तारिक़ आज़मी
वाराणसी: वाराणसी का कारोबारी हब अगर किसी इलाके को कहा जाए तो वह इलाका दालमंडी है। दालमंडी ऐसा इलाका है जिसने इतिहास में अपने नाम को सुनहरे अक्षरों में दर्ज करवाया हुआ है। इसी इलाके की धरोहर रहे भारत रत्न बिस्मिल्लाह खान ने दुनिया में देश का नाम रोशन किया। अपने सांसो में मौसिकी का दम भरकर बिस्मिल्लाह खान ने कानो में अपनी शहनाई की ऐसी शक्कर घोली थी कि उन्हें अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति ने 1968 में अपने मुल्क में बस जाने की दावत दिया था। जिस पर बिस्मिल्लाह खान ने बड़ी ही खूबसूरती से जवाब दिया था कि “मेरे हुजरे की खटिया जैसी मीठी नींद आपके यहाँ महल में नही आएगी।”
दालमंडी को लोग बिस्मिल्लाह खान के नाम से जानते है। मगर बहुत कम लोगो को पता है कि पारसी नाट्यकर्मी आगा हक़ काश्मीरी भी इसी इलाके में जन्मे थे और यही रहते थे। अगर नृत्य संगीत की बात करे तो “चम्पाबाई” भी इसी इलाके की रहने वाली थी। यहाँ तहजीब, संगीत और अदब की महफिले सजती थी। दालमंडी के लिए कुछ लोग परिभाषा “डॉल-मंडी” जैसे शब्दों से शायद इसी कारण से देते है। प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफ़ेसर मोहम्मद आरिफ कहते है कि जो लोग यहाँ “रक्काशाओ” के पुराने ज़माने से रह चुके अस्तित्व के कारण ऐसा कहते है तो यह कोरा सिर्फ एक मिथक बनाया हुआ है हकीकत से इसका कोई सरोकार नही है। यहाँ गीत-संगीत और अदब तथा तहजीब की महफिले सजती थी। हकीकत में इस इलाके का नाम “हकीम मोहम्मद जाफर” मार्ग है।
प्रोफ़ेसर आरिफ ने और भी गहराई में जाते हुवे बताया कि हकीम मोहम्मद जाफर एक बड़े हकीम हुआ करते थे और दूरदराज़ से लोग यहाँ उनसे अपना इलाज करवाने आते थे। वक्त गुज़रता गया और मौसिकी की महफिले कम होते होते खत्म होने लगी। फिर इस इलाके की दुकाने जो कभी इत्र की खुशबु और चंपा के फूलो से महका करती थी, अपनी ज़रुरतो के लिए यहाँ बाज़ार कारोबार के लगने शुरू हुवे। शुरुआत में यहाँ शादी विवाह में चलने वाले “डाल” का कारोबार होना शुरू हुआ जिसके बाद से इसका नामकरण दालमंडी पड़ गया जो आज तक मशहूर है। इसको “डॉल-मंडी” जैसे लफ्जों से नवाजने वाले इस इलाके की अज़मत को समझ नही पाए क्योकि ये इलाका वैश्यालय नही बल्कि अदब और संगीत की महफ़िलो का इलाका था।
बहरहाल, राजस्व के पास इस इलाके के नाम तक नही है। इस इलाके पर मशहूर लेखक और पत्रकार हेमंत शर्मा ने भी काफी कुछ लिखा है। हेमंत भी दालमंडी के आसपास के रहने वाले थे। अपने एक लेख में इस बात का हेमत ज़िक्र करते है कि कालेज से वापसी के समय अक्सर वह इसी मार्ग से होकर जाते थे। इस इलाके में स्वतंत्रता संग्राम में भी योगदान दिया है और स्वतंत्रता आन्दोलन के समय यहाँ स्वतंत्रता सेनानी आकर आश्रय लेते थे। पास में ही कोदई चौकी (कोदो के चावल की तत्कालीन मंडी) होने के कारण यहाँ से “संवदिया” भी आसानी से होती थी।
कौन थे हकीम मोहम्मद जाफर ?
