तारिक़ आज़मी
सीतापुर जनपद का ख़ैराबादइस समय राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का केंद्र बना हुआ है। एक सुकून की ज़िन्दगी बसर करने वाले ख़ैराबादमें विगत 2 अप्रैल को नफरत का ज़हर बोया जा रहा था। ख़ैराबादस्थित शीशे वाली मस्जिद के सामने खड़े होकर महंत बजरंग मुनि ने मुस्लिम महिलाओं से बलात्कार की धमकी दिया था। इस घटना का वीडियो जमकर सोशल मीडिया पर वायरल हुआ और हर तरफ से इसकी निन्दा होना शुरू हो गई थी। राष्ट्रीय महिला आयोग ने मामले का संज्ञान लिया था और मामले में डीजीपी को पत्र लिख कर महंत के गिरफ़्तारी की मांग किया था।
यहाँ से ख़ैराबाद एक बार फिर ख़ामोशी से ज़िन्दगी बसर करते हुवे चर्चाओं में आ गया था। इस बार चर्चा मुल्क परस्ती की नही बल्कि एक नफरती बयान को लेकर थी। बेशक हर तरफ ख़ैराबादकी बाते हो रही थी। कुछ तुच्छ मानसिकता वाले सोशल मीडिया पर अपने अधकचरे ज्ञान की उल्टियां करते दिखाई दे रहे थे तो कुछ मुद्दे को उठाने वाले ऑल्ट न्यूज़ के जुबैर को ही कटघरे में खड़ा कर रहे थे। इन सबके बीच पुलिस ने बुद्धवार की रात महंत बजरंग मुनि को गिरफ्तार कर अदालत में रात ही पेश किया जहा से अदालत ने उसे न्यायिक हिरासत में जेल भेज दिया। इस गिरफ़्तारी के बाद आज कई महंत ने जिलाधिकारी से मिलकर महंत बजरंग मुनि के रिहाई की मांग किया।
कई स्ट्रीम मीडिया खुद को कहने वालो ने खबर में इस बात को जगह दिया कि ख़ैराबादमें ख़ामोशी पसरी हुई है। ख़ैराबादके चप्पे-चप्पे पर पुलिस बल तैनात है। इस तरीके से ख़ैराबादएक बार फिर चर्चा के केंद्र में है। मगर इस बार किसी मुल्क परस्ती के शख्सियत को लेकर नही बल्कि एक नफरत के अल्फाजो को लेकर है। शायद लोग भूल रहे है कि ख़ैराबादबजरंग मुनि के कारण नही जाना जायेगा बल्कि मौलाना फज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी की समाज में फैलाई मुहब्बत के लिए जाना जायेगा। मौलाना फज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी के नाम से ही ख़ैराबादहमेशा जाना जायेगा।
मौलाना फज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी एक प्रसिद्ध दार्शनिक, कवि और धार्मिक विद्वान थे। सीतापुर जिले के ख़ैराबाद शहर में पैदा हुए फज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी के पिता दिल्ली सिविल कोर्ट में उप न्यायाधीश थे, जो बाद में अदालत के जज (मुफ़्ती) भी हुए। मौलाना फज़ल-ए-हक़ ने आपने पिता और शाह अब्दुल अज़ीज़ से इस्लाम की शुरुआती तालीम ली, वहीं बाकी की शिक्षा अब्दुल अज़ीज़ के भाई से भी हासिल की। जिसके बाद वह ख़ैराबादमें ही अध्यापन का कार्य करने लगे। कुछ स्थानीय जानकारों का कहना है कि इसी शीशे वाली मस्जिद में मौलाना फज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी ने इमामत भी किया था। कुछ वक्त गुजरने के बाद मौलाना फज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी की नियुक्ति दिल्ली के सिविल कोर्ट में बतौर अधिकारी हो गई। लेकिन एक समय ऐसा भी आया, जब इन्होंने अंग्रेजों की गुलामी नहीं करने का मन बना लिया और फिर 1831 में सरकारी नौकरी को छोड़ दी।
नौकरी छोड़ने के बाद वह अपना अधिकतर समय आलिमो और विभिन्न धर्मो के विद्वानों के साथ गुज़ारने लगे। उसी दौरान इनकी मुलाकात उस समय के मशहूर शायर मिर्ज़ा ग़ालिब, मुफ़्ती सदरुद्दीन से हुई। इन्हीं के साथ ये मुग़ल बादशाह शाह अब्दुल जफ़र के दरबार में जाया करते थे, जिससे इनकी जान पहचान उनसे हो गई। इसके बाद इन्होंने बहादुर शाह जफ़र की अदालत में सदस्य के तौर पर अपनी सेवाएं दीं। हालांकि कुछ समय बाद इन्होंने बादशाह की नौकरी छोड़कर झज्जर के नवाब की सेवा करने का फैसला कर लिया। अगर तवारीखी किताबो के अन्दर देखे तो मिलता है कि अल्लामा फज़ल-ए-हक़ के दूर होने से बहादुर शाह जफ़र को गहरा दुःख पहुंचा था, जिसका इज़हार उन्होंने मौलाना फज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी से किया भी था। हालांकि इसके कुछ ही समय बाद झज्जर के नवाब की मौत हो गई, और फिर ये सहारनपुर, रामपुर और नवाब वाजिद अली की सेवाओं में लग गए। 1856 में ब्रिटिश सरकार के अवैध कब्जे के बाद मौलाना ख़ैराबादी अलवर के राजा विनय कुमार के निमंत्रण पर अलवर चले गए और वहां लगभग डेढ़ साल तक नौकरी की।
