तारिक आज़मी
वाराणसी। शहर बनारस अपनी खुशनुमा ज़िन्दगी के लिए मशहूर है। इस शहर में लोग हर हाल में कहते है बाबा की दया है। ये शहर गंगा जमुनी तहजीब का एक मरकज़ है जहा तानी बाने का रिश्ता चलता है। ऐसे मदमस्त शहर में एक इलाका ऐसा भी है जहा लोगो को साँस लेना भी दुश्वार है। इस इलाके में यदि सही से सभी निवासियों की जाँच करवाया जाये तो किसी का ही शायद पूरा फेफड़ा काम करता मिले। हम बात कर रहे है शहर बनारस के चौक क्षेत्र स्थित ठठेरी बाज़ार इलाके की, जहा सांस लेना भी दुश्वार है।
गौर करने वाली बात यह है कि ये चिमनियाँ अपने अपने भवनों से केवल दो से चार फुट की ऊंचाई पर ही जहर उगलने लगती हैं। इन बुलियन रिफाइनरियों से निकलने वाला घना पीला धुआं बहुत ही जहरीला होता है। सम्भवतः एक चिमनी से निकलने वाला घना पीला धुआं हरियाणा के किसी पूरे गांव की पलारी के जलने से निकलने वाले धुएं से ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाला और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। इन केमिकल युक्त धुँआ के साँस से फेफड़ो के अन्दर लगातार जाते रहने से फेफड़े कड़े हो जाते है और काम करना बंद कर देते है। स्थिति ऐसी है कि यदि इलाके में जहा जहा सोना शोधन का कार्य होता है उसके आसपास के लोगो के फेफड़ो की जाँच करवाया जाए तो किसी का भी फेफड़ा 100 फीसद काम करता नही मिलेगा।
सबसे भयानक स्थिति तो यह है कि इन बुलियन रिफाइनरियों को लाइसेंस देने वाला विभाग “ब्यूरो ऑफ इण्डियन स्टैण्डर्ड” लाइसेंस जारी करते समय केवल रिफाइनरी की गुणवत्ता और उसके उत्पाद की गुणवत्ता की चर्चा करता है यह विभाग इस बात का कही भी कत्तई ज़िक्र नही करता है कि रिफाइनरी किस स्थान पर लगेगी अथवा कितनी जगह की आवश्यकता होगी अथवा इससे होने वाले प्रदूषण के लिये क्या मानक होंगे अथवा शहरी क्षेत्र में लगेगी या बाहरी। जबकि हमने जब इन धुवे से होने वाले नुक्सान का पता करना शुरू किया तो जानकारी हासिल हुई कि इन धुओ के फेफड़ो में जाने से फईब्रोसिस बनता है जिससे फेफड़ो की मुलामियत कम होती जाती है और फेफड़े कड़े होने लगते है और आक्सीजन पम्प करना बंद कर देते है। धीरे धीरे कुछ समय के बाद फेफड़े काम करना ही बंद कर देते है। यही नहीं इस बिमारी के सेकेण्ड स्टेज के बाद ही मरीज़ को आक्सीज़न की आवश्यकता पड़ने लगती है और रोज़ ही दो से तीन घंटे आक्सीज़न चाहिए होता है। इस बिमारी को मेडिकल भाषा में आईएलडी कहा जाता है।
जाने क्या कहते है नियम
हम इस मुद्दे पर बहस नही कर सकते कि नियम इस सम्बन्ध में क्या है। बहुत गहराई तक जाने के उपरांत भी हमको कोई स्पष्ट निर्देश बहुत साफ़ साफ़ तो नही मिला। मगर जो मिला वह भी काफी है। इस बात को रखने के लिए कि शहरी इलाको में आबादी के पास ऐसे संयंत्र नही हो सकते है। हमारी कई दिनों के अध्यन के क्रम में हमको इस सम्बन्ध में गुजरात हाई कोर्ट का एक केस मिला, केस की हमने स्टडी किया। लगभग ऐसे ही हालत से रूबरू वहा भी मामला था। प्रकरण था D.S. Rana v/s Ahmedabad Municipal Corporation Special Civil Application Appeal No. 2490 of 1999, जिसका फैसला 13 September 1999 जस्टिस आर के अभिचंदनानी ने दिया था में साफ़ साफ़ वर्णित है। फैसले को आप खुद पढ़ सकते है मगर शायद प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड और लाइसेंस देने वाली अथारिटी ने इसको ध्यान में नही रखा है। उस प्रकरण में म्युनिसिपल कारपोरेशन अहमदाबाद ने सभी ऐसी रिफईनरी फक्ट्रिज़ को शहर से दूर वाणिज्यिक क्षेत्र में स्थानांतरित कर दिया गया था। जिस सम्बन्ध में यह अपील दाखिल हुई थी।
