए पड़ा क्योंकि इसके पिछले हिस्से में दो नाचते हुए मोर दिखाए गए हैं।

1739 के आक्रमण के दौरान, ईरान के सम्राट नादेर शाह ने इससे जुड़े कीमती गहने लूट लिए। 1783 में, सिख प्रमुखों बघेल सिंह, जस्सा सिंह अहलूवालिया और जस्सा सिंह रामगढ़िया ने दिल्ली पर जब विजय प्राप्त किया था तो लाल किले के ऊपर निशान साहिब फहराया गया था। वह एक प्रकार का विद्रोह था जो सिखों के उत्पीड़न के विरोध हुआ था। इस फ़तेह की निशानी के तौर पर इस सिंहासन को स्वर्ण मंदिर, अमृतसर तक ले जाया गया। जहां यह आज भी रामगढ़िया बुंगा में मौजूद है। आप इसको जाकर देख भी सकते है।

बादशाह शाहजहाँ ने ताज-पोशी के बाद अपने लिए इस बेशकीमती सिंहासन को तैयार करवाया था। इस सिंहासन की लंबाई तेरह गज, चौड़ाई ढाई गज और ऊंचाई पांच गज थी। यह छह पायों पर स्थापित था जो सोने के बने थे। सिंहासन तक पहुंचने के लिए तीन छोटी सीढ़ियाँ बनाई गयी थी। जिनमें दूरदराज के देशों से मंगवाए गए कई कीमती जवाहरात जड़े थे। दोनों बाजू पर दो खूबसूरत मोर, चोंच में मोतियों की लड़ी लिये, पंख पसारे, छाया करते नज़र आते थे, और दोनों मोरों के सीने पर लाल माणिक जुड़े हुए थे। पीछे की तख्ती पर कीमती हीरे जड़े हुए थे। जिनकी कीमत उस वक्त भी लाखों रुपये थी। इस सिंहासन को बनाने में तत्कालीन कुल एक करोड़ रुपये खर्च किये गए थे।

जब नादिरशाह ने दिल्ली पर हमला किया तो दिल्ली की सारी धन-दौलत समेटने के अलावा, इस सिंहासन तख्त-ए-ताउस के हीरे जवाहरात को लूट लिया था। बाद में सिख इस को अमृतसर ले आए। जहां यह रामगढ़ बुगा मे आज भी मौजूद है। जिसको आज भी देखा जा सकता है। मगर व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के ज्ञान ने इस सिंघासन मयूरी यानी तख़्त-ए-ताऊस का इतिहास ही पलट दिया है। उस इतिहास को पढ़कर आप खुद सोचने लगेगे कि आखिर किस प्रकार हमारे बचपन से पढ़े गए इतिहास को आज उलट दिया जा रहा है और हमारी क़ाबलियत पर भी सवाल उठा दिया जा रहा है।

इसकी सबसे बड़ी वजह है कि हमने जब से व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में एडमिशन ले लिया है तब से हमने पढने की आदत छोड़ दिया है। हम किताबो से दूर हो चुके है। व्हाट्सएप पर ज्ञान देने वालो से हम कच्चा पक्का ज्ञान ले रहे है। हम ये नही देख पाते है कि हमको जो थेथ्रोलाजी समझा रहा है वो खुद क़ाबलियत में कक्षा 8 में तीन बार फेल हो चूका होगा और टाइप करने के बजाये मुह से बोल कर गूगल बाबा का सहारा लेकर लिख रहा है। आप अपनी क़ाबलियत पर खुद शक करने लग जाते है।

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