तारिक आज़मी
कानपुर: कानपुर देहात स्थित लूट के एक मामले में रानिय थाने में पुलिस हिरासत में हुई मारपीट में बलवंत के मौत प्रकरण में दर्ज मुक़दमे में तत्कालीन एसओजी प्रभारी प्रशांत गौतम को कल पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है। इसके बाद आज सुबह से मृतक बलवंत की तस्वीरे और वीडियो सोशल मीडिया पर जमकर वायरल हो रहा है। वीडियो और फोटो देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि मृतक बलवंत किस बर्बरता का शिकार हुआ था।
सवाल उठता है कि आखिर कैसी ये हिरासत थी और कैसी ये पूछताछ थी। मानवाधिकार ताख पर रख कर थानों में होती ये बर्बरता आखिर कब तक जारी रहेगी। थानों के कई हिस्सों में कैमरे न होने का फायदा बेशक पुलिस कर्मी लगाते है। चंद चुनिन्दा जगहों पर कैमरे लगे होने के कारण थानों पर तैनात पुलिस कर्मी और अधिकारी भी इस कैमरों की जद जानते है कि कहा तक है बस उन कैमरों से ही तो बचत चाहिए होती है। सड़क पर इन्साफ करने को बेताब उस भीड़ से खुद को पुलिस इस घटना के बाद अलग कैसे कर सकती है जो थानों पर ही इन्साफ करने के लिए बेताब खडी है।
हम नही कहते कि अपराधियों के साथ नर्म रवैया अपना कर उनको अपराध करने में और उकसाओ। मगर कम से कम ऐसी बर्बरता तो नही होना था। या शायद खुलासे की बहुत जल्दी थी कि लूट का मामला है जल्द निपटा लो। कोई तो मार के डर से खुद के ऊपर इल्जाज़ ले लेगा ताकि अधिकारियो से पीठ को थपथपवा सके। कलमो की सूख रही सियाही भी इसकी ज़िम्मेदार है। किसने कलम नवीसो ने जाकर दहकते हुवे सवाल अधिकारियो से पूछे है? किस कलम नवीस ने यह सवाल किया कि पूछताछ के नाम पर कई कई दिनों तक थानों पर बैठना कहा का नियम है। कम से कम संविधान की मर्यादा को कायम रहना चहिये।
शायद ही कोई ऐसा शहर या क़स्बा होगा जहा इस तरीके से नियम की धज्जिया उड़ाई न जा रही हो। किसी बड़ी घटना में हिरासत लेने के बाद कई कई दिनों तक थानों में ही पूछताछ का क्रम चलता है। माल बरामदगी का कभी बहाना तो कभी सच सामने आने का बहाना। बेशक थाना स्तर पर पत्रकारिता करने वाले हर एक शख्स को यह हकीकत तो पता ही है। मगर कहा है वह सवालात जो अधिकारियो से पूछे जाते थे। किसी खुलासे के समय एक वक्त था कि अधिकारियो से सवालो की झड़ी लगती थी। आज क्या होता है। चाय, नाश्ता करके एक ही ढर्रे के सवाल कि आज क्या खुलासा हुआ।
सिस्टम की कमी का रोना रोने का क्या हमको अधिकार है? बेशक नही है अधिकार क्योकि सिस्टम के ये सभी टूल बॉक्स हमारे ही नजरो के सामने बनते चले आ रहे है। पुलिस लाखो की शराब पकडती है और तस्कर फरार हो जाता है, क्या हम सामने से सवाल पूछते है कि टारगेट सिर्फ शराब बरामद कर लेना था। जब इतनी बड़ी पुलिस टीम थी तो तस्कर कैसे फरार हो गया। अभी दो दिनों पहले बलिया के सहतवारा पुलिस ने लाखो की अवैध शराब बरामद किया। पकड़ा कौन गया? एक चालक और एक खलासी। उनका क्या कसूर था इसकी बहस के बजाये क्या हमारे पास थाना प्रभारी से पूछने का जज्बा था कि पिकअप मालिक का नाम पता जानकारी करना कितने मिनट का काम था? कैसे मुख्य तस्कर फरार हो गया। आखिर अँधेरे का फायदा मुख्य तस्कर को क्यों मिला, खलासी या फिर चालक को क्यों नही मिला ?
नही क्योकि हम अब सरकारी पत्रकारिता करना शुरू कर चुके है। फलाने दरोगा जी पैदल गस्त कर रहे है। दौड़ दौड़ कर फोटो खीच लेते है। जमकर तारीफों के पुल बांधते है। क्यों भाई? क्योकि जब अगली बार दरोगा जी से मुलाकात हो तो वह हसकर बात करे, चाय पान करवाए। ताकि हमारी समाज में हनक बढ़े। शायद यही पत्रकारिता बची है। रूलर इलाको में तो हालत और भी ख़राब है। किसी ने क्रांतिकारी खबर उठाया तो उसके अपने ही उसकी चुगली करने लगते है। बलिया में पेपर लीक मामला भूले तो नही होंगे आप। किसने लीक किया पेपर इससे मतलब नही बल्कि दो पत्रकारों को ही निपटा डाला। उठाकर जेल में ठूस दिया। कारण क्योकि सच लिख बैठे थे।
सोचिए दोषी कौन? कानपुर की पत्रकरिता में कम से कम बलवंत काण्ड पर कोई अपनी कालर तो खडी नही कर सकता कि मैंने ये कद्दू में तीर मारी है। बलवंत के परिवार का ये जुझारूपन था जिससे बलवंत को इन्साफ मिलने की उम्मीद बढ़ी है। वरना आप कानपुर के अखबारों को देखे और वहा की सोशल मीडिया पर ख़ामोशी को देखे तो खुद समझ जायेगे कि किसने कितना लिखा और क्या लिखा। कलम बलवंत के परिजनों का बयान लिखा कर कोई बयाना नही लेना चाहती थी। ये वही कानपुर है जहा हिंदी पत्रकारिता के जनक पंडित जुगल किशोर शर्मा ने जन्म लिया। ये वही कानपुर है जहा हिंदी के क्रांतिकारी पत्रकरिता का जन्म गणेश शंकर विद्यार्थी ने किया था। खुद की जान उन्होंने सत्य के लिए दे दिया। अपनी जान गवा कर उन्होंने दंगे रोके। कहा गई आखिर लहू में बसी गणेश शंकर विद्यार्थी की वह क्रांति।
दरअसल ठंडी पड़ चुकी है वह रवानगी। क्रांति तो शांत हो चुकी है। कलम की रफ़्तार प्रशानिक रफ़्तार से चलती है। प्रशासनिक अधिकारी जिधर मुह करे उधर वाह हुजुर आप लाजवाब है, दरोगा जी देखे तो वाह वाह हुजुर आप तो पुराने लाजवाब है। ढेर कोई क्रांति लाने के सवाल करे तो उसके खिलाफ जाकर अधिकारियो के कान भरो कि अरे बकवास है। सब बस ऐसे ही है। थाने पर बैठो और जमकर अपने साथियों के साथ इसी सम्बन्ध को निभाई। एक दिन आएगा। कलम रुक जायेगी। शरीर भी कमज़ोर पड़ जायेगा और उस दिन पीड़ित हम आप होंगे और हमारी आपकी सुनने वाला कोई न होगा। फिर कोसना सिस्टम को बैठ कर।
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