इस केस को जैसे ही आप पढ़ते है तो आपको संविधान के आर्टिकल 48A का भी ख्याल आ जायेगा। इस सम्बन्ध में ऐसा नही है कि इस प्रकार एक केवल एक ही केस में कोई फैसला आया हो। हाई कोर्ट के तवारीखी जज्मेंट्स में कई फैसले ऐसे है जिसको पढ़ा जा सकता है। जिसमे एक प्रमुख उदहारण और भी देता चालू राजस्थान हाई कोर्ट के केस AIR2003Raj286; RLW2003(2)Raj1012; 2003(2)WLC465 के सम्बन्ध में यह प्रकरण Vijay Singh Punia Vs. Raj. State Board for the Prevention and Control of Water Pollution and ors. जिसका फैसला चीफ जस्टिस अनिल देव सिंह ने 7 मार्च 2003 को सुनाया था का भी अध्यन किया जा सकता है। जिसमे उन्होंने भोपाल गैस कांड से मिलते जुलते दिल्ली के केस एमसी मेहता केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का रिफरेन्स दिया था।
क्या है वर्त्तमान स्थिति
नियम हैं अथवा नहीं है कि बहस तो बहुत अधिक लम्बी हो सकती है। यह स्थानीय प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड का अपना काम है। यह एक अलग विषय ही है, लेकिन पक्के महाल में चल रही इन बुलियन रिफाइनरियों से होने वाले प्रदूषण के दुष्परिणाम सामने आने शुरू हो गए हैं, यदि क्षेत्रीय लोगों के सीने और फेफड़ों की जांच कराई जाए तो एक बहुत बड़ा तबका फेफड़े की एक असाध्य बीमारी आईएलडी से ग्रस्त मिलेगा, जिसमें फेफड़े संक्रमित हो जाते हैं, रोगी को खांसी आती है और धीरे-धीरे सांस लेने में तकलीफ होती है और अन्त में सिर्फ एक ख़ामोशी होती है।
कई लोग है प्रभावित
हमने स्थानीय नागरिको में कई जगहों पर जाकर इस सम्बन्ध मे चर्चा किया तो ज्ञात हुआ की चौक थाना अन्तर्गत ठठेरी बाजार में सीके 19/7 की निवासिनी श्रीमती रश्मि बहल इस प्रदूषण की भेंट चढ़ चुकी हैं। सीके 19/6 के निवासी ओंकार सिंह की पत्नी का खांस खांस कर बुरा हाल है। सीके 19/8 की निवासिनी श्रीमती आशा मिश्र के 75% फेफड़े काम नहीं कर रहे थे और दिन मे 16 घंटे ऑक्सीजन पर रहना पड़ता था। आखिर आशा मिश्रा ज़िन्दगी की जंग हार ही गई। अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हिन्दी भाषा के विद्वान व अनेक राजनेताओं को हिन्दी भाषा की शिक्षा देने वाले काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर डा0 विश्वनाथ मिश्र को भी संक्रमण हो गया, दोनों पति पत्नी यानी आशा मिश्रा और प्रोफ़ेसर विश्वनाथ मिश्रा जो मेरे उस्ताद भी थे आखिर साँसों की ये जंग हार गए। दुनिया को शिक्षा दिया, मुझसे उन्होंने इस समस्या के लिए बताया था। मैंने लिखा भी, कमिश्नर साहब ने जाँच का आदेश भी दिया। मगर फाइल कहा गई अभी तक किसी की जानकारी में नही है।
आखिर प्रोफ़ेसर साहब और उनकी पत्नी सांसो के लिए अपनी जद्दोजेहद में अपनी सांसे गवां बैठे। जिसके बाद उनके पुत्र अभिनव मिश्रा अपना ये पैत्रिक आवास छोड़ कर चले गये। सीके 18/38 मे रहने वाले “नीलाम वाले” परिवार के अधिकांश सदस्य ठठेरी बाजार छोड़ कर जा चुके हैं। इसी परिवार के राजेश कुमार अग्रवाल ने 4 वर्ष पूर्व हृदयाघात होने के बाद ठठेरी बाजार छोड़ दिया। परिजनों का कहना है कि इस ख़ामोशी में भी इसी घातक धुवे का असर है। सबसे बड़ा सवाल यहाँ ये उठता है कि आखिर इसको रोके कौन ? यहाँ ये उठता है कि आखिर इसको रोके कौन ? पुलिस प्रशासन के हाथ इस मामले में लगभग बंधे हुवे है। ऐसा पुलिस कहती है। स्थानीय थाना इसकी रोकथाम करना चाहता है ये बड़ा सवाल है। क्योकि जब तक आशुतोष तिवारी इस इलाके के थाना प्रभारी थे तब तक थोडा बहुत सख्ती थी, वक्त बदल गया और फिर क्या वही वही लहजा दराजी चालु है। साँसों की जद्दोजेहद जारी है।
मगर नही कर सकता है क्योकि यह काम जिला अधिकारी के निर्देश अथवा फिर प्रदुषण विभाग की कड़ी कार्यवाही के द्वारा ही हो सकता है। रात के 8 बजे के बाद होने वाले इन कामो के लिए मौके पर देर रात को प्रदुषण विभाग को आना बिना बड़े अधिकारी के निर्देश के संभव नही दिखाई देता है। अब सवाल उठता है कि क्या हम दूसरे भागलपुर गैस कांड अथवा भोपाल गैस कांड का इंतजार करते रहेंगे या गैस चेंबर बन चुके पक्के महाल को इस धीमे जहर से मुक्ति दिलाएंगे।
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