सरताज खान
विभिन्न क्षेत्रों में किसी को भी आसमान छू लेने जैसी सोहरत दिलाने में एक अहम भूमिका निभाने व समाज को सत्यता का आईना दिखाने वाले मीडिया जगत के साथ सरकार द्वारा जो नकारात्मक रवैया अपनाया जा रहा है, वह एक गंभीर चिंतन का विषय है। कैसी विडंबना है कि विधायक या सांसद को पेंशन व अनेक प्रकार के भत्ते देने के नाम पर करोड़ों रुपयों का सरकारी खजाना लूटाया जा रहा है। मगर अपनी जान जोखिम में डालकर समाज हित देश हित के लिए दिन-रात समर्पित रहने वाले पत्रकार को प्रतिमाह आर्थिक सुविधा या पेंशन देने के नाम पर सरकार के पास कोई प्रावधान नहीं है।
गौरतलब हो कि एक समय ऐसा था जब बड़े-बड़े अधिकारी जनप्रतिनिधि इत्यादि पत्रकारों से मिलने के लिए समय लेते थे, मगर आज इस क्षेत्र से जुड़े बहुत से लोग स्वयं ही उनके आगे पीछे घूमते हुए देखे जा सकते हैं, जिनकी ऐसी मानसिकता के चलते इस स्तंभ को अपेक्षाकृत सम्मान नहीं मिल पाता। आज पत्रकारों की एक संख्या ऐसी है, जो पत्रकार होने के नाम पर पुलिस प्रशासनिक अधिकारियों के पास डेरा डाले उनकी जी हजूरी व दलाली करने में लगे रहते हैं, जिनके लिए उनका ज़मीर कोई मायने नहीं रखता है। अफसोस की बात तो यह है कि भले ही यह लोग लेखनी के मामले में चाहे जितने कमजोर और अनभिज्ञ क्यों ना हो, बावजूद किसी ने किसी तरह अपने को कुशल पत्रकार साबित कर लेते हैं।
कितनी दुख भरी दास्तां है कि आखिर कहां गई कलम की वह ताकत जिसमे सत्यता, निर्भीकता जैसी कर्तव्यनिष्ठा पत्रकारों की खुद्दारी झलकती थी, मगर आज सम्मानित और पवित्र पेशे से जुड़े और अपने को पत्रकार कहने का दावा करने वाले ऐसे लोग बड़े आराम से देखने को मिल जाते हैं, जिन्हें पत्रकारिता से कहीं अधिक अधिकारियों की चापलूसी व दलाली आती है। सच तो यह है कि अधिकांश अधिकारियों को भी कुछ ऐसे ही पत्रकारों की जरूरत होती है, जो उनकी इस कमजोरी का लाभ उठाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। नतीजन ऐसी घटिया मानसिकता व कार्यप्रणाली वाले कथित पत्रकारों के कारण अन्य मीडिया जगत को अपेक्षाकृत सम्मान नहीं मिल पाता है।
यही कारण है कि सरकार भी मीडिया जगत के हितों को लेकर कभी संवेदनशील नजर नहीं आती है, जिसे किसी भी सूरत में उचित नहीं ठहराया जा सकता। हास्यप्रद बात तो यह है कि कुछ लोगों की घटिया कारगुजारी के चलते इस चौथे स्तंभ से जुड़े अन्य समस्त बुद्धिजीवी मीडिया जगत के हितों को वह सरकार दरकिनार करती आ रही है, जिसके द्वारा अपने एमएलए, एमपी को विभिन्न प्रकार के भत्ते देने के नाम पर जनता से लिया गया। करोड़ों रुपए का सरकारी धन बर्बाद किया जाता है। यही नहीं 5 साल के लिए राजनीति जीत कर आने पर उन्हे पेंशन मिलना भी तय है।
जबकि उनमें एक संख्या ऐसे प्रतिनिधियों की होती है जो अपने विभाग से संबंधित जानकारी या अन्य योग्यता भी शून्य के सामान रखते हैं, जिन्हे कोई 10-15 हजार रुपए प्रतिमाह की प्राइवेट नौकरी देना भी पसंद नहीं करेगा। मगर सरकार है कि सब कुछ जानते हुए भी मीडिया हित के मुद्दों की हमेशा अनदेखी करती आई है। इसलिए जरूरत है कि मीडिया जगत के तमाम संगठन एवं शुभचिंतक आगे आए और एकजुटता के साथ अपने अधिकारों के लिए आवाज बुलंद करें ताकि उसकी गूंज सरकार के मुखिया तक पहुंच सके।
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