मौलाना का दिल रो पड़ता था जब वह ब्रिटिश हुकुमत के ज़ुल्मो सितम अपने मुल्क के भाईयो पर देखते। दिन-ब-दिन भारतीयों पर जुल्म और लूट-मार जैसे हरकते बढती जा रही थी। हद तो तब हो गई जब अंग्रेजों ने भारतीयों को धर्म का सहारा लेकर एक दूसरे से लड़ाना चाहा, हालांकि उनकी ये चाल कामयाब न हो सकी। इसके बाद 1857 की क्रांति छिड़ गई, जो हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक बनी। इसके बाद क्रांतिकारियों ने इस विद्रोह को सफल बनाने के लिए दिल्ली में बैठे बहादुर शाह जफ़र से संपर्क किया।
भारत के लिए लड़ाई के एक आह्वान को उन्होंने सर आखों पर रखते हुए क्रांतिकारियों को मदद का आश्वासन दिया और अल्लामा फज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी को वापस दिल्ली आने का निमंत्रण भेजा। अल्लामा ने बहादुर शाह जफ़र के निमंत्रण पर राजा विनय कुमार से बात की और अलवर से दिल्ली के लिए रवाना हो गए। जिसके बाद 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी जाग उठी और आग भड़क उठी। बहादुर शाह जफ़र और फज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी के बीच की हुई मुलाक़ात कई अन्य क्रांतिकारियों सहित जनरल बख्त भी शामिल हुवे। ये वह वक्त था जब मौलाना फज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी के फतवों पर मुस्लिम मज़हब के लोग सडको पर उतर सकते थे। वही दूसरी तरफ देवबंद को अंग्रेजो ने अपने तरफ कर रखा था। जिसके बाद मौलाना फज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी पर सभी क्रांतिकारियों की निगाहें टिकी थी।
1857 की क्रांति के दस्तावेजों को अगर देखे तो ऐसा माना जाता है कि जनरल बख्त खान ने एक विशेष रणनीति बनाई और मौलाना से जिहाद का फ़तवा जारी करने की अपील किया। जिसके बाद मौलाना फज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी ने अंग्रेजो के खिलाफ जिहाद का फ़तवा जारी कर दिया। अंगेजी हुकूमत की नेह की ईंट हिल गई थी इस जिहाद के फतवे से। मौलाना फज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी ने जब जिहाद का फतवा जारी किया तो मुल्क के काफी आलिमो ने मौलाना फज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी के फतवे पर “लब्बैक” कहते हुवे दस्तखत करके फतवा आगे ही बढाना शुरू कर दिया। इसके बाद मौलाना फज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी अंग्रेजो के दुश्मन नम्बर-1 बन गये।
फिर आता है वह जुमा जिसने अंग्रेजी हुकूमत की नेह की ईंट हिला कर रख दिया। मुल्क के किसी भी आलिम की हिम्मत गवारा नही कर रही थी कि जामा मस्जिद में जुमे का कुत्बा खिताब करे। इसके लिए आलिमो ने जुझारू और जंगजू मौलाना फज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी को चुना। जुमे की नमाज़ में कुत्बा खिताब करते हुवे मौलाना ने अंग्रेजो के खिलाफ जिहाद का फ़तवा जारी करते हुवे जंग का एलान कर दिया।
मौलाना फज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी के इस फतवे ने 1857 के क्रांति की मशाल जला दिया। ऐसा माना जाता है कि अल्लामा के इस फतवे को उस वक़्त के कुछ अख़बारों ने प्रकाशित भी किया था, जिसने व्यापक तौर पर मुसलमानों को जंग-ए-आज़ादी में कूदने के लिए उत्साहित भी किया। हालांकि 1857 की क्रांति में हर धर्म के मानने वाले क्रांतिवीरों ने भाग लिया था और कहा जाता है कि स्वतंत्रता सेनानियों की वीरता को देखते हुए अंग्रेजों के नीचे से जमीन खिसक गई थी। मगर किन्ही कारणों से 1857 की क्रांति सफल नहीं हो सकी और ब्रिटिश हुकूमत ने दिल्ली पर दोबारा कब्ज़ा कर लिया।
