आदिल अहमद
नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अब मुल्क की सबसे बड़ी अदालत 31 अक्टूबर को सुनवाई करेगी। इस बीच आज सोमवार इस मुद्दे पर दाखिल हुई सैकड़ो याचिकाओं पर एक साथ सुनवाई शुरू हुई और इसके साथ ही नई याचिकाओं को भी शामिल कर सब पर अदालत ने केंद्र सरकार से 4 हफ्ते में जवाब मांगा है। बताते चले कि 2020 में नागरिकता कानून पर रोक लगाने पर सुप्रीम कोर्ट ने इनकार कर दिया था। आज हुई सुनवाई में सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि सरकार की ओर से कुछ जवाब आ गए हैं, लेकिन कुछ जवाब अभी बाकी हैं। वहीं याचिकाकर्ताओं के वकील कपिल सिब्बल ने कहा कि याचिकाओं की छंटनी करनी जरूरी है।
संशोधित कानून के अनुसार धार्मिक प्रताड़ना के चलते 31 दिसंबर 2014 तक पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से भारत आए हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों को अवैध प्रवासी नहीं माना जाएगा और उन्हें भारतीय नागरिकता दी जाएगी। राष्ट्रपति के नागरिकता (संशोधन) विधेयक 2019 को स्वीकृति प्रदान किए जाने के बाद से यह कानून बन गया था। कानून को चुनौती देने वाले अन्य कई याचिकाकर्ताओं में ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू), पीस पार्टी, गैर सरकारी संगठन ‘रिहाई मंच और सिटिजंस अगेंस्ट हेट, अधिवक्ता एम एल शर्मा और कानून के कई छात्र शामिल हैं।
जयराम रमेश ने अपनी याचिका में कहा है कि कानून संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों पर ‘खुला हमला है। वहीं, मोइत्रा ने कहा है कि कानून की असंवैधानिकता भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने पर हमला है। रमेश ने कहा कि न्यायालय के विचार के लिए कई महत्वपूर्ण सवाल हैं जिनमें यह भी शामिल है कि भारत में नागरिकता प्राप्त करने या नागरिकता से इनकार करने के लिए क्या धर्म एक कारक हो सकता है, क्योंकि नागरिकता कानून 1955 में यह असंवैधानिक संशोधन है। जबकि मोइत्रा ने अपनी याचिका में कहा है कि कानून विभाजक और भेदभाव करने वाला है। उन्होंने शीर्ष अदालत से कानून के क्रियान्वयन पर रोक लगाने का निर्देश दिए जाने का आग्रह किया है। आईयूएमएल ने कहा है कि कानून संवैधानिक ढांचे के खिलाफ है और यह मुसलमानों से भेदभाव करता है। वहीं केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में प्रारंभिक जवाब दाखिल किया था। केद्र ने कहा है कि नागरिकता संशोधन कानून से किसी भी नागरिक के मौजूदा अधिकारों पर प्रतिबंध नहीं है। यह कानूनी, लोकतांत्रिक या धर्मनिरपेक्ष अधिकारों को प्रभावित नहीं करेगा। केंद्र का कहना है कि यह कानून संसद की संप्रभु शक्ति से जुड़ा मामला है और अदालत के समक्ष इस पर सवाल नहीं उठाया जा सकता।
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