शाहीन बनारसी
आज गुरु पूर्णिमा है। बात की शुरुआत इससे करने का कोई फायदा नही कि ये कब और क्यों मनाया जाता है। सुबह से ढेरो गुरु पूर्णिमा के संदेशो में आपको ये पता तो चल ही गया होगा कि आज महर्षि वेदव्यास का जन्मदिन है। ये आषाड माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है। आज मेरे लिए तो वह दिन है जिस दिन हम अपने उस्तादैन के लिए, उनकी खुशियों के लिए चंद लम्हे उनके नाम करे। सनातन धर्म में गुरु का महत्व भगवान से भी बड़ा है। जबकि इस्लाम में भी उस्ताद का मर्तबा काफी ऊँचा है। आइये इस गुरु पूर्णिमा पर कुछ अल्फाज़ो नजराने एक एक सलाम उनको पेश करते है।
तालीम तो इंसान के लिए माँ की गोद से शुरू होकर कब्र के आगोश तक मिलती रहती है। हमारी पहली गुरु तो हमारी माँ होती है, जो हमे हर तालीम देती है। बाप होता है जो हर एक कदम चलना सिखाता है। उनकी तर्जनी उंगली को पकड कर हम पहला कदम न पहले उस्तादैन को पहला सलाम। सलाम उन उस्तादों को जिन्होंने पहली मर्तबा मेरे हाथो में पेन्सिल थमा कर मेरी ऊँगली पकड़ कर मुझे “क से ज्ञ” तक लिखना सिखाया। सलाम उनको जिन्होंने मुझे “अलीफ से लेकर बड़ी ये” तक की पहचान करवाया। सलाम उनको जिन्होंने मुझको “ए से जेड” तक सिखाया। सलाम उस हर एक शख्स को जिसने मुझे राई भर दाने जैसी भी कोई सिख दिया हो। सलाम हर उस शख्स को जिसने मेरी बुराई करके भी मुझे सिखाया।
एक गुरुओ को सलाम के बाद सलाम उन “गुरुघंटाल” लोगो को भी जिनके वजह से आज शाहीन आपके सामने शाहीन बनारसी बन गई है। उन गुरुघंटालो के वजह से ही तो शाहीन आज शाहीन बनारसी बनी। न वो मेरे मामा के यहाँ उनकी एक समस्या के समाधान का दावा करते हुवे आते और अपने शब्द मेरे मामा के मुह में ठूस कर उनका वीडियो बना कर 5 हजार रुपया लेकर चले जाते। न ये काम हमको हिकारत वाला पसंद आया कि सबसे बढ़िया काम है। अपने शब्द दुसरे के मुह में ठूस कर बोलवा लो और 5 हज़ार रुपया भी ले लो। यही सोच कर शाहीन परवीन अपने गुरु की तलाश में निकली। मगर शाहीन परवीन को ऐसा गुरु मिला जो उसको शाहीन बनारसी बना बैठा। तब मुझको समझ में आया कि असली दुनिया तो ये है। बहरहाल, उन गुरुघंटालो को दो बार सलाम। न वो होते न हम आज शाहीन बनारसी होते।
उस्ताद एक कुम्हार के जैसा होता है। जैसे कुम्हार अपने पास आई बिखरी मिटटी को वह हाथो में समेट कर उठाता है, बड़े ही प्यार से उसको चाक पर रखता है। कभी नर्म तो कभी कड़े हाथो से उसे आकार प्रदान करता है। आकार देने के बाद उसे एक अच्छा और पक्का रंग देने के लिए वो मिटटी से बने उस चीज़ के साथ खुद भी धुप में तपता है और पक्का रंग देता है। एक थोथी मिटटी को आकर देते हुवे वह पानी में भीगता भी है और धुप में तपता भी है। ठीक उसी तरह गुरु होता है। जो अपने पास आये मिटटी के ढेले को इल्म की मिटटी से संवारता है और उस मिटटी के ढेले को एक अच्छा इन्सान बनाता है। खुद अपने शागिर्दों के साथ तपता है और उसे एक अच्छा आकार और रंग प्रदान करता है।
वो उस्ताद ही होता है जो हमे हार कर भी जीतना सिखाता है। उस्ताद ही हमे बताते है कि “मन के हारे हार और मन के जीते जीत” होती है। इस गुरु पूर्णिमा के खुबसूरत मौके पर कबीर दास का एक दोहा लोग अक्सर गुनगुना लेते है। “गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काके लागू पाए…? बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताये। कबीर ने गुरु की महिमा का वर्णन बड़ी ही सरलता से और खूबसरती से किया है और बताया है कि गुरु का स्थान बहुत ही उंचा है। सच में एक उस्ताद का साया माँ-बाप, भाई-बहन, दादा-दादी से लेकर एक अच्छे दोस्त सभी का मिश्रण होता है। हकीकत में गुरु के महत्व को लिखने बैठे तो लफ्ज़ भी खुद को मोहताज समझने लगते है। आज मेरी कलम ने भी साथ देने से इनकार कर दिया कि और बोल उठी कि “बस…..! रुक जाओ शाहीन….! उसके बारे में अब क्या लिखोगी जिसने खुद तुम्हे लिखना सिखाया।“
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