तारिक़ आज़मी
वाराणसी। इस कोरोना महामारी के आपदा काल में जहा एक तरफ लोग एक दुसरे से मदद मांग रहे है, वही कुछ थोड़ी मदद किसी की कर रहे है तो छपास रोग से ग्रसित होकर सोशल मीडिया पर अपने कार्यो की चर्चा कर रहे है। महज़ हज़ार, पांच सौ की मदद जो बेशक इस आपदा काल में बड़ी मदद है, के बाद उसका जमकर प्रचार प्रसार कर रहे है। ऐसे महोल में दालमंडी के दो युवा कारोबारियों द्वारा जिस तरीके से घुप सियाह अँधेरे में गाँवों के सुनसान रास्तो पर नेकियो को बटोरने का काम खुद की आँखों से देखा वाकई वह काबिल-ए-तारीफ है।
गुजिस्ता बुद्धवार की रात थी। घडी ने साफ़ साफ़ इशारा कर दिया था कि अब बुद्ध गुज़र चूका है और जुमेरात ने अपनी दस्तक दे दिया है। इधर दूसरी तरफ पूर्वांचल के कुछ जिलो में जिच इस बात की चल रही थी कि ईद सुबह ही मनानी है या फिर जुमे को मनाई जाएगी। इस दरमियान मैं अपने सहयोगियों ए जावेद और अनुराग पाण्डेय के साथ कुछ कार्यवश दुलहीपुर के बुनकर बाहुल्य क्षेत्रों से होकर वापस आ रहे थे। तभी हमारी नज़र एक कार पर पड़ी।
कार मेरी जानी पहचानी लग रही थी। सफ़ेद कार के अन्दर तीन लोग भी दिखाई दिए थे। एक ड्राइविंग सीट पर और एक बगल के सीट पर तथा एक पीछे सीट पर। कार धीमी रफ़्तार से करवत रोड के तरफ मुड गई थी। अमूमन मैं अपनी गाडी अपने सहयोगियों से आगे रखता हु। तो मैंने अचानक उस परिचित कार को देख कर उसके पीछे अपनी बाइक मोड़ लिया। हम सिर्फ ये जानने के तलबगार थे कि ये दोनों कहा इतनी रात को चल पड़े है। आगे की सीट पर दिखे चेहरे परिचित ही थे। दोनों ही दालमंडी क्षेत्र के सफल युवा कारोबारी है। हमने जब अपनी बाइक करवत मोड़ से अन्दर के तरफ मोड़ा तो देखा कार थोडा आगे जाकर रुकी हुई थी।
हम भी थोड आगे आकर उन युवा कारोबारियों एक पास जाकर रुक गए। हमको देख कर दोनों युवा कारोबारी अचंभित जैसे लगे। कार में दालमंडी के युवा कारोबारी शाहनवाज़ खान “शानू” और गुलाम अशरफ थे। पीछे की सीट वाला बन्दा शहनवाज़ खान “शानू” के प्रतिष्ठान में काम करने वाला एक युवक था। हमने देखा कि कार में बमुश्किल एक आदमी की पीछे बैठने कि जगह थी। बकिया पूरी गाडी में सिर्फ पैकेट्स भरे थे। पैकेट्स में कपडे और अनाज तथा सिवईया थी। हमने जिज्ञासा वश खोल के देख डाला। हर एक पैकेट पर एक नाम लिखा था। जिसमे कुछ रेडीमेड नए कपडे थे। राशन था, सेवइयां और चीनी तथा मेवे थे। कपड़ो के पैकेटो पर नाम लिखा हुआ था मगर राशन का हर एक सामान पैकिंग के साथ अलग अलग था।
हम मामले को समझ ही रहे थे कि एक और गाडी आकर रूकती है। उसमे भी यही सब सामान था। तभी दो युवक और आ जाते है। देखने में दोनों युवक उसी गाँव के लग रहे थे। माजरा अब समझ आया था। ये दौरा असल में दोनों सफल युवा कारोबारियों द्वारा नेकी का कारोबार करने का था। इस नेकी टूर में उन्होंने इसी गाव के दो युवको से आवश्यकता वाले घरो की लिस्ट उनके सदस्यों और सदस्यों की उम्र के हिसाब से बना रखा था। लगभग 50 परिवार को ये युवक एक एक का नाम कपड़ो की पैकेट पर पढ़ कर उनके घर लेजाकर दे रहे थे। कपड़ो के साथ सिवईया, चीनी, मेवे, राशन पाकर उन गरीब परिवार की खुशियों का अंदाजा हम लगा सकते है। बेशक उस रात जद्दोजेहद इसकी थी कि ईद सुबह होगी कि नही। मगर इन गरीब परिवार की असली ईद तो रात में घुप सियाह अँधेरे में हो रही थी।
