मौलाना हुसैन अहमद मदनी : जंग-ए-आज़ादी का वह परवाना जिसके एक फतवे ने अंग्रेजी हुकूमत की नीव हिला दिया था
तारिक़ आज़मी
मौलाना हुसैन अहमद मदनी जंग-ए-आज़ादी के वो परवाने थे, जिनकी हिम्मत का लोहा अंग्रेज़ जज भी मानते थे। मौलाना का जन्म बंगर्मौ जिला उन्नाव में हुआ था। जहां उनके पिता शिक्षक थे। वह मूल रूप से तंद जिला फैजाबाद से थे। 6 अक्टूबर 1879 को जन्मे मौलाना हुसैन अहमद मदनी भारतीय उप-महादीप के बड़े इस्लामिक विद्वानों में माने जाते थे। उनके अनुयायी उन्हें शेख-अल-इस्लाम, शेख-अल-अरब, वल-अज़म को हदीस और फीकह में अव्वल मानते थे।
मौलाना हुसैन अहमद मदनी’ ने अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ फतवा दिया कि अंग्रेज़ों की फौज में भर्ती होना हराम है। अंग्रेजो ने इस मामले को राजद्रोह के तरीके से लिया और अंग्रेजी हुकुमत ने मौलाना के खिलाफ मुकदमा दायर कर दिया। सुनवाई के दौरान अंग्रेज़ जज ने मौलाना से पूछा कि “क्या आपने फतवा दिया है कि अंग्रेज़ी फौज में भर्ती होना हराम है?” मौलाना ने बेबाकी से जवाब दिया, ‘हां फतवा दिया है और सुनो, यही फतवा इस अदालत में अभी दे रहा हूं और याद रखो आगे भी ज़िन्दगी भर यही फतवा देता रहूंगा।’ इस पर जज ने कहा, “मौलाना इसका अंजाम जानते हो? सख्त सज़ा होगी।”
जज की बातों का जवाब देते हुए मौलाना कहते हैं कि फतवा देना मेरा काम है और सज़ा देना तेरा काम, तू सज़ा दे। मौलाना की बातें सुनकर जज ने क्रोधित होकर कहा कि इसकी सज़ा फांसी है। इस पर मौलाना मुस्कुराते हुए अपनी झोली से एक कपड़ा निकाल कर मेज पर रखते हैं। जिस पर जज ने पूछा, “यह क्या है मौलाना?” मौलाना उनका जवाब देते हुए कहते हैं कि यह कफन का कपड़ा है। मैं देवबंद से कफन साथ में लेकर आया था। इस पर जज ने कहा, “कफन का कपड़ा तो यहां भी मिल जाता।” जज की इस बात पर मौलाना जवाब देते हुए कहते है कि जिन अंग्रेज़ की सारी उम्र मैंने मुखालफत की, उसका कफन पहनकर कब्र में जाना मेरे ज़मीर को गंवारा नहीं।
गौरतलब हो कि फतवे और इस घटना के असर से हज़ारों लोग फौज़ की नौकरी छोड़कर जंग-ए-आज़ादी में शामिल हो गए। मौलाना हुसैन अहमद मदनी पाकिस्तान की स्थापना के खिलाफ थे। उनका मानना था कि वर्तमान समय में राष्ट्रों को मातृभूमि (भौगोलिक आधार) के आधार पर बनाया गया है, न कि जातीयता और धर्म पर। इस मुद्दे पर कि किसी देश की पहचान भूमि या धर्म पर निर्भर थी। मौलाना हुसैन अहमद मदनी जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली के संस्थापक सदस्यों में से एक थे।
वह शेख-उल-हिन्द मौलाना महमूद हसन की अध्यक्षता में नींव समिति (जामिया मिलिया इस्लामिया की नींव के लिए) के सदस्य थे, 29 अक्टूबर 1929 को मिले। 1957 में उनकी मृत्यु तक वह दारुल उलूम देवबंद में शेख-उल-हदीस थे। भारत सरकार ने उन्हें 1954 में पद्म भूषण सम्मान से सम्माम्नित किया। उन्हें यह सम्मान शिक्षा के क्षेत्र में महती उपलब्धी के लिए सम्मानित किया गया था। जंग-ए-आज़ादी के इस परवाने को आज के नवजवान पीड़ी भूलती जा रही है। जंग-ए-आज़ादी का वो परवाना आज अपनी पहचान को मोहताज होता जा रहा है।