शाहीन बनारसी
इंसान गुज़र जाता है मगर इंसान के काम और उसके खयालात और अलफ़ाज़ अमर होते है। उसकी पहचान नेस्तोनाबुत हो जाती है मगर फिर भी वो अपने किये नेक कामो और कही बातो से हमारे बीच न होकर भी हमारे बीच मौजूद होता है। ऐसा ही एक नाम है रघुपति सहाय जिनको दुनिया फिराक गोरखपुरी के नाम से जानती है। उर्दू अदब के बेहतरीन शायर फिराक गोरखपुरी की आज यौम-ए-पैदाइश है। फिराक साहब आज ही के दिन 28 अगस्त, 1896 को गोरखपुर में पैदा हुए थे। आज उर्दू अदब का मशहूर शायर हमारे बीच भले मौजूद नहीं है मगर इस क्रांतिकारी शायर के अलफ़ाज़ आज भी हमारे दिलो में जिंदा है। फिराक साहब ने 3 मार्च, 1982 को इस दुनिया को अलविदा कहा और इस दुनिया-ए-फानी से रुखसत हो लिए थे।
फिराक गोरखपुरी की शायरी में रात और तन्हाई का ज़िक्र ज्यादा मिलता है और ये भी कहा जाता है कि वो रातो को जाग कर लिखा करते थे। फ़िराक़ साहब की सारी ज़िंदगी तन्हाई में गुज़री। कभी-कभी तो तन्हा इतने बड़े घर में ख़ामोश बैठे हुए सिगरेट पिया करते थे। ख़ास तौर से शाम को ये तन्हाइयाँ दर्दनाक हद तक गहरी हो जाती थीं। एक ऐसी ही शाम को नौकर बाज़ार गया हुआ था। एक ग़ुंडा मौक़ा ग़नीमत समझ कर दबे-पाँव घर में घुस आया। उसने चाक़ू निकाल कर फ़िराक़ साहब के सीने पर रख दिया और रक़म का तलबगार हुआ।
फ़िराक़ साहब उसको चुप-चाप देखते रहे फिर बोले “अगर तुम जान लेना चाहते हो तो मैं कुछ नहीं कहना चाहता। अगर रुपया चाहते हो तो वो मेरे पास नहीं है। नौकर बाज़ार गया हुआ है…बैठ जाओ…अभी आ जाएगा तो तुम्हें रुपया दिला दूंगा।” हमलावर बैठ गया फ़िराक़ साहब ने एक नज़र उसकी तरफ़ देखा और फिर बोले “अच्छा हुआ तुम आ गये। मैं बड़ी तन्हाई महसूस कर रहा था।” इस किस्से से साफ़ ज़ाहिर होता है कि उन्होंने किस कद्र तन्हाई में अपनी ज़िन्दगी के एक-एक लम्हे को गुज़ारा।
फिराक गोरखपुरी हाजिर जवाब किस्म के इंसान थे। वो बिना सोचे समझे कुछ भी बोल दिया करते थे। एक बार फिराक साहब एक मुशायरे में शिरकत कर रहे थे। मुशायरे में और भी शायर मौजूद थे जो बारी-बारी अपने कलाम पेश कर रहे थे। फिराक साहब को मामला कुछ जमा नहीं। उन्होंने कुछ कहा नहीं और चुपचाप अपनी बारी आने का बड़ी ही सब्र से इंतज़ार कर रहे थे। जब उनकी बारी आई तो उन्होंने माइक संभाला और माइक सँभालते के साथ ही कहा “हजरात! अब तक आप कव्वाली सुन रहे थे, अब कुछ शेर सुनिए।” इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि हाज़िर जवाबी का दूसरा नाम फिराक गोरखपुरी था।
फिराक साहब ने इंसानी ज़िन्दगी के हर पहलु पर अपनी कलम चलाई है। उन्होंने ज़िन्दगी के हर पहलु को अपने अल्फाजो में बयां किया है। बेशक आज वो हमारे बीच मौजूद नहीं है मगर उनके खुबसूरत अलफ़ाज़ आज भी हमारे दिलो में जिंदा है। उनकी कही बाते आज भी हमारी ज़िन्दगी के किसी न किसी पहलु में नज़र आते है। फिराक साहब ने बहुत शायरी लिखी है और वो उर्दू अदब के अज़ीम शायर थे। उनकी लिखी शायरी आज भी बुजुर्गो से लेकर युवाओं तक सभी के मन को खूब भाता है। आइये आपको फिराक गोरखपुरी के चुनिन्दा शायरी से रूबरू करवाते है-
