तारिक़ आज़मी की मोरबतियाँ : मियाँ, मौसिकी के लफ्ज़ सरहदों और मजह्बो की बन्दिशो में नही रहते, तभी तो फ़ना और जान के अल्फाज़ हमारे कानो में शक्कर घोल रहे
तारिक़ आज़मी
हालात दिन-ब-दिन बिगड़ते ही जा रहे है। मज़हब के नाम पर तो कभी सरहदों के नाम पर हमारे सोच को तकसीम करने वालो की कमी नही बल्कि मुल्क में कुछ ज्यादा ही दिखाई दे रहे है। आपको अगर इसका नमूना देखना हो तो आप सोशल नेटवर्किंग साईट का एक बार सफ़र कुछ लम्हों का करके देख ले। जिनकी खुद की सोच और ज़मीर मरम्मत मांग रहा होगा वो आपको “ज्ञान” बघारते दिखाई दे जायेगे। दाढ़ी पर भी तंज़ कसने वाली सोच और उनके ज़मीर को देखे, जो मरम्मत की दरकार महसूस करता है। जबकि उनमें कुछ ऐसे है जिनके घर की दाल रोटी इन्ही दाढ़ी वालो के टुकडो पर पल रही है। जावेद अख्तर साहब की एक ग़ज़ल एक दिन मेरी नज़र से गुज़री थी। ग़ज़ल के लफ्ज़ पढ़े हुवे महीनो से ऊपर गुज़र चूका है। मगर अलफ़ाज़ आज भी ज़ेहन में अपनी जगह बना चुके है।
जावेद अख्तर किसी तार्रुफ़ के मोहताज नही है। बेशक अपने मुल्क के बेहतरीन शायरों में से एक है जावेद अख्तर साहब। उनकी उस ग़ज़ल के मिसरे को गौर करे तो उन्होंने कहा था कि “बड़ी रौनक थी इस घर में, ये घर ऐसा नहीं था। गिले शिकवे भी रहते थे, मगर ऐसा नही था। जहा कुछ शिरी बाते थी, वही कुछ तंज़ बाते थी। मगर उन तल्ख़ बातो का असर ऐसा नही था।” बेशक लफ्ज़ समझदार को इशारा करने को काफी है। अलफ़ाज़ आजकल के हालात पर बढ़िया तंजिया लहजे में है। अब गर आप इन लफ्जों को कही कहते है तो बात का लोग अर्थ का अनर्थ बनाने वाले भी सोशल मीडिया के हर एक नुक्कड़ पर दो चार “काबिल” मिल जायेगे।
आप समझे, मौसिकी अगर सरहदों और मज्हबो की मोहताजी झेलती तो जियाउल हल के तानाशाही पर फैज़ अहमद फैज़ साहब ने पकिस्तान में कहा था कि “लाजिम है कि हम भी देखेगे, हम देखेगे।” इसी ग़ज़ल के एक मिसरे को देखे तो फैज़ साहब कहते है कि “जब ज़ुल्मो सितम के कोह-ए-गरा, रुई की तरह उड जायेगे, हम महकूमो के पाँव तले ये धरती धडधड धड्केगी। और अहल-ए-हकम के सर ऊपर ये बिजली कडकड चमकेगी।” जियाउल हक की तानाशाही तख़्त फैज़ अहमद फैज़ साहब की इस ग़ज़ल से हिल पड़ा था। पकिस्तान की क्रांति के लिए लिखे ये लफ्ज़ हम भी अक्सर गुनगुना लेते है। फैज़ अहमद फैज़ भले परदेसी सरज़मीन पर गुज़र गये। मगर लम्बे अरसे से फैज़ अहमद फैज़ आज भी हमारे दिलो में जिंदा है।
अब आप दुष्यंत साहब को ही ले ले, उन्होंने अर्ज़ किया था कि “अपने रहनुमाओं की अदा पर फ़िदा है दुनिया, इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारो।” इस शेर का इस्तेमाल अपने इलेक्शन में पकिस्तान के वर्त्तमान प्रधान मंत्री इमरान खान ने किया था और उनको चुनाव में काफी फायदा मिया था। अब आप सोचे दुष्यंत के ये लफ्ज़ सरहद पार कर पाकिस्तान तक गया। ये मौसिकी का रंग है। बहुत दूर तक जाता है। वही हुआ भी। वहा की जनता ने अपने रहनुमाई को बदल लिया। रहनुमा बदला मगर मुस्तकबिल नही बदला।
आप देखे “अक्सर आपने एक भजन सुना होगा “मन तड़प हरी दर्शन को आज”। जानते है इस भजन के लेखक का नाम क्या है ? इस भजन को शकील बदायूंनी ने लिखा था। उन्होंने सिर्फ एक यही भजन नही बल्कि “मोहे पनघट पर नंदलाल” और “ओ दुनिया के रखवाले” जैसे भजन को लिखा है। अब आप साहिर लुधयानवी यानी अब्दुल हई को ही ले ले। उन्होंने “अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम, सबको सम्मति दे भगवान” जैसे भजन लिखे जो आज भी अमर है। फिर आखिर कडवाहट कैसे नज़र आती है। यहाँ तो मज़हब की सरहद नही दिखाई देती है। फिर कडवाहट कैसी घोली जाती है।
