तारिक़ आज़मी
होली और शब-ए-बरात गुज़र चुकी है। हर त्यौहार के तरह इस बार भी त्यौहार के दुसरे दिन कुछ खोया खोया सा महसूस हो रहा है। कुछ कमी सी या फिर कहे कुछ था जो पीछे छुट गया जैसा अहसास पहले जैसा ही है। सुबह से ही सन्नाटो ने हर एक इलाके को घेर रखा है। बेशक होली और शब-ए-बरात एक ही दिन पड़ने से सांझी वरासत की तलाश करने वाले बखूबी तलाश भी रहे थे। गंगा जमुनी तहजीब के मरकज़ हमारे शहर में भी ऐसे लोगो की कमी बेशक नही है जो इसको भी मुहब्बत की नज़र से देखते है। मगर इस हकीकत से भी मुह नही मोड़ा जा सकता है कि कुछ ऐसे भी लोग है जो ऐसे मुहब्बत के मौको पर भी अपनी नफरतो की सौदागरी करना चाहते है।
बहरहाल, हम बैठे थे। चाय खत्म हो गई थी और शाम को शब-ए-बारात के मौके पर पकवान क्या क्या होगा, हलवा कौन कौन सा बनेगा इसके ऊपर चर्चाओं का दौर चल रहा था। घर के पास चौराहे पर होली का हुडदंग भी जारी था, कभी हम भी इसका हिस्सा हुआ करते थे, मगर अब मोहल्ले के वो भी जवाब हो चुके थे जो कभी बच्चे हुआ करते थे। तो हम जैसे लोग थोडा किनारे रहते थे। कही न कही से हम सेकेण्ड जेनरेशन में आ चुके थे और हमारी नेक्स्ट जेनरेशन हमारी जगह लेने को बेताब है। इसका अहसास होने पर खुद उनको बागडोर सौप देना अक्लमंदी होती है जिसका परिचय हम सभी मोहल्ले के दोस्त 7-8 साल पहले ही दे चुके थे।
इसी दरमियान हमारे घर के सामने वाली सड़क से कुछ हो हल्ले की आवाज़े आई। होली का दिन है और क्षेत्र के उत्साही युवक और बच्चे इधर से होकर गुज़रते है। वो आपस में और मोहल्ले में हंसी मज़ाक सबसे करते है ये आम तौर की बात है। मगर किसी तरीके की बदमजगी कभी इस इलाके में नही हुई है। हल्ला अचानक नारे जैसी आवाजो में तब्दील हुआ तो हमने खिड़की से झांक कर देखा। काका भी हमारे साथ खड़े थे। बाहर कुछ बच्चे और नवयुवक थे। होली की मस्ती में चूर हमेशा की तरह। कोई अलग बात थी तो वह ये थी कि ये टोली हमारे मोहल्ले के आसपास की नही थी। नारे काफी आपत्तिजनक लग रहे थे। समझ नहीं आ रहा था कि आखिर ऐसे नारों की त्यौहार में क्या ज़रूरत है ?
इसका असर हमारे जनजीवन में कोई ख़ास नही पड़ता है, मगर एक बात तो समझ में आती है कि मुहब्बत की हमारी बस्ती में नफरत का सामान किसी का तो है। बहरहाल, जुमे का वक्त हो चला था। सभी जुमे की नमाज़ अदा करके आये तो कब्रस्तान की साफ़ सफाई ध्यान आई। काका बड़े ही उदास दिखाई दे रहे थे। अमूमन काका और उदासी एक दुसरे की दुश्मन हुआ करती है। हमसे आकर बोले आओ कब्रस्तान देख आया जाए थोडा साफ़ सफाई का भी देख लिया जाए। काका इस वक्त पूरी तरीके से मुस्तैद समझ आ रहे थे और उन्हें हाथ में फरसा और करनी आदि भी थी।
मैं समझ सकता था कि आज मजदूर मिलना मुश्किल है। बाले गुरु हर साल साथ रहते थे मगर आज उनका भी त्यौहार है तो वह भी व्यस्त होंगे। हम बाइक से काका के साथ कब्रस्तान पहुचे तो देखा बाले गुरु बैठे इंतज़ार कर रहे है। काका को देखते के साथ ही बोले कि “भईया बहुत देरी कर देहला ई दाई। हम कब्बे से जोहत हई।” काका ने कहा अरे बाले हमने सोचा आज तुम त्यौहार में व्यस्त होगे तो फोन नही किया। तपाक से बाले गुरु बोले, “अरे भईया काम पहले बा।” ये कहकर बड़े ही तन्मयता से बाले गुरु अपने काम में जुट गए। बाले गुरु हमारे घर पर हर एक तोड़ फोड़ और मरम्मत के लिए पेटेंट हासिल किये हुवे उस्ताद है। वैसे तो बाले विश्वकर्मा है मगर लोग उन्हें प्यार से गुरु कहते है। गरीबी भले उम्र भर उनका पीछा नही छोड़ी मगर खुद्दारी के साथ रहते है। काम के जितने मेहनताने होते है बस उतना ही लेते है।