हालांकि उस वक़्त अल्लामा का परिवार और रिश्तेदार भी दिल्ली में ही थे और फतवे के बाद से ही अंग्रेजों ने उनकी तलाश शुरू कर दी थी, जबकि वो किसी तरह से बचते बचाते दिल्ली से अवध पहुंच गए और फिर ख़ैराबादपहुचे। इस दरमियान ख़ैराबादसे मौलाना को अंग्रेजो ने गिरफ्तार कर लिया। वहां से इनको लखनऊ ले जाया गया, जहां इनके ऊपर मुक़दमा चलाया गया। अल्लामा पर जिहाद का फतवा देने व 1857 से 1858 के बीच क्रांतिकारी नेता होने और दिल्ली, अवध और अन्य क्षेत्रों के लोगों को विद्रोह के लिए उकसाने व हत्या के कई संगीन आरोप लगे। मौलाना पर खुली अदालत में मुक़दमा चलाया गया था और इस मुकद्दमे में उन्होंने अपना कोई भी वकील नियुक्त नहीं किया था, बल्कि खुद अपने मुक़दमे पर बहस किया था। इस मुक़दमे में जज कोई और नही खुद मौलाना फज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी के शागिर्द थे। वह मौलाना से हमदर्दी भी रखते थे और उनको रिहा करना चाहते थे। अंग्रेजो ने जिनको मौलाना के मुखालिफ गवाह बनाया था सभी मौलाना की मुहब्बत और मुल्क के लिए अपने फ़र्ज़ को याद रखते हुवे मौलाना को पहचानने से इनकार करते रहे।
तवारीख कहती है कि मौलाना फज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी के पास मौका था खुद को इस मुक़दमे से बाइज्ज़त बरी होने का मौका था। मगर मौलाना ने खुद अदालत में खड़े होकर फक्र से सीना चौड़ा करके कहा कि “हां बेशक वह फतवा सही है, वह मेरा ही लिखा हुआ था और आज भी मैं इस फतवे पर कायम हूं।” पूरी अदालत में बैठा हर एक शख्स मौलाना से इल्तेजा करता रहा कि वह अपना बयान वापस ले ले और थोडा सा झूठ बोल दे ताकि मौलाना की सरपरस्ती उनके साथ कायम रहे। मगर मुल्क के इश्क में मुब्तेला मौलाना ने खुद की ज़िन्दगी से बेपरवाह होते हुवे बार-बार अदालत में फतवे पर कायम रहने की बात कही और अंग्रेजो के खिलाफ ता-उम्र जंग जारी रखने की बात कही। आखिर जज को मजबूरन मौलाना को काले पानी की सज़ा मुक़र्रर करना पड़ा।
अल्लामा फज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी ने जेल के अंदर अपने साथियों पर किस तरह से जुल्म ढाए गए और उन्हें किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा, ये सब अपनी किताब ‘अस्सौरतुल हिंदिया’ में किया है। जो मुफ़्ती इनायत उल्लाह ककारेवी के माध्यम से उनके बेटे मौलाना अब्दुल हक के पास पहुंची थी। ऐसा माना जाता है कि कोयले से लिखे कई कागजों को जोड़कर इस किताब को बनाया गया था। जिसका बाद में “बागी हिंदुस्तान” के नाम से अनुवाद भी किया गया। हालांकि, अल्लामा को छुड़वाने के लिए उनके बेटे शमशुल हक ने कोशिश भी की और रिहाई का परवाना लेकर जब वह अंडमान पहुंचे, तभी उन्हें एक जनाज़े की भीड़ दिखाई पड़ी। पूछने पर पता चला कि यह जनाज़ा तो उनके वालिद अल्लामा फज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी का है। 1857 की क्रांति को बड़ी ही निडरता और साहस के साथ लड़ने वाले मौलाना फज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी 20 अगस्त 1861 को इस दुनिया से रुखसत कह गए और शहादत का दर्जा पाया। आज भी अंडमान में उनके आस्तने पर लगने वाला उर्स का मेला भगत सिंह के इस लफ्ज़ को कायम रखे है कि “शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मिटने वालो का यही बाकी निशा होगा।”
ब्रिटिश अदालतों ने अपने फैसले में उन्हें “असाधारण बुद्धिमत्ता और कुशाग्रता के रूप में माना, जिन्हें भारत में ब्रिटिश उपस्थिति के लिए सबसे खतरनाक खतरा माना जाना चाहिए, और इसलिए उन्हें भारतीय मुख्य भूमि से बेदखल किया जाना चाहिए। उनके खिलाफ निम्नलिखित आरोप लगाए गए थे।
8 अक्टूबर 1859 को स्टीम फ्रिगेट “फायर क्वीन” पर सवार होकर अंडमान द्वीप पहुंचे और अपनी मृत्यु तक वहां कैद रहे।
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