शाहीन बनारसी संग ए0 जावेद
वाराणसी। जैसा की हमने आपको पहले ही बताया था कि हम अपनी सीरीज के तहत बनारस के मशहुर दुकानों के खान-पान से सम्बंधित आप सबको जानकारी देंगे। अल्हड-मस्ती के लिए मशहूर बनारस ज़ायके का भी एक बड़ा नाम है। हम बनारसी खाने-पीने के इतने शौकीन है कि जब तक सुबह हमे कचौड़ी और जलेबी न मिले तब तक हमारी सुबह ही न होगी। हमारी सुबह कचौड़ी और जलेबी से होती है तो वही शाम बाबा की ठंडई, और रात शकील की चाय से होती है। पप्पू की अडी पर रोज़ रात होने वाली बहस रात का खाना हजम कर देती है। गर बहस न हो तो रात का खाना ही हजम नहीं होगा। हम बनारसी है, खाने-पीने के पुश्तैनी शौकीन है।
खैर, फिर हम होटल के अन्दर गये। हमे काउंटर पर बैठे ताज साहब के पुत्र अरशद मिले। उन्होंने सबसे पहले हमारे हाथो में कोरोना काल से बंट रहे प्रसाद के रूप में सेनीटाईज़र को दिया। अरशद भाई बड़े ही सज्जन एवं अच्छे स्वाभाव के व्यक्ति लग रहे थे। फिर हम टेबल पर जाकर बैठ गये। जावेद भाई ने चिकन टिक्का का आर्डर दिया। आज के इस सोशल मिडिया के दौर में हमे नेट की काफी जरुरत होती है। ऐसे में गर कही वाई-फाई की सुविधा मिल जाये तो साहब मज़ा आ जाता है। अरशद भाई ने ताज होटल में हमे वाई-फाई का पासवर्ड देते हुवे मुझे चार्जर थामाते हुए कहा, लीजिये मैडम, आप लोग मोबाइल चार्ज कर लीजिये। ताज होटल में वाई-फाई कनेक्शन के साथ चार्जर भी मिला, दिल खुश हो गया। आज के दौर में किसी का स्वागत अगर हम वाई-फाई और मोबाइल चार्जर उपलब्ध कराकर करते है तो उसकी अंतरात्मा प्रसन्न हो जाती है। बनारसी भाषा में कहे तो दिल गार्डन-गार्डन हो जाता है। कुछ ऐसा ही अनुभव हमको हो रहा था।
हम वही टेबल पर बैठे हुए थे। हमारे पीछे दिलीप कुमार साहब की फिल्म संघर्ष का खुबसूरत नगमा भी सुनाई दे रहा था, “मेरे पैरो में घुंघरू पह्नादे, तो फिर मेरी चाल देख ले।” हमारी निगाहें दिलीप कुमार साहब के तलाश में भटक रही थी। शायद दिलीप कुमार साहब यहां आये होंगे तो कुछ इस तरीके से बैठकर यहां खाना खाते होंगे या फिर कुछ यूँ बैठे होंगे। हम इन्ही ख्यालातो में गुम थे कि जब दिलीप साहब यहां आये होंगे तो कैसे यहाँ लोगो की भीड़ उनके दीदार को मुन्तज़िर हो गई होगी। हमारे ख्यालो में खलल वेटर की आवाज़ ने डाला “मैम, आपका आर्डर।” हमारे सामने चिकन टिक्का की प्लेट रखी हुई थी। बतरतीब सलीके से सजा हुआ चिकन टिक्का हमारी भूख को दुगुना कर चुका था। साथ में रखी हुई बनारसी भाषा की चटनी अपनी सुगंध से हमको अपने तरफ बरबस खीच रही थी। इस खीचाव को हम ज्यादा देर नहीं रोक सके। और सच मायने में हम चिकन टिक्का पर टूट पड़े।
बेहतरीन, लाजवाब, दिलकश और बेहद उम्दा या फिर यूँ कहूँ तो इस शाहीन बनारसी के लबो की आजादी इस चिकन टिक्का पे लज्ज़त की तारीफ़ करने के लिए लफ्ज़ो की मोहताजी महसूस कर रही थी। बस यही कह सकती हु कि अगर चिकन टिक्का की लज्ज़त लेनी है तो एक बार आप दालमंडी के ताज होटल जरुर आये। हमारे जावेद भाई एक प्लेट चिकन टिक्का पूरा ख़त्म कर चुके थे। और मेरे प्लेट की भी दो पीस उनके जुबां को जायका देते हुए पेट में जा चूका था। हमारा पेट तो भर चूका था। मगर नीयत कमबख्त नहीं भरी थी। और दो प्लेट का आर्डर जा चूका था।
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