काका ने बाले गुरु को आवाज़ देकर कहा कि “बाले ई वाली कब्र (मेरी ताई की कब्र को दिखाते हुवे) पर ये पेंट कर दो, पिछले वर्ष नही हुआ था और एक से पूछा था तो काफी पैसे बता रहा था, इसके 1500 दूंगा मैं।” मैंने अचरज भरी नज़र से काका को देखा। बाले की आवाज़ मेरे कानो में पड़ी कि “अरे भईया कब्बो हम पईसा के लिए कहली तोहका, जऊन होवेला ओहसे दू पईसा आप जादे देवेला।” कहकर बाले गुरु काम में जुटे थे। वैसे काम कोई खास था नही। थोड़ी झाड झंखाड़ काटना था। मैं अचरज से काका को देख सिर्फ इसलिए रहा था कि काका सिर्फ एक 2 फिट ऊँची और 5 फिट लम्बी दिवार पर पेंट करवाने की मजदूरी कुछ ज्यादा ही दे रहे थे। मैंने उस समय खामोश रहना ही बेहतर समझा। एक घंटे के लगभग समय में बाले ने काम खत्म कर लिया। इस दरमियान मामूर के हिसाब से चन्दन यादव जिसकी चाय की दूकान कब्रस्तान के आगे ही है ने हमको चाय लाकर पिलाया।
काम खत्म होने के बाद काका ने बाले गुरु को 2 हज़ार रुपया दिया और साथ में मुट्ठी बाँध के कुछ देते हुवे कहा कि ये त्योहारी मेरे तरफ से बच्चो को दे देना। बाले गुरु अपना हाथ अपने गमछे से पोछते हुवे बोले “भईया संझा के लरकन जातन आशीर्वाद लेवे तब्बे दे देहले होता।” कहते हुवे बाले ने पैसे अपने जेब के हवाले किया। हम वहा से बाइक से थोडा आगे बढे तो मैंने काका से पूछ ही लिया कि काका इतना ज्यादा पैसे क्यों दिया? काका ने कहा “ए बाबु, बाले खुद्दार इंसान है। किसी से एक रुपया की सहायता लेता नही है। आज उसका त्यौहार है। उसको ऐसे देता पैसे तो उसकी खुद्दारी को ठेस पहुचती तो बहाना ऐसे ही सही। काका का जवाब सुनकर मैंने उनको बाइक चलाते हुवे पलट कर देखा। काका कही शुन्य में खोये हुवे थे। आज मुझे काका पर फक्र महसूस हो रहा था।
बाइक घर के पास वाले चौराहे पर पहुच चुकी थी। जहा कुछ नवयुवक बड़ा बड़ा डीजे लगाकर अजीब गाने बजा रहे थे। पास खडी पुलिस उनके डीजे को बंद करवा रही थी। डीजे बजाने की जिद्द पकडे युवक आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग कर रहे थे। इनमे से अधिकतर हमारे मोहल्ले के नही थे। दो चार ही इलाके के थे। मगर उनके शब्द अजीब थे। चौराहे से ही मुझको टर्न लेना था तो मैं थोडा पहले खड़े होकर भीड़ हटने का इंतज़ार कर रहा था। लगभग 15 मिनट की झक के बाद इलाके के सम्भ्रान्त लोग आकर लडको को समझाते है और पुलिस डीजे बंद करवा कर वही ड्यूटी पर बैठ जाती है। मैं घर आ चूका था। खुद की कुर्सी पर बैठ कर सोच रहा था कि वो जो अभी कुछ देर पहले तक हमारे साथ थे बाले गुरु, आज त्यौहार तो उनका भी था। वह जो चन्दन चाय लाकर दिया था आज त्यौहार उसका भी था। मगर इंसानियत के साथ वह मुहब्बत बरसा रहे थे। फिर ये कौन थे जो त्यौहार पर आपत्तिजनक नारे लगा रहे थे।
भाई चुनावो के समय कुछ मतों को आकर्षित करने के लिए ऐसे नारे लगे तो समझ आता है। त्यौहार पर ऐसे नारों का क्या काम है? आखिर हमारी मुहब्बत की बस्ती में ये नफरत का सामान किसका है? मुझको नही पता कि ये नासमझ लड़के थे या फिर अति उत्साहित थे। मगर उनके बात करने का तरीका और लडखडाते कदम बता रहे थे कि अंगूर की बेटी लबो से होकर गले के नीचे उतर चुकी थी। लडको की उम्र किसी की भी 20-22 से ज्यादा नही थी। फिर कौन सी ये मस्ती है जो नशे से पूरी होती है। आखिर इस उम्र में त्यौहार की मस्ती नशे से क्यों पूरी होती है। रंगों में कुछ बात होती है। सुना था मैंने भी। फिर आखिर ये कौन सी नई बात है जो रंगों से होकर नशे के तरफ बढ़ चुकी थी।
आज होली की बारात निकली थी। उसके स्वागत के लिए बनने वाले स्टेज पर आज कोई बुज़ुर्ग मुझको नही दिखाई दिया। आखिर कौन सी ये जेनरेशन है जो बुजुर्गो को पीछे छोड़ कर खुद आगे डगमगाते कदमो के साथ चल रही है। समझ नही आ रहा है कि मुहब्बत की मेरी बस्ती में नफरतो का ये सामान किसका है, आखिर नई सड़क पर ये पुराना मकान किसका है। हमारे आज की “मोरबतियाँ” का मकसद सिर्फ समाज में दुरी बनाती हुई मुहब्बत को वापस उसके मुकाम तक लाना है। बुजुर्गो की अहमियत जो आज की जेनरेशन कही भूल जा रही है, उसको बताना है। बाले गुरु और चन्दन आपको अपने आसपास ही मिलेंगे। शायद हर एक नुक्कड़ पर मिल जाए। मगर वो झुण्ड भी तो दिखाई दे जाता है जो नारे लगा रहा था। हमारे समाज को मुहब्बत की ज़रूरत है।
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