बोल शाहीन के लब आज़ाद है तेरे : मऊ प्रधान संघ का धरना और मांग, कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है
शाहीन बनारसी
मऊ में पिछले दिनों प्रधान संघ से सम्बंधित लगभग 500 प्रधानो में कलेक्ट्रेट पर धरना दिया और डीएम को मांगपत्र सौपा। बाकि बाते तो ठीक थी, मगर पांचवे बिंदु पर जब नज़र डाला गया तो बड़ा ही अचंभित करने वाली मांग थी। ऐसा अलग रहा था कि एक बार अंग्रेजो के शासनकाल का प्रेस एक्ट प्रधान लोग दुबारा लागू करवाना चाहते है। जिसमे खबर लिखने के पहले प्रधान जी से पूछना पड़े कि “साहब खबर लिखे कि नहीं, यदि आपकी अनुमति हो तो तनिक खबरिया लिख ले।” डीएम साहब ने प्रधान जी लोगो की मांगो के मददेनज़र जिला सुचना अधिकारी को निर्देशित किया कि पत्रकारों की लिस्ट तैयार करके प्रदान करे।
अब ऐसा प्रतीत होता है कि पत्रकारों की ये लिस्ट हर ब्लॉक पर चस्पा कर दी जाएगी। प्रधान संघ का आरोप है कि पत्रकार लोग आकर के हम लोग को बहुत डिस्टर्ब करते है, और पैसो की मांग करते है। सिरे से हम इस आरोप को ख़ारिज भी नहीं कर सकते है। क्योकि हमको पता है कि “काबुल में गधे भी होते है।” मगर अगर गौर करे तो आखिर प्रधान जी की कौन सी ऐसी मज़बूरी रहती है जो वो दबाव में आकर पैसे देते है। “कर नहीं तो डर नहीं” अगर रखते है तो इंसान पैसे क्यों देगा। अगर हमने गलत नहीं किया है तो फिर कैसे कोई हमारे ऊपर दबाव डाल सकता है। यदि कोई झूठा और अनर्गल आरोप लगता है तो उसके लिए अदालते खुली हुई है। अदालत का सहारा लिया जा सकता है। मगर अगर मै सही हु तो किसी के दबाव में क्यों आऊंगा? ये एक बड़ा सवाल है, जिसका जवाब कक्षा आठ पास शख्स भी दे सकता है। फिर आखिर सोशल मैनेजमेंट करने वाले प्रधान लोगो के पास इसका जवाब क्यों नहीं है?
बहरहाल, यदि ऐसा ही रहा तो किसी के भ्रष्टाचार पर खबर दिखाना भी खतरे से खाली नहीं होगा। प्रधान संघ के पास अपनी संख्या है, वही पत्रकार किश्तों में तकसीम है। एक तरफ प्रधान संघ ने आवाज़ दी तो 500 प्रधान खड़े हो गये। वही दुसरे पत्रकार संगठन आवाज़ देगा तो उसका विरोध उसके ही पत्रकार साथी करने लग जायेंगे। कोई कहेगा ये सब छोटे पत्रकार है, तो कोई उन्ही पत्रकारों को भड़काएगा। संगठन में शक्ति होती है, ये लिखते-लिखते बुढापा आ जाता है। मगर इस लफ्ज़ को समझने में सदियाँ गुज़र चुकी है। शायद यही कारण है कि खबरनवीसी हाशिये पर आ चुकी है। इसी वजह से हम पत्रकार लगभग चलती बन्दुक के मुहाने पर आ चुके है। मगर हमारी समझ हमारी पॉकेट पत्रकारिता तक सीमित हो चुकी है। जिसने मझिथिया की लड़ाई लड़ी जरा उसका हाल पता कर डाले। सब कहा है ? कैसे है।
हम जानते है कि “काबुल में गधे भी होते है।” हम नहीं कह रहे है कि हमारा पत्रकार समाज दूध का धुला है। मगर जो हम पर ऊँगली उठा रहे है। वो कौन सा पाकीज़गी का सर्टिफिकेट लेकर टहल रहे है। 1947 से लेकर 2021 तक इतिहास उठा कर देख ले कि कौन पाकीज़ा है। मगर जिनके दामन खुद दागदार है। वही हम पर उंगलिया उठा देते है। उठाएँगे भी क्यों नहीं? जब हमारी वेशधारी लोग जाकर एक चाय, पान या हजार पांच सौ के लिए अपनी पत्ती सेट करते हुए असली को नकली और खुद को असली साबित करने की फर्जी कोशिशे जारी रखते है।
बहरहाल, स्थानीय जिला सुचना कार्यालय अब पत्रकारों की लिस्ट बना रहा है। स्थानीय कुछ पत्रकारों में इस शिकायत के अवचित पर ही सवालिया निशान लगाया है। वही प्रशासन भी इस शिकायत की गंभीरता को समझ रहा है। मगर बात वही है कि घंटी कौन बांधेगा। हमको क्या है साहब, हमारी कलम के ज़द में प्रधान क्या मेरे ताऊ भी आ जाये तो भी कलम चलने से हिचकेगी नहीं।