तारिक़ खान
प्रयागराज। संविधान के अनुच्छेद 19(1)(A) में अभिव्यक्ति की आज़ादी का वर्णन है। इस अभिव्यक्ति की आज़ादी का बेशक कुछ लोग नाजायज़ फायदा उठाने लग गए। जिसके तहत सोशल मीडिया एक दुसरे समुदाय के खिलाफ भड़काऊ पोस्ट से लेकर आपत्तिजनक सामग्रियों और विवादित पोस्ट की बाढ़ सी आने लगी। इस अभिव्यक्ति की आज़ादी का दुरूपयोग रोकने के लिए आईटी एक्ट का निर्माण हुआ। मगर इसका दुरूपयोग भी बढने लगा। जिसके ऊपर कल सोमवार को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक एतिहासिक फैसला सुनाते हुवे आईटी एक्ट की धारा 66A पर आदेश जारी किया है।
अदालत वादी हर्ष कदम की एक याचिका पर सुनवाई कर रही थी। इस याचिका में याची ने आईटी अधिनियम, 2008 की धारा 66 ए के तहत यूपी पुलिस की चार्जशीट और विशेष मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, लखनऊ द्वारा जारी समन आदेश को चुनौती दी थी। याचिकाकर्ता के अधिवक्ता द्वारा यह तर्क दिया गया था कि आक्षेपित एफआईआर गलत है क्योंकि याचिकाकर्ता ने एफआईआर में कोई कृत्य नहीं किया, इसलिए, आईटी अधिनियम की धारा 66 A के तहत दायर आरोप पत्र स्पष्ट रूप से अनुचित है और अनावश्यक है। जस्टिस राजेश सिंह चौहान की खंडपीठ ने इस याचिका पर सुनवाई के दरमियान आदेश जारी करते हुवे प्रदेश की सभी जिला अदालतों और पुलिस महानिदेशक को निर्देश जारी किया है कि आईटी एक्ट 66A के तहत कोई मामला न दर्ज किया जाए और ऐसे केस की चार्जशीट पर अदालते संज्ञान न ले।
धारा 66A क्या है
अगर कोई व्यक्ति सोशल मीडिया साइट पर ‘आपत्तिजनक सामग्री’ (offensive content) पोस्ट करता है, तो आईटी एक्ट की धारा 66A उस व्यक्ति की गिरफ्तारी की इजाजत देती है। साधारण शब्दों में कहें तो अगर कोई यूजर सोशल मीडिया में आपत्तिजनक पोस्ट डालता है, तो पुलिस उसे गिरफ्तार कर सकती है। पुलिस को इसका अधिकार मिला हुआ है। यह धारा शुरू से विवादों में रही है क्योंकि पूर्व में कई घटनाएं सामने आई हैं जब पोस्ट करने वाले यूजर को गिरफ्तार किया गया है और जेल में डाला गया है। बाद में कोर्ट की दखलंदाजी के बाद उसकी रिहाई हो पाई है। सोशल नेटवर्किंग साइट पर पोस्ट की गई सामग्री अगर कानून की नजर में ‘आपत्तिजनक’ है तो संबंधित यूजर को 3 साल की जेल हो सकती है।
इसी वर्ष जुलाई में भी आई थी चर्चा में आईटी एक्ट की धारा 66A
आईटी एक्ट की धारा 66A हमेशा चर्चा में रही है। यह धारा सोशल मीडिया पोस्ट से जुड़ी है, इसलिए चर्चा में रहना लाजिमी है। सोशल मीडिया अभिव्यक्ति की आजादी का सबसे बड़ा मंच बन कर उभरे हैं। ऐसे में अगर आईटी एक्ट का उल्लंघन होता है, तो पोस्ट करने वाला व्यक्ति कानून के दायरे में रहता है। यह धारा भी इसी से जुड़ी कानूनी कार्रवाई से जुड़ी है। धारा 66A दूसरी बार सुर्खियों में इस वर्ष जुलाई में आई थी। देश की सर्वोच्च अदालत ने केंद्र से इस पर जवाब तलब किया था। सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी इस बात पर रही कि पूर्व के फैसलों के बावजूद अब भी इस धारा के तहत पुलिस केस दर्ज कर रही है।
इनफॉरमेशन टेक्नोलॉजी एक्ट की धारा 66A 2015 में खत्म की जा चुकी है। यह फैसला खुद सर्वोच्च न्यायालय का दिया है। इस वर्ष जुलाई में अदालत ने इस बाबत केंद्र से पूछा कि जब धारा है ही नहीं, तो किस बात की पुलिस कार्रवाई और किस बात का केस। याची की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाने वाले वकील के मुताबिक धारा 66A खत्म होने से पहले देश में इससे जुड़े 687 मामले दर्ज हुए थे। लेकिन यह धारा खत्म होने के बाद 1307 से ज्यादा मुकदमे दर्ज हुए हैं।
