तारिक आज़मी
वैसे तो “बाप” लफ्ज़ की अजमत बताने के लिए अगर पूरी ज़िन्दगी लिखा जाए तो भी शायद अलफ़ाज़ कम पड़ जायेगे। मगर दुनिया है कि साल के एक दिन यानी जून के तीसरे इतवार को “फादर्स डे” मनाती है। यूरोप के कल्चर से गुमशुदा हुई तहजीब के मार्फ़त इस दिन को दुनिया में मनाया जाने लगा है। इस बार “फादर्स डे” आज 20 जून को मनाया जा रहा है। इस दिन लोग अपने पिता यानी वालिद को “हैप्पी फादर्स डे डैड” कह कर एक दिन को “बाप” लफ्ज़ के नाम कर देंगे।
बेशक अपने वालिदैन के लिए साला का एक दिन या फिर दोनों को अगर अलग अलग देखे तो दो दिन मना लेना और अपने फ़रायज़ पुरे कर देना ये कल्चर यूरोप का ही है। मगर दुनियाबी रफ़्तार के रेस में दौड़ रहे हम इस कल्चर को लेकर दौड़ पड़े है। आज लोग अपने वालिद यानि पिता को विश कर रहे है। उनके लिए तोहफे लाकर दे रहे है। उनके साथ कुछ लोग वक्त गुज़ारने की प्लानिंग भी कर रहे है। मगर जईफी के पायदान पर पहुचे हमारे वालिदैन के लिए क्या महज़ एक दिन ही काफी है।
वालिदैन की अहमियत हम जैसे लोगो से पूछे जो अपने माँ-बाप को खो चुके होते है। जिसने लिए माँ-बाप लफ्ज़ एक सिर्फ याद ही रह गई है। “ममता” लफ्ज़ को ब्यान करने में शायद एक पीढ़ी कम पड़ जाए। इस लफ्ज़ के लिया माँ की अजमत को समझे। तहजीब के मद्देनज़र आप देखे तो माँ की अजमत सिर्फ इसी एक लफ्ज़ से बयान होती है कि जन्नत भी रब ने माँ के कदमो के नीचे डाल रखा है। मैंने अपने बुजुर्गो से सुना है कि जन्नत गर माँ के कदमो के नीचे है तो बाप उस जन्नत का दरवाज़ा है।
बाप लफ्ज़ ही कुवत का अहसास है। बेशक हमारे वालिदैन जितने भी बुज़ुर्ग हो जाए मगर उनके रहने से जो कुवत हमको मिलती है दुनिया के सभी एनर्जी ड्रिंक मिलकर भी वो कुवत आपके अन्दर पैदा नही कर सकते है। बाप का सर पर साया ही खुद के हिफाज़त की दलील होती है। मशहूर शायर अब्बास ताबिश मिया का एक शेर बेहद दिल को आज छू कर गुज़र रहा है जब अपने वालिद की यादो के सहारे चंद अल्फाजो को लिखने की कोशिश कर रहा हु कि “मुद्दत के बाद ख़्वाब में आया था मेरा बाप, और उस ने मुझ से इतना कहा ख़ुश रहा करो।” आप कितने भी बड़े हो जाए आपका जितना भी बड़ा रुतबा हो जाए वो सभी रुतबा और आपका बड़प्पन आपके वालिद की एक मुस्कराहट पर कुर्बान है।
याद है मुझको अपना बचपन। मेरे वालिद खुद के लिए एक जूते खरीदे जो उस वक्त का सबसे सस्ते चमड़े का होता था। मगर बेटो को उनकी पसंद का महंगा जूता ही दिलवाते थे। साल में चार-पांच जोड़ी कपड़ो की बेटो के तन पर सजा देते थे। मगर अपने लिए महज़ एक ईद के रोज़ नया कपडा पहनते थे। बेशक खुद को धुप में रखकर उनको हमको साए में रखा। हमारी तरबियत में कोई कमी न हो इसके लिए अगर वो सख्त होते थे तो हमारी थोड़ी सी तबियत ख़राब होने पर दिन भर थके हारे आने के बाद रात भर जागा करते थे। हल्का बुखार भी हो तो परेशान हो जाते थे।
अक्सर वालिद की सख्त बाते याद आती है। दिल तड़प जाता है कि एक बार ऐसे ही सख्त अलफ़ाज़ और आकर बोल दे। ये आखिरत की सबसे बड़ी नेयमत खोने के बाद शायद आँखों के पट्टे खुलते है। बाप सुबह से लेकर शाम तक मेहनत करके घर वापस आने के बाद अपने बच्चो के साथ वक्त गुजारता है। उनके साथ खेलता है। अपने बच्चो की एक मुस्कराहट से ही उसकी थकान दूर हो जाती है। बच्चो के लिए हर ख़ुशी खरीद लेने की कोशिश करता है। लाख थके होने के बाद भी बच्चो को पूरा वक्त देता है बाप।
वक्त बदलता है और बेटे बड़े हो जाते है। कह सकते है कि कलेंडर ही पूरा का पूरा बदल जाता है। बेशक ये लफ्ज़ मेरे सभी पर लागू नही होते है, मगर ऐसे भी काफी है जिनके ऊपर लागू होते है। वक्त बदलता है। बेटा भी बाप बन जाता है। उस दिन एक नही दो बाप खुश होते है। बेटा जो बाप बना और बाप जो दादा बन गया। पोते-पोती, नाती-नतनी में अपने बच्चो की हंसी और ख़ुशी तलाशने वाला बाप अब रिटायर हो चूका होता है। अब हमारे पास वक्त अपने बाप को देने का कितना बचता है ? चंद लम्हे देकर फिर अपने बाल बच्चो में मस्त हो जाते है। बाप हमारी इस ख़ुशी में भी बहुत खुश रहता है। मगर वक्त तो हमारे वालिदैन को भी हमारा चाहिए। इसके लिए हमारे पास एक लाख वजह आ जाती है। बस वक्त नही आता है।
मिराज फैजाबादी ने अर्ज़ किया है कि “हमें पढ़ाओ न रिश्तों की कोई और किताब, पढ़ी है बाप के चेहरे की झुर्रियाँ हम ने।” मुनव्वर राणा साहब कई कलाम माँ बाप की अजमत और खिदमत पर लिख चुके है। उन्होंने ही कहा था “मुख़्तसर सी ही सही ज़िन्दगी बढ़ जाएगी, माँ की आँखे चूम लीजिये रोशनी बढ़ जायेगी।” इस अज़ीम शायर ने एक उम्दा शेर माँ बाप की खिदमत पर लिखा है कि “ये सोच के माँ बाप की ख़िदमत में लगा हूँ, इस पेड़ का साया मिरे बच्चों को मिलेगा।” आप “फादर्स डे” या फिर “मदर्स डे” जैसे यूरोपीय कल्चर के दिन मनाते है या नही मनाते है। ये आपके ऊपर निर्भर है।।
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