तारिक़ आज़मी
वाराणसी: अभी तक आपने पढ़ा कि किस प्रकार से वाराणसी के मदनपुरा इलाके में स्थित सदानंद बाज़ार में भवन संख्या डी0 43/73-74 जिसको भगवान के नाम उपहार करते हुवे कैलाशनाथ को अधिकार दिया कि उक्त भवन से होने वाली आय के माध्यम से वह अपना खर्च आजीवन अपने व परिवार के साथ चला सकता है। इसके एवज में उसको मन्दिर में भगवान् के सेवईत की तरह काम करना होगा। रामदेई का वसीयतनामा 1 नवम्बर 1965 को तत्कालीन चीफ सब रजिस्ट्रार वाराणसी के यहाँ बही संख्या 3, के जिल्द संख्यां 652 के पृष्ठ संख्या 5 से 10 पर दर्ज किया गया। मगर इस सबके बावजूद इस संपत्ति का विक्रय हुआ और बिक्री के बाद संपत्ति को लेकर सवाल खड़ा हुआ कि आखिर जिन कैलाश नाथ विश्वकर्मा और उनके पुत्रो की यह संपत्ति थी ही नही उन्होंने आखिर इसको बेच कैसे दिया?
इसके अलावा हमने वर्तमान के नगर निगम और तत्कालीन नगर पालिका के रिकार्ड को भी आपको बताया जहां दस्तावेजों के साथ बड़ा खेला लम्बे समय से हुआ है। दस्तावेजों को देखे तो अहसास हो जाता है कि ये खेल बड़े ही षड़यंत्र के तरीके से हुआ है। जिसकी शुरुआत 1978 में हुई जब कैलाश नाथ विश्वकर्मा का नाम दर्ज करवाया गया। यहाँ सबसे गौर करने वाली बात ये है कि 1978 में भी इस मंदिर की संपत्ति की मुख्य मालकिन सामदेई के की उस वसीयत का ज़िक्र नही हुआ जिसमे उन्होंने इस संपत्ति को मंदिर की संपत्ति घोषित करते हुवे कैलाश नाथ को मात्र सेवईत नियुक्त किया था।
मंदिर पर गिद्ध दृष्टि तो वर्ष 1978 में ही पड़ गई थी। तभी से इस मंदिर की संपत्ति पर कब्ज़ा करने के लिए जुबैर द्वारा षड़यंत्र खेला जा रहा था। जिसके तहत सूत्रों की माने तो ज़रूरत पड़ने पर हज़ार, पांच सौ रुपया उधार के तौर पर कैलाश नाथ को जुबैर द्वारा दिया जाता था। गरीब की मज़बूरी का फायदा उठाते हुवे कैलाश नाथ को थोडा थोडा करके तभी से पैसा देते देते रकम इतनी बड़ी कर दिया गया कि कैलाश नाथ चाह कर भी वापस न कर सके। सूत्रों की माने तो वर्ष 1984 में एक पंचायत में इसका निस्तारण हुआ और उक्त संपत्ति का सट्टा जुबैर मियाँ ने एक लाख रुपया पेशगी दिखाते हुवे अपने तीन पुत्रो के नाम ले लिए था।
रामबाबु विश्वकर्मा ने बताया कि जिस समय इस भवन का सट्टा हमारे पिता से करवाया गया था उस समय ह्मारे दोनों भाई नाबालिग थे और उनकी भी दस्तखत करवाया गया था। गरीबी में थोडा थोडा करके लिया गया धन जुबैर ने लिख कर रखा था और इस प्रकार किश्तों में एक गरीब के सर का आशियाँ छीन लिया था। एक सेवईत से उस संपत्ति को खरीदने की लिखा पढ़ी कर लिया। बताया जाता है कि धनबल से मजबूत जुबैर ने ये लिखा पढ़ी अपने बेटो के नाम करवाया था और धनबल के आगे कोई बोलने वाला नही था।
इस प्रकार मंदिर की इस संपत्ति को अपने नाम करवाने का सपना जुबैर मियाँ ने वर्ष 1978 से ही पाल रखा था। एक लम्बी नुरा कुश्ती के बाद आखिर इस संपत्ति पर जुबैर मियाँ का कब्ज़ा हो ही गया। फिर उसके बाद बहुबल और धनबल के गठजोड़ ने मंदिर की इस संपत्ति को महमूद मियाँ के नाम जुबैर के बेटो ने बेचा और अब महमूद मियाँ ने इस संपत्ति पर कब्ज़ा करके इस पर अवैध रूप से निर्माण करवाना शुरू कर दिया है। हमारी खबर के बाद से जब जाँच शुरू हुई तो घुसखोरी में जेल गए दरोगा महेश सिंह जिनका पुराना सम्बन्ध हिस्ट्रीशीटर आमिर मलिक से है का साथ देते हुवे पुलिस को गुमराह किया और इस संपत्ति के बगल की मंदिर को इस संपत्ति की मंदिर कहते हुवे मंदिर के पुजारी का बयान लिखवा दिया। अगले अंक में हम आपको बतायेगे कि आखिर किस प्रकार महेश सिंह दरोगा ने अपने हिस्ट्रीशीटर दोस्त आमिर मलिक को लक्सा थाने से लगे 110जी यानी मिनी गुंडा एक्ट की कार्यवाही से महफूज़ रखा, जिसका क़र्ज़ आमिर मलिक ने महेश सिंह की ज़मानत करवा कर चुकता किया गया।
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