हकीम मोहम्मद जाफर का जन्म वर्ष 1840 में हुआ था और उनका इन्तेकाल वर्ष 1923 में हुआ। उन्हें यूनानी पद्धति से उपचार में महारत थी। हकीम मोहम्मद जाफर ने 30 साल तक लखनऊ में एक मानिंद हकीम की शागिर्दी की थी। उसके बाद उन्हें सोने के पानी से लिखी सनद दी गई। वह सनद अब भी उनके पूर्वजो के पास सुरक्षित है। बनारस और ग्वालियर के राजपरिवार उनके मुरीद थे। करीब डेढ़ सौ वर्ष पूर्व ही उन्होंने टीबी और कुष्ट जैसी बीमारियों की अचूक दवा तैयार की थी। इसके लिए वह समुद्री केकड़े के नीले खून का उपयोग करते थे। वर्ष 1962 में बनारस में यूनानी चिकित्सा पद्धति को लेकर एक बड़ा सम्मेलन हुआ था। उस सम्मेलन में पांच राज्यों के स्वास्थ्य मंत्रियों ने हिस्सा लिया था। उसी आयोजन के दौरान पांचों मंत्रियों की मौजूदगी में चौक थाने के बगल में उनके नाम का पत्थर लगवाया गया था। एक वैसा ही पत्थर नई सड़क के पास लंगड़े हाफिज मस्जिद के पीछे भी लगाया गया था। जबकि इस मार्ग का नामकरण वर्ष 1948 में हुआ था।
पूर्वांचल का सबसे बड़ा कारोबारी हब है दालमंडी
दालमंडी वाराणसी नही बल्कि पूर्वांचल का हब है कहना कही से अतिश्योक्ति नही होगी। दालमंडी में आम नागरिक और कारोबारी हमेशा से ही शरीफ और ईमानदार तथा मेहनती रहे है। सस्ते दामो में बढ़िया क्वालिटी की बात अगर होती है तो एक ही नाम दालमंडी-नई सड़क का रहता है। एक नही कई आइटमो की होलसेल मंडी दालमंडी ग्राहकों की पहली पसंद है। शायद इसका कारण यहाँ वाजिब दाम का होना है। किसी बड़े शोरूम मे अथवा शापिंग माल में जो सामान आपको 100 रुपयों में मिलेगा इस इलाके में वही क्वालिटी आपको 50 रुपयों में मिल जायगी। किसी बड़े मोबाइल शाप पर आप जाकर अपने मोबाइल का टेम्पर बदलवाते है तो वहा 100 रुपया आपको देना पड़ेगा, मगर वही टेम्पर आपको यहाँ 30-40 रुपयों में बदल जाएगा। “लो प्राफिट, हाई सेल” के फार्मूले पर चलने वाले इस मार्किट में हर सामान उपलब्ध होता है।
आपसी सौहार्द का इससे बड़ा उदहारण नही है कोई
हर त्यौहार मानने वाले दालमंडी को आप गंगा जमुनी तहजीब का मरकज़ कह सकते है। होली पर रंग, दीपावली पर दीपक और झालर ईद पर सेवई इस इलाके में मिल जाती है। हर त्यौहार ये मार्किट अपने रंग बदल कर उस त्यौहार के रंग में सराबोर हो जाती है। ये इलाका वैसे तो मुस्लिम बाहुल्य है। मगर यहाँ हिन्दू आबादी भी अपनी अच्छी उपस्थिति रखती है। इसकी मेल मुहब्बत को गिद्ध की नज़र से देखने वालो ने आज कल इस इलाके को अपने हाशिये पर ले रखा है। दालमंडी के अमन चैन का इतिहास शायद ऐसे लोगो को पता नही होगा। इतिहास गवाह है कि 1892 में अंग्रेजो द्वारा करवाए गए पहले सांप्रदायिक दंगे से लेकर आज तक कोई भी सांप्रदायिक तनाव इस इलाके में नही हुआ। ये इलाका सांप्रदायिक सौहार्द का एक बड़ा उदहारण है। यहाँ कभी सांप्रदायिक तनाव नही हुआ और दोनों वर्ग हमेशा एक दुसरे से मेल मुहब्बत के साथ रहते है।
लोग माहोल बिगड़ना चाहते है, कामयाब कभी नही होंगे: पार्षद मोहम्मद सलीम
वार्ड नम्बर 65 के पार्षद मोहम्मद सलीम कहते है कि इस इलाके में आपसी मेल मुहब्बत आज की नही हमारे बाप-दादाओं के ज़माने की है। यहाँ कुछ लोग आकर बेतुके अफवाह फैला रहे है। हम इलाके के लोग सजग है और उनकी अफवाहों का जल्द ही मुहतोड़ जवाब दिया जायेगा। लोग इस इलाके की साम्प्रदायिक मेल मुहब्बत को ठेस पहुचाना चाहते है। मगर कामयाबी उनको नही मिलेगी। हम गंगा जमुनी तहजीब के लोग है। हम अमन पसंद है और अपने अमन में किसी की पहुचाई हुई खलल को बर्दाश्त नही करेगे।
तहजीब और सांप्रदायिक अमन का इतिहास रहा है दालमंडी का: नजमी सुलतान
क्षेत्र की मशहूर अधिवक्ता और समाजसेविका नजमी सुलतान ने कहा कि कुछ लोग हमारे इलाके में अमन को नुक्सान पहुचाने के मंशा से अफवाह फैलाना चाहते है। मगर उनकी चाल कामयाब नही होगी। आज तक अमन के दुश्मन हमारे क्षेत्र में नही पनप पाए है ये इतिहास गवाह है। हम गंगा जमुनी तहजीब को कायम रखने के लिए ऐसे लोगो को जवाब देना जानते है।
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