तारिक़ आज़मी
ईद-उल-अजहा आज पुरे मुल्क में अमन-ओ-सूकून से मनाया जा रहा है। इस्लाम मज़हब के दो प्रमुख त्योहारों में एक ईद-उल-फ़ित्र है जो रमजान के ठीक बाद मनाया जाता है वही दूसरा ईद-उल-अजहा है। इसको बकराईद के नाम से भी पुकारा जाता है, वही ईद-उल-फ़ित्र को भारत के कई भागो में मीठी ईद के नाम से पुकारा जाता है। दोनों ही ईद एक ख़ास संदेश के साथ मनाया जाता है, ईद-उल-फ़ित्र सबसे प्रेम करने का संदेश देता है। साथ ही गरीबो की मदद करने का सन्देश देता है। वही बकरीद अल्लाह पर भरोसा रखने का संदेश देता है। ईद-उल-अजहा कुर्बानी का दिन है। बकरीद दुनिया भर के इस्लाम धर्म में आस्था रखने वाले लोगों का प्रमुख त्योहार है। ये पूरी दुनिया में धूमधाम से मनाया जाता है। इस त्योहार की सीख है कि नेकी और अल्लाह के बताए रास्ते पर चलने के लिए बड़ी से बड़ी कुर्बानी देनी पड़ती है।
यह पर्व इस्लाम मज़हब के मानने वालो जिन्हें मुस्लिम कहा जाता है के लिए बेहद खास है। ये पर्व हजरत इब्राहिम (अ0स0) के अल्लाह के प्रति विश्वास की याद में मनाया जाता है। इस्लामिक ग्रंथों के मुताबिक हजरत इब्राहिम, अल्लाह में सबसे ज्यादा विश्वास करते थे। कुरआन में अल्लाह ने उन्हें “खलील” कहा है। यहाँ “खलील” का मायने दोस्त से होता है। अल्लाह ने उनकी परीक्षा लेने के लिए उन्हें अपने बेटे इस्माइल (अ0स0) की कुर्बानी देने का हुक्म दिया। हजरत इब्राहीम (अ0स0) का अल्लाह पर भरोसा इतना ज्यादा था कि वे इसके लिए भी तैयार हो गए। लेकिन जैसे ही उन्होंने अपने बेटे की कुर्बानी देने के कोशिश की तो कुर्बानी के लिए उनके बेटे के बजाए एक दुंबा वहां आ गया। इस वाक्ये को आधार मानकर बकरीद के दिन जानवरों की कुर्बानी दी जाती है। ये त्योहार अल्लाह पर भरोसे की मिसाल के तौर पर देखा जाता है।
यह त्योहार अपने फरायेज़ निभाने का संदेश देता है। ‘ईद-उल-अजहा’ का स्पष्ट संदेश है कि अल्लाह के रास्ते पर चलने के लिए अपनी सबसे प्रिय वस्तु की कुर्बानी भी देनी पड़े तो खुशी से दें। क्योंकि अल्लाह आपको नेकी और अच्छाई के रास्ते पर चलने का संदेश देता हैं। उसके बताए नेकी, ईमानदारी और रहमत के रास्ते पर चलना अल्लाह के प्रति आस्था रखने वाले हर एक बंदे का फर्ज है। ये त्योहार इस्लामिक कैलेंडर के हिसाब से पर्व रमजान के पाक महीने के करीब 70 दिनों बाद आता है। बताते चले कि इस्लामी कलेंडर का ये आखरी महिना होता है। अगर गौर से देखे तो इस्लामी कलेंडर का पहला महिना मुहर्रम का होता है। मुहर्रम भी कुर्बानी की सबसे बड़ी नजीर कायम करने वाला महिना है और आखिरी महिना भी कुर्बानी का है।
वैसे ‘ईद-उल-अजहा’ को ‘बकरीद’ कहना भारत में ही सबसे ज्यादा प्रचलित है। शायद इसलिए क्योंकि भारत में इस दिन ज्यादातर बकरे की कुर्बानी देने का चलन है। दूसरे मुल्कों में इस मौके पर भेड़। दुम्बा, ऊंट, बैल आदि जानवरों की कुर्बानी दी जाना बेहद आम है। वही भारत में दुम्बा (बकरे की एक प्रजाति) नही मिलती है। भारत में अधिकतर बकरे की कुर्बानी दिया जाता है। कुर्बानी के बाद उसका गोश्त अपने पड़ोसियों, रिश्तेदार और गरीबो में तकसीम किया जाता है। कुर्बानी के गोश्त का एक हिस्सा गरीब का, दूसरा पड़ोसियों का और तीसरा रिश्तेदार का होता है। गौरतलब है कि इस्लाम में पडोसी का काफी मर्तबा आया है। पडोसी से मुहब्बत रखने के अलावा उसके सुख दुःख का ख्याल रखने का सख्त निर्देश है। वही साहेब-ए-निसाब को गरीबो में ज़कात/खैरात करने का भी हुक्म इस्लाम देता है।
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