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हालात-ए-बुनकर और तारिक आज़मी की मोरबतियाँ – मंदी की मार और बुनकर मजदूर है बेहाल

तारिक आज़मी

बुनकर बाहुल्य क्षेत्रो में यदि आप घुमने निकल जाए तो आपको चाय पान की दुकाने काफी मिल जाएगी। छोटी छोटी दुकानों से ये इलाके गुलज़ार दिखाई देते है। कभी पॉवर लूम की खटर पटर और हैण्डलूम यानी करघे की धप धप से गुलज़ार रहने वाले इलाको में ये आवाज़े अब कम ही आती है या फिर कहा जा सकता है कि लगभग न के बराबर दिखाई देती है। जिस घर में 4-5 करघे थी वहा अब केवल एक करघे ही बमुश्किल चल रही है। ऐसा ही कुछ हाल पॉवर लूम का भी है। जहा एक घर में चार पॉवर लूम चलते थे अब वो सिमट का एक अथवा दो पर आ गए है।

इसकी सबसे बड़ी मार बुनकर मजदूरों पर पड़ी है। पहले आपको बुनकरों के सम्बन्ध में बताते चलते है। बुनकर बिरादरान को तीन हिस्सों में तकसीम कर सकते है। पहला वर्ग बना बनाया माल लेता है। जिसको गद्दीदार कहा जाता है। ये वर्ग कमो बेस आज भी अपना रोज़गार ठीक ठाक चला ले रहा है। दूसरा वर्ग वो है जिसकी मशीन है और वो दुसरे के आर्डर का माल लेकर बनाता है। थोडा मुश्किल इस वर्ग को आई है। क्योकि मजदूरी कम होने और बुनकरों को मिलने वाली सब्सिडी पर बने असमंजस की स्थिति ने इस वर्ग को प्रभावित किया है। एक तो काम कम और दुसरे कारीगरी कम होने के कारण ये वर्ग जो पहले मजदूरों से काम करवाता था अब खुद काम कर रहा है।

सबसे अधिक इस मंदी की मार से बेहाल बुनकर मजदूर है। एक तो काम नही है और अगर कही काम है तो मजदूरी कम होने के कारण एक तो कारीगरी कम मिल रही है। जो माल पहले 10 रुपया मीटर की बिनाई पर आता था जिसमे मजदूरी 5 रुपया मीटर मिल जाती थी और 12 घंटे काम करने पर 500 रुपयों की दिहाड़ी खडी हो जाती थी। वही अब इस वर्ग को 3 रुपया मीटर की कारीगरी मिल रही है। अब एक बुनकर मजदूर को 25 मीटर एक मशीन पर बिनता था और दो मशीन एक साथ चलाता था के हिसाब से 50 मीटर बिन कर आराम से 250 अथवा 300 की दिहाड़ी करता था को अब केवल एक मशीन के इतना काम मिल रहा है और दाम भी कम है। यानी रोज़ की दिहाड़ी लगभग 100 अथवा 125 रुपया आ रही है।

इस दरमियान रोज़गार की मार से परेशान बुनकर अपनी ज़रुरियात को पूरा करने के लिए दुसरे कारोबार की तरफ देखना शुरू कर चुके है। आपको कुछ बुनकर बाहुल्य इलाको में लेकर चलते है। पहले धमरिया (लोहता) क्षेत्र के तरफ जायेगे तो हर एक नुक्कड़ पर एक दो दुकाने खुली मिलेंगी। ये छोटी छोटी चाय पान की दुकानो का इतिहास पता करेगे तो मालूम चलेगा कि ये दुकाने लॉक डाउन के बाद से खुली है। लॉक डाउन में रखी हुई बजत खत्म होने के बाद ये बुनकर मजदूरी करने वालो के सामने रोज़ी रोटी की समस्या काफी जटिल हो गई। जैसे आप यहाँ के बेलाल को देख ले। बेलाल की दो पॉवर लूम है। ठीक ठाक कारोबार था। दिन में दुसरे से बिनवाने वाला बिलाल रात को खुद की पॉवर लूम चलाता था। मगर जब लॉक डाउन के बाद कारोबार पर मंदे की मार पड़ी तो स्थिति बिगड़ गई। रोज़मर्रा की ज़रुरतो को पूरा करना मुश्किल होने लगा तो एक छोटी सी दूकान पान की खोल लिया। ऐसी ही स्थिति कुछ यहाँ के अब्दुल रहमान की है।