बस इतने पर हमें सब लोग दीवाना समझते हैं
कि इस दुनिया को हम इक दूसरी दुनिया समझते हैं
खो दिया तुम को तो हम पूछते फिरते हैं यही
जिस की तक़दीर बिगड़ जाए वो करता क्या है
बस्तियाँ ढूँढ रही हैं उन्हें वीरानों में
वहशतें बढ़ गईं हद से तिरे दीवानों में
फ़ितरत मेरी इश्क़-ओ-मोहब्बत क़िस्मत मेरी तंहाई
कहने की नौबत ही न आई हम भी किसू के हो लें हैं
आई है कुछ न पूछ क़यामत कहाँ कहाँ
उफ़ ले गई है मुझ को मोहब्बत कहाँ कहाँ
कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम
उस निगाह-ए-आश्ना को क्या समझ बैठे थे हम
कुछ भी अयाँ निहाँ न था कोई ज़माँ मकाँ न था
देर थी इक निगाह की फिर ये जहाँ जहाँ न था
किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
ये हुस्न ओ इश्क़ तो धोका है सब मगर फिर भी
फिर वही रंग-ए-तकल्लुम निगह-ए-नाज़ में है
वही अंदाज़ वही हुस्न-ए-बयाँ है कि जो था
बात निकले बात से जैसे वो था तेरा बयाँ
नाम तेरा दास्ताँ-दर-दास्ताँ बनता गया
जिन की ज़िंदगी दामन तक है बेचारे फ़रज़ाने हैं
ख़ाक उड़ाते फिरते हैं जो दीवाने दीवाने हैं
दीदार में इक-तरफ़ा दीदार नज़र आया
हर बार छुपा कोई हर बार नज़र आया
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं
बहसें छिड़ी हुई हैं हयात-ओ-ममात की
सौ बात बन गई है ‘फ़िराक़’ एक बात की
मुझ को मारा है हर इक दर्द ओ दवा से पहले
दी सज़ा इश्क़ ने हर जुर्म-ओ-ख़ता से पहले
ये नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चराग़
तेरे ख़याल की ख़ुशबू से बस रहे हैं दिमाग़
रुकी रुकी सी शब-ए-मर्ग ख़त्म पर आई
वो पौ फटी वो नई ज़िंदगी नज़र आई
रस में डूबा हुआ लहराता बदन क्या कहना
करवटें लेती हुई सुब्ह-ए-चमन क्या कहना
रात भी नींद भी कहानी भी
हाए क्या चीज़ है जवानी भी
वो चुप-चाप आँसू बहाने की रातें
वो इक शख़्स के याद आने की रातें
एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं
सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
लेकिन इस तर्क-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं
इसी खंडर में कहीं कुछ दिए हैं टूटे हुए
इन्हीं से काम चलाओ बड़ी उदास है रात
बद-गुमाँ हो के मिल ऐ दोस्त जो मिलना है तुझे
ये झिझकते हुए मिलना कोई मिलना भी नहीं
लाई न ऐसों-वैसों को ख़ातिर में आज तक
ऊँची है किस क़दर तिरी नीची निगाह भी
वक़्त-ए-ग़ुरूब आज करामात हो गई
ज़ुल्फ़ों को उस ने खोल दिया रात हो गई
माज़ी के समुंदर में अक्सर यादों के जज़ीरे मिलते हैं
फिर आओ वहीं लंगर डालें फिर आओ उन्हें आबाद करें
‘फ़िराक़’ दौड़ गई रूह सी ज़माने में
कहाँ का दर्द भरा था मिरे फ़साने में
रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गए
वाह-री ग़फ़लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम
बहसें छिड़ी हुई हैं हयात ओ ममात की
सौ बात बन गई है ‘फ़िराक़’ एक बात की
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