शाहीन बनारसी
कहते है गुरु बिना ज्ञान नही और ज्ञान बिना जीवन नही। गुरु शब्द तो बहुत छोटा है मगर हमारी ज़िन्दगी में इस शब्द के मायने बहुत बड़े है। जिंदगी में कुछ सीखने के लिए सभी को एक गुरु की तलाश होती है। लेकिन देखा जाए तो उस्ताद को तलाशने की जरूरत ही नही होती। आपकी काबलियत से खुश होकर वह रब्बुलआलमीन खुद आपको आपके उस्ताद से मिलवा देता है। भले वह बिरयानी की दूकान पर भूख मिटाते एक नवजवान, जवानी और दौलत के तकब्बुर में मदहोश अजहर को बाढ़ की मौजूदा हालात अमूमन बातचीत में बताने वाले के रूप में मिल जाए और उसको एक तह्जीब्दार, ब-अदब ए0 जावेद बना डाले, जिसका नाम ही उसकी पहचान हो जाए। ऐसे ही वह खुद-ब-खुद मिल जाता है।
मैंने भी यही सब कुछ सीखा है। मगर मैंने कभी सोचा नही था कि इस शाहीन को लफ्जों के आसमान में परवाज़ करने का सलीका आएगा। बेशक हमे बोलना सीखने में महज़ दो साल लगते है। मगर क्या बोलना है ये सीखने में दो जन्म भी कभी कभी कम पड़ सकते है। मैंने कभी सोचा भी नही था कि मुझे एक ऐसा उस्ताद मिल जायेगा जो मुझे मेरे नाम के ही वजूद को समझा देगा। दुनिया के इस भीड का कभी मैं हिस्सा थी। एक ऐसे मोहल्ले और परिवार से हु, जहा बेटियों को बेशक तालीम दिया जाता है, मगर कुछ बंदिशे भी रहती है। एक ऐसी लड़की जिसकी कोई पहचान नही थी मगर उसको इस दुनिया की भीड़ में एक पहचान दी मेरे इसी गुरु ने। मुझे मेरे नाम के मायने तो पता थे, लेकिन इस मायने का वजूद मुझे मेरे गुरु ने बताते हुए कहा कि “शाहीन का वजूद परवाज़ से ताल्लुक़ रखता है।“
शाहीन अपनी परवाज़ के लिए ही पैदा होता है। उन्होंने मुझे तालीम-ओ-तरबियत के दरमियान बताया है कि तिरी परवाज़ तिरे लफ्जों की आज़ादी है। उन्होंने ने ही अहसास करवाया कि मिरे लफ्जों और लबो को भी आज़ादी है। अब ये शाहीन छोटा ही सही मगर अल्फाजो के आसमान में परवाज़ कर रही है। ये एकदम ऐसा ही है कि गर यासिराना चंगेजी लखनऊ से हिजरत न किये होते तो शायद उनके लफ्जों में वो कशिश भरा हुआ शेर “कशिश-ए-लखनऊ हाय तौबा, फिर वही हम, वही अमीनाबाद” नही आता। शायद मैं अपने उस्ताद से नही मिली होती तो मेरे नाम का वजूद क्या है मुझको पता ही न चल पाता।
मेरा वजूद क्या हैं? ये मैं नही जानती थी। शायद अब तक भी नही जानती गर मेरे उस्ताद ने ये न बताया होता कि कदीमी उर्दू अदब में मेरे को मिरे कहते है। वैसे ही नहीं को नाय कहते है। बड़े तफसील से मशहूर शायर डॉ राहत इन्दौरी ने कहा था कि “बुलाती है, मगर जाने का नाय। ये दुनिया है इधर जाने का नाय।” मूझसे मिरे उस्ताद ने वजूद समझाया, जब हमने इसका तस्किरा अपनी वाल्दा जो मेरी सबसे अच्छी दोस्त है से किया तो उन्होंने भी इसकी तफसील समझाया। बिलाशुबहा एक सच्चा गुरु वही तो है जो जीना सीखा दे। दुनिया के रास्तों पर चलना सीखा दे। जो सच्चा इंसान बना दे। मुश्किलो से लड़कर आगे बढ़ना सीखा दे। वो तुम्हे बताये कि जीत जाना ही सब कुछ नही है, और हारकर भी जीत जाने का हुनर सीखा दे। तभी तो सारा जहान जीतने वाले सिकंदर का नाम जब भी लिया जाएगा उससे अपनी जंग कुवातन हारने वाले पोरस का भी नाम लिया जाएगा, क्योकि पोरस ने कुवअतन जंग हारी थी, हिम्मत उसकी नही हारी थी और वह हार कर भी जीत गया था, दुसरे तरफ खाली हाथो इस दुनिया से रुखसत होने वाला दुनिया जीतने की कुवत रखे सिकंदर जीत कर भी हार गया था।
शिक्षक दिवस पर आज मैं गर्व से कहती हु कि बेशक मैं तारिक़ आज़मी की शागिर्द हु, मैंने उर्दू पढ़ा तो अपने वालदैन से था। मगर उन लफ्ज़ो को इस्तेमाल करने की सलाहियत मेरे उस्ताद ने दिया। बेशक मुझको उर्दू आती थी, उर्दू पढ़ लेती थी, उर्दू लिख लेती थी, मगर उर्दू महज़ एक ज़ुबान ही नही बल्कि एक अदब है इसकी तालीम मेरे उस्ताद ने ही दिया। मैंने शीन भी पढ़ा था, और काफ़ भी पढ़ा था, मगर इसका इस्तेमाल मुझको मेरे उस्ताद ने ही सिखाया। दिल से सिर्फ एक ही लफ्ज़ मेरे उस्ताद तारिक़ आज़मी के लिए निकल रहा है “शुक्रगुज़ार हु मैं आपकी मेरे उस्ताद, जो आपने अपनी शागिर्दी में मुझे लिया। शुक्र है उस परवरदिगार का जो उसने मुझे आप जैसा उस्ताद बक्शा।”
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