ऐसा नही कि केवल लोहता क्षेत्र के ही बुनकरों पर मंदी की मार पड़ी है। बल्कि ये कहा जाए कि इस मंदी की मार में सबसे कम असर अगर कही पड़ा है तो वह है लोहता क्षेत्र। अगर आप वही दूसरी तरफ घनी बुनकर आबादी आलमपुर, हसनपुरा, छित्तनपूरा के तरफ जाए तो वहा इस मंदी की मार आपको अधिक दिखाई देगी। ये मंदी की मार ही है कि छित्तनपुरा तिराहे के पास एक सकरी गली में रहने वाले मो0 अहमद जो लॉक डाउन के पहले अंटे का कारोबार कर परिवार का पालन पोषण करता था अब छोटी सी पान की दूकान खोल बैठा है। रोज़गार ही सही मगर बढिया रोज़गार भी चल रहा है। पास में ही तानी तानने की मशीन लगी थी, कारोबार काफी अच्छा चलता था। मगर कारोबार में चली आ रही मंदी की मार ने इन्हें भी मशीन हटा कर चाय की दूकान खोल रोज़ का खर्च और दाल रोटी चलाने के लिए रास्ता दिखाया।

पास ही आबिद मुस्तफा आपको काफी मशीन लगा कर काफी बेचते दिखाई दे जायेगे। आबिद या फिर बाबु को देख कर आप उनके पहनावे से अंदाज़ लगा सकते है कि बंदे पढ़े लिखे और सभ्य समाज का एक हिस्सा है। आबिद ने तो पिछले साल तक यानी 2020 तक खुद की साडी की गद्दी भी आवास के नीचे खोल रखा था। ये गद्दी आज भी सलामत है। मगर कारोबार जीरो पर पहुच चूका है। आबिद मुस्तफा और उसके भाई ने एक काफी मशीन लगा कर काफी बेचने का निर्णय लिए। आज उस काफी की दूकान को खुले हुवे कुल एक महीने हुआ है। आबिद इस दूकान से काफी के लिए लगभग 25 लीटर दूध इस्तेमाल कर लेते है। आबिद के चेहरे पर आज भी संतुष्टि की मुस्कराहट रहती है।

हमसे बात करते हुवे आबिद ने बताया कि एक तो काम नही है। अगर कही से काम मिलता भी है तो दाम कम है। उस दाम में बिजली का खर्च, मजदूरी कैसे निकाले। सबसे बड़ी बात ये है कि काम मिल भी रहा है कम दाम पर भी तो उसका भुगतान कब होगा इसकी कोई गारंटी नही है। पहले 6 महीने से लेकर एक साल तक की उधारी चलती थी। तो पूंजी को सर्कुलेट करते रहते थे। लॉक डाउन में हालात ऐसे हो गए कि अप्रेल मई का चेक भी अभी एक भुगतान नही हुआ है। अब जो माल बेचेंगे तो उसका भुगतान कब होगा इसकी गारंटी नही है। नगर भुगतान पर अगर माल बेचते है तो लागत ही निकल सकती है। उसके अवाला मुनाफा एक रुपया नही होगा। हो सकता है कि लागत से भी कम दाम मिले। ऐसे में खर्च चलाने के लिए काफी की दूकान खोल लिया है। दोनों भाई हम मिल कर यहाँ काफी बेच कर रोज़मर्रा की ज़रुरतो के इतना कमा लेते है।

ऐसा ही कुछ हाल हसनपुरा के सरफ़राज़ अहमद का है। सरफ़राज़ के पास चार करघा था। करघो से अच्छी खासी आमदनी हो जाती थी। मगर करघा उद्योग पर मंदी की मार पिछले दो सालो से है। लॉक डाउन में बचत के पैसे भी खर्च हो गए। अब सरफ़राज़ घर के गलियारे में छोटी सी चाय की दूकान लगा कर खर्च चलाते है। आप उनको एक फोन कर दीजिये तो चाय लेकर आपके कार्यालय अथवा आपके आवास पर आ जायेगे। क्योकि चार पैसो की आमदनी का सवाल है। कल तक ये सभी नए दुकानदार दुकानों पर पैसे देकर सामान लेते थे। अब खुद चाय, पान अथवा काफी बेच रहे है।

ग्राहक पुराने दूकान को छोड़ कर नई जगह आये इसके लिए इनके सामानों की क्वालिटी और दाम भी बड़े मुनासिब है। जैसे आबिद मिया की काफी के साथ मक्खन का भी मेल रहता है। तो बाबू की चाय में अपना अलग ही टेस्ट है जो आपको पसंद आयेगा। सरफ़राज़ के चाय के लोग कायल हो चुके है और पुराने दूकान को छोड़ अब सरफ़राज़ की चाय के दूकान पर बाहर गली में खड़े होकर चाय पी लेते है। वही मोहम्मद अहमद के पान का भी अच्छा टेस्ट है। आप जब भी इधर से गुज़रे तो पहले सरफ़राज़ की दूकान से एक चाय पिए। कुछ देर बाद आबिद मुस्तफा की काफी और फिर बाबु की चाय के टेस्ट को चखे। बाद में एक बढ़िया बीड़ा पान का मोहम्मद अहमद की दूकान से ले। आपको वाकई लगेगा कि बड़े नामचीन दुकानदारों के कम्पटीशन करने लायक इनके प्रोडक्ट में क्वालिटी है।

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