क्यों रही आईटी एक्ट की धारा 66A विवादों में
नागरिक अधिकारों से जुड़े संगठनों, एनजीओ और विपक्ष की शिकायत रही है कि सरकार लोगों की आवाज दबाने के लिए आईटी एक्ट की इस धारा का दुरुपयोग करती है। ऐसा देखा गया है कि कई प्रदेशों की पुलिस मशीनरी ने वैसे लोगों को गिरफ्तार किया है, जो सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर आलोचनात्मक टिप्पणियां करते हैं। राजनीतिक मुद्दों के अलावा कई बार टिप्पणी के केंद्र में राजनेता भी रहे हैं। इस कृत्य के खिलाफ पुलिस कार्रवाई करती है और तर्क देती है कि ऐसी टिप्पणियों से सामाजिक सौहार्द्र, शांति, समरसता आदि-आदि को नुकसान पहुंचता है।
पुलिस और राजनीतिक दलों के तर्क से इतर अदालत का विचार कुछ और है। अदालत का कहना है कि लोगों को अभिव्यक्ति की आजादी का संविधान के तहत अधिकार मिला हुआ है। अगर कोई व्यक्ति सोशल मीडिया में अपनी बात रखता है और उसके खिलाफ कार्रवाई होती है, तो यह ‘आजादी की जड़’ (root of liberty) पर हमला है। देश की सर्वोच्च अदालत अभिव्यक्ति की आजादी को लोकतंत्र का आधार स्तंभ मानती है। इस पर कुठाराघात का अर्थ है लोकतंत्र को चोट पहुंचाना।
क्या था सरकार का तर्क
साल 2015 के मार्च महीने में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 66A को खत्म कर दिया था। कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया था कि यह लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है, लिहाजा इसे ‘रूल बुक’ से फौरन बाहर करें। अंतिम फैसले से पहले सररकार की दलील थी कि समाज और जनमानस में इंटरनेट का प्रभाव बहुत व्यापक है। सरकार ने यह भी कहा था प्रिंट (अखबार, पत्रिका आदि) और टेलीविजन की तुलना में इंटरनेट पर पाबंदी का नियम और भी कड़ा होना चाहिए।
सरकार के मुताबिक, टीवी और प्रिंट जहां अपने संस्थागत स्वरूप में चलते हैं, वहीं इंटरनेट के साथ ऐसी कोई बात नहीं देखा जाती। इस हिसाब से इंटरनेट पर ज्यादा ‘चेक एंड बैलेंस’ की नीति अपनाई जानी चाहिए। सरकार का यह भी तर्क था कि सोशल मीडिया में आपत्तिजनक सामग्री डालने से समाज में कानून का राज डोल सकता है और इससे जनमानस में गुस्से का गुबार और हिंसक प्रवृत्ति जोर मार सकती है।
जुलाई 2021 में गृह मंत्रालय राज्यों और केद्र शासित प्रदेशो को जारी कर चूका है पत्र
पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) द्वारा एक याचिका दायर की गई, जिसमें बताया गया था कि इस धारा के निरस्त होने के सात साल बाद भी मार्च 2021 तक 11 राज्यों की जिला अदालतों ने कुल 745 मामले अभी भी लम्बित है। इन मामलो में आरोपियों पर धारा 66A के तहत मुकदमा चलाया जा रहा है। इस याचिका पर गृह मंत्रालय ने सभी राज्यों और केद्र शासित प्रदेशो को नोटिस जारी करते हुवे अपील किया था कि अगर राज्यों और केद्र शासित प्रदेशो में आईटी एक्ट की धारा 66A के तहत कोई मामला गरज किया गया है तो ऐसे मामलो को तुरंत वापस लिया जाना चाहिए। यह पत्र गृह मंत्रालय ने 15 जुलाई 2021 को जारी किया था।
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