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देखे पत्रकार रक्षित ने क्यों छोड़ा किसान महापंचायत के मंच पर चढ़ कर अपने इस न्यूज़ चैनल की नौकरी, क्या कहा रक्षित ने, जाने निष्पक्ष पत्रकारिता का दर्द

तारिक़ आज़मी

मेरठ। पत्रकारिता आज के दौर में आसान नही रह गई है। इसका दर्द केवल वो ही पत्रकार समझ सकता है जो निष्पक्ष पत्रकारिता करता है। थाना चौकी पर जी हुजूरी करके, पैरोकारी करके कथित पत्रकारिता करने वालो को इसका दर्द क्या मालूम हो। पत्रकारिता आज वो डगर हो गई है जहा पल पल कदम कदम पर खतरा है। कहा जा सकता है कि एक आग का दरिया है और डूब कर जाना है। एक श्रमजीवी पत्रकार के लिए काफी कठिन होता है पत्रकारिता करना। सच दिखाने पर झूठ के पैरोकारो की नाराज़गी झेलना भी बड़ी दिक्कत पैदा करता है।

काफी पेशोपेश की ज़िन्दगी चलती है एक श्रमजीवी पत्रकार की। शायद 15 साल से पत्रकारिता कर रहे रक्षित को भी इस पेशोपेश की ज़िन्दगी काफी झेलनी पड़ी होगी। बिकाऊ मीडिया जैसे लफ्ज़ कानो में शीशे की तरह पिघलते है। शायद रक्षित को भी ऐसे अल्फाजो से दो चार होना पड़ रहा होगा। आखिर सब्र का पैमाना छलक गया और रक्षित अपने चैनल की आईडी लेकर मेरठ के किसान महापंचायत में गया तो था खबर को कवर करने के लिए। मगर उसके ज़मीर ने आखिर उसको ललकार दिया होगा। उसका ज़मीर उसको मंच तक ले गया।

एक नामचीन न्यूज़ चैनल की हाथो में माइक आईडी लेकर मंच पर चढ़े रक्षित ने माइक आईडी को मंच पर ही रखा और उठा लिया किसान नेताओं के हाथो का माइक और मंच से ही खुद के इस्तीफे की घोषणा कर दिया। वायरल हो रहे वीडियो में आप रक्षित के अल्फाजो को गौर से सुने। उसके दर्द को सुने। लाख रुपया महीने की नौकरी छोड़ देना कोई मामूली बात नही होती है। जिगर चाहिए ऐसे हौसले को। मगर आप सोचे इस हौसले से ज्यादा उसके ज़मीर ने ललकार दिया होगा। रक्षित ने अपना दर्द माइक से बयान कर डाला।

मच पर बैठे लोगो की निगाहें रक्षित को गौर से देख रही थी। उसके लफ्जों में जज्बा था। हौसला था। हिम्मत थी। सही ऐसी हिम्मत नही रखते है। कितने खतरे झेल कर एक निष्पक्ष पत्रकार अपनी कलम से आपको सच दिखाता है। शायद इसको आप आराम से अपने नर्म मुलायम बिस्तर पर बैठ कर अथवा चाय की कप हाथो में लेकर खुद के आलिशान ख्वाबगाहो में नही समझ सकते है। जब सर्द हवाओं के थपेड़े चेहरे को चुमते है। जब गर्मी की लू चेहरों का बोसा लेने को बेताब रहती है। बारिश की बरसात तन बदन को भीगा देने को आतुर रहती है और उसके बावजूद इन सबसे इतर खबर को सही तरीके से सजा सवार कर आपके सामने परोसना पहला काम रहे।

समस्याओं को समझना, सच का पहलू जानना, झूठ के पहलू को गौर करना। उसके बाद खबर लिखना। उसको आप तक परोसना और फिर झूठ के दिमाग में आपके लिए पली नफरत का दंश भी ध्यान रखना। हकीकत में इसका अहसास श्रमजीवी पत्रकार को ही हो सकता है। जब सच लिखो और झूठ के पैरोकारो की नाराज़गी झेलो तब एक मन में शांति के बीच अजीब बेचैनी खुद के मुस्तकबिल की होती है। अब मीडिया हाउस हकीकत न दिखाए तो आप उस मेहनत का दर्द रक्षित सिंह की आवाज़ में समझ सकते है। उसके जज्बे को देख सकते है।

अगर आप गौर करेगे तो ऐसे माहोल में जमकर डिजिटल मीडिया अपना पैर जमा रहा है। हकीकत से रूबरू करवा रहा है। कई बड़े नामो ने खुद को बड़े बड़े मीडिया हाउस से अलग करके खुद अपना डिजिटल मीडिया प्लेटफार्म खड़ा कर डाला। जनता को भी सच जानना रहता है शायद यही वजह है कि अभिषार कोई वीडियो अपलोड करे तो चंद घंटो में ही उसके देखने वाले लाखो में हो जाते है। अजीत अंजुम की विजिट देखे आप। किसान आन्दोलन को पल पल कवर करके आपके सामने लाने वाले पूण्य प्रसून बाजपेई की विजिट देखे। रविश कुमार के ब्लॉग पर विजिट देखे। तो रविश के ही फेसबुक पोस्ट पर विजिट देखे। ये लाखो की भीड़ ज़रूरी नही कि समर्थक ही हो।

हकीकत में निष्पक्ष पत्रकारिता करके सही बातो को सही तथ्यों के साथ रखने पर समर्थक तो बढ़ते है। मगर विरोधी भी उसी अनुपात में बढ़ते है। समर्थक सच के साथी होते है मगर वो खामोश रहते है। विरोधी और झूठ की पैरोकारी करने वाले झूठ के साथी होते है और वो बोलते है। उनके कमेन्ट बोलते है। अभद्रता अपने लफ्जों से करने को बेचैन रहते है। आज भी मैं रोज़ ही काफी कमेन्ट अपने वेब साईट से डिलीट करता हु जो महज़ गलियाँ देते है। हज़ारो की ताय्दात में मुझे पढने वाले सभी मेरे विरोधी नही है। समर्थक भी काफी है। मगर समर्थक तहजीब पसंद है। जबकि विरोधी और झूठ के पैरोकारो के पास अश्लील सन्देश रहते है।

मुझको नही मालूम रक्षित का करियर अब खत्म होगा या फिर पुण्य प्रसून, अजीत अंजुम, अभिषार जैसा चमकेगा। मगर रक्षित का फैसला जज़्बात में नही बल्कि हिम्मत का फैसला है इसको तो मानना पड़ेगा। एक अच्छी खासी नौकरी स्मार्ट सेलरी को छोड़ना इतना आसान नहीं होता है।

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