हमने जिज्ञासावश शहनवाज़ खान “शानू” से पूछा, भाई एक बात बताओ, लोग कोई भी मदद करते है तो उसको फोटो खिचवाते है, सोशल मीडिया पर वायरल करते है। आप ये इतना बड़ा काम कर रहे है, इसका न कोई प्रचार और न ही प्रसार। मेरे इस सवाल के जवाब में अपनी चिरपरिचित मुस्कराहट के साथ शहनवाज़ “शानू” ने कहा भाई एक बात समझे, हम ये जो कुछ कर रहे है वह हम नही कर रहे है, बल्कि अल्लाह करवा रहा है। हम तो सिर्फ एक जरिया है। अल्लाह का शुक्र हम भेजते है कि उसने जरिया इस काम का मुझको बनाया है। इसमें क्या कोई प्रचार प्रसार और क्या इसकी तारीफ किसी से लेना। वो तो रब्बुल आलमीन है। वो सब देख रहा है। हमको सिर्फ उसको ही दिखाना है।
हमारी नज़र कुछ ऐसे पैकेट पर पड़ी जिनपर नाम लिखे तो थे, मगर नाम पर हम बहुत अचंभित थे। वैसे तो नाम में मज़हब हमने कभी नही तलाश किया। हम हमेशा सांप्रदायिक पहचान के विरुद्ध रहे। मगर हमारे ज़ेहन में जो सवाल आया वो कुछ और बयाँन कर रहा था। हमने पूछ अभी एक बात समझ नही आई। कल या फिर परसों (यानि बीता बृहस्पतिवार अथवा शुक्रवार) ईद होगी। ईद की किट आप पंहुचा रहे है। वो समझ में आया। मगर मुस्लिम कम्युनिटी के इस त्यौहार पर गैर मुस्लिम कम्युनिटी को भी ये सब भेज रहे है जबकि उनके लिए तो राशन ही काफी था ?
मेरे इस सवाल पर सफल युवा कारोबारी गुलाम अशरफ ने जो कहा वह वाकई दिल को छू गया। उनके लफ्जों को हम उन्ही की भाषा शैली में सशब्द बताते है। उन्होंने कहा कि “तारिक भाई, एक बात समझे, पहली बात तो ये कि ईद की खुशिया मज़हब की मोहताज न हो ये तरबियत हम बचपन से पाते है। दूसरी सबसे बड़ी बात, अपने पड़ोस के बच्चो को नया कपडा पहने देख क्या ये बच्चो के मन में नए कपडे पहनने की बात नहीं आएगी। बेशक आएगी, उनका मन भारी न हो तो बस ये सोच किया कि घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो ये कर ले, किसी रोते हुवे बच्चे को हंसाया जाए।”
दोनों ही युवा कारोबारियों की सोच ने हमारे मुह से “वाह” लफ्ज़ निकलवा ही दिया था। उन्होंने कहा कि आज जैसा माहोल है उसके लिए सिर्फ ये सोचना चाहिये कि खुद खाना खाने के पहले ध्यान रखना चाहिए कि आज पडोसी के घर में कुकर ने सीटी दिया है या फिर नही। हम जितना अपना और अपने परिवार का ख्याल रखते है उतना ही फ़र्ज़ इस्लाम ने पडोसी का भी बताया है। हम इस्लाम के नियमो को मानते है। इस्लाम के नियमो में पडोसी का फ़र्ज़ भी होता है। हम सिर्फ अल्लाह की रज़ा के लिए कर रहे है। गुलाम अशरफ ने कहा कि “हमारा रब रब्बुल आलमीन है।” यानी पुरे आलम अर्थात ब्रह्माण्ड का रब है। किसी एक का नही है। हम उसकी रज़ा के लिए छोटी सी खिदमत कर रहे है। अल्लाह से दुआ है कि अल्लाह हमारी इस खिदमत को कबूल फरमाए।
इसके बाद हम लोग काफी देर तक वहा खड़े रहे। सारे पैकेट्स लोगो के घरो तक पहुच चुके थे। गुलाम अशरफ और शहनवाज़ खान “शानू” के चेहरे पर एक सुकून साफ़ दिखाई दे रहा था। हम समझ चुके थे ये दोनों सफल युवा कारोबारी नेकी का कारोबार कर रहे है। इस घुप सियाह अँधेरे में वह नेकी का उजाला कमा रहे है। हम उनके इस जज्बे की क़द्र करते है। इसी मुहब्बत के सरज़मी को हिन्दुस्तान कहते है।
नोट – अगर आप ऐसे अन्य समाज सेवको को जानते है जो बिना स्ट्रीम लाइट में आये ख़ामोशी के साथ खिदमत-ए-खल्क कर रहे है तो आप उनकी जानकारी हमको दे। ऐसे समाजसेवियों के प्रोत्साहन हेतु हम उनके कार्यो से सम्बन्धित समाचार प्रकाशित करेगे ताकि समाज के अन्य लोग भी आगे आये।
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