सरहदों की मोह्ताज्गी से दूर मौसकी को यही तक न देखे। आज हम “मेरे रश्क-ए-कमर” पर खुद ही नही सबके साथ कमर हिला लेते है। वही दूसरा “आँख उट्ठी मुहब्बत ने अंगडाई ली” पर भी जमकर झूमते है। अगर मौसिकी के लफ्ज़ सरहदों के मोहताज होते तो ये फ़ना बुलंदशहरी के साथ पकिस्तान के कराची स्थित एक छोटे से टाउन में फ़ना के साथ दफन हो चुके होते। मगर नही। 1982 के आसपास लिखे गए इस कलाम को सबसे पहले सूफी गायक नुसरत फ़तेह अली खान ने 1988 में पढ़ा था। जिसके बाद 1989 में फ़ना का इन्तेकाल हो गया। फ़ना की इतनी पुरानी ग़ज़ल अब भी हमारे कानो में शकर घोलती है।
जान एलिया, बेशक इण्डिया पाकिस्तान बटवारे के मुखालिफ शख्सियतो में एक थे। हालात के दरोपेश वह 1954 के आसपास जो पकिस्तान गए तो वही के हो कर रह गए। अपने आखरी मुशायरे तक में अपने मादर-ए-वतन को वह याद करते रहे। जॉन एलिया अपने हर एक मुशयारे में अमरोहा का नाम ज़रूर लेते। ये बात ज़ाहिर करती है कि खुद के पैदाइश की जगह को जान एलिया नही भूले थे। आज जान को गुज़रे हुवे दो दशक से ऊपर हो चूका है। उनके अज़ीज़ दोस्त सलीम जाफरी भी अमरोहा के थे। वह भी पकिस्तान बटवारे के बाद गये थे। ये अमरोहा के खून का रिश्ता था कि सलीम जाफरी का इन्तेकाल होने के बाद जान एलिया ने अपने आखरी मुशायरे में कहा था कि बिना सलीम के जान ही नही है। आप सब मुझको आखरी बार देख रहे है और इसके कुछ दिनों बाद जान एलिया इस दुनिया को रुखसत कह गये थे।
अब अगर जान के लफ्ज़ सरहदों की बंदिशों में रहते तो आज हम उनके कलाम “बेदिली, क्या युही दिन गुज़र जायेगे, सिर्फ जिंदा रहे हम तो मर जायेगे।” आज मुहब्बत की कश्ती लेकर गुज़र रहे हमारे नवजवान साथी जान के कलाम “मैं भी बहुत अजीब हु इतना, अजीब हु कि बस, खुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं” जैसे अपने व्हाट्सएप स्टेटस लगा कर अपने इश्क को अपनी मुहब्बत का इज़हार कर देते है। “अजब हाल है कि अब उसको याद करना भी बेवफाई है।” और “अब मेरी कोई ज़िन्दगी ही नही, अब भी तुम मेरी ज़िन्दगी हो क्या” जैसे जान के शेर आज भी युवाओं को अपने तरफ खीचते है। ये लफ्ज़ सरहद या मज़हब के मोहताज नही रहे। वरना करांची के एक छोटे से टाउन में न जाने कब का दफन ये भी हो चुके होते।
जान मेरे भी पसंदीदा शायरों में एक है। उनके कलाम “उसकी गली से उठ कर मै, आन पड़ा था अपने घर, एक गली की बात थी, और गली गली गई” जैसे कलाम और “बिन तुम्हारे फिर कभी नही आई, क्या मिरी नींद भी तुम्हारी थी” जैसे कलाम ही तो थे जो मशहूर शायर मजरुह सुल्तानपुरी ने जान एलिया के बारे में कहा था कि “वो कमबख्त शायरों का शायर है, और जान मंच पर अपने दर्द बयां करता है, लोग उसको शायरी समझते है।” इसके बाद भी जान की मौसिकी में अहमियत को समझाना पड़ेगा, मुझको तो कम से कम नही लगता।
ख्याल कीजियेगा, लफ्ज़ सरहदों के मोहताज नही होते है। लफ्ज़ ही तो अमर होते है। वरना मर तो जान एलिया भी गए और राहत इन्दौरी भी। फना बुलंदशहरी भी नही रहे और साहिर लुधयानवी भी और न ही फैज़ अहमद फैज़। सभी इस दुनिया से रुखसत कह चुके है। फिर भी उनके अलफ़ाज़ अमर है। मिर्ज़ा ग़ालिब को गुज़रे जमान हो गया और आप आज भी कहते है कि “ये मत पूछ कि क्या हाल है मिरा तिरे आगे, तू ये देख के क्या रंग है तिरा मिरे आगे।” राहत इन्दौरी को भी गुज़रे हुवे अब अरसा कहा जा सकता है। मगर आज भी हम भले हंसी में ही सही कह देते है “बुलाती है, मगर जाने का नाय, ये दुनिया है उधर जाने का नाय।” अब तो दिक्कत ये है कि अल्लाह हाफिज कहू तो मुस्लिम खुश, नमस्कार कहू तो हिन्दू खुश। कोई ऐसा लफ्ज़ अब आप ही बता दे कि उसके कहने से इंसान खुश हो जाए। नही खुश करना है हिन्दू को या फिर मुसलमान को। मुझको ख्वाहिश है कि इंसान को खुश किया जा सके।