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जब शिक्षा देने के लिए शिक्षक ही नही तो फिर छात्रो के भविष्य का क्या होगा आप खुद सोचे

तारिक आज़मी

केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अपने बच्चो को शिक्षा दिलवाने के लिए तमन्ना सभी अभिभावकों की रहती है। मगर आज कल थोडा ट्रेंड बदल गया और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में मौजूदा स्थिति के कारण ऐसे अभिभावक जो मोटी फीस अफोर्ड कर सकते है अपने बच्चो को निजी शिक्षण संस्थानों का रुख करवा रहे है। इस प्रकार देखे तो अगर हम मोटी रकम अपने बजट में बच्चो की शिक्षा के नाम पर नहीं रखते है तो हमारे लिए दिक्कत की बात है। हम बच्चो के भविष्य के साथ समझौता तो कर नही सकते है।

यह स्थिति क्यों है इसको सोचने के लिए आकड़ो पर ध्यान देने ज़रूरी है। शिक्षा के क्षेत्र में कई डिजिटल मीडिया प्लेटफार्म पर सरकार की नीतियों पर सवालिया निशान लगाते हुवे खबरे इस वक्त सुर्खिया बटोर रही है। संसद में चल रहे सत्र के दरमियान भी सरकार को विश्वविद्यालयों की नियुक्ति पर अपना जवाब देना पड़ा कि कितने पद रिक्त है। ग्रीष्मकालीन सत्र में केंद्रीय शिक्षा मंत्री ने जहा संसद में बयान देते हुवे बताया था कि मिशन मोड़ में भर्ती प्रक्रिया चलेगी और केंदीय विश्वविध्यालयो में खाली पड़े 11 हजार से अधिक प्रोफ़ेसर और असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद भरे जायेगे। तो इस बार शीतकालीन सत्र में जब सरकार ने संसद में एक सवाल के जवाब में वापस आकडे पेश किये तो निकल कर सामने आया कि कुल 375 पद इस मिशन मोड़ में भरे जा सके है।

संसद में सरकार के द्वारा दिए गए आकडे बताते है कि केंद्रीय विश्वविद्यालयो में कुल 11 हज़ार से अधिक पद प्रोफेसर और असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के रिक्त है। आप स्थिति समझ सकते है सिर्फ इस बात से कि आईआईटी में ही 5 हज़ार से अधिक पद खाली है। इस रिक्ति की पूर्ति गेस्ट प्रोफ़ेसर से विश्वविद्यालय कर रहे ई। जिसके बाद अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आखिर क्लासेस में पढाई कितनी हो पा रही होगी। शायद ये एक बड़ा कारण है कि निजी उच्च शिक्षण संस्थानों के तरफ अभिभावकों की रूचि केवल इस कारण बढती जा रही है क्योकि उनको अपने बच्चो के भविष्य की चिंता रहती है।

बेशक इन पदों पर नियुक्तियों की प्रक्रिया अगर तेज़ चलती है और नियुक्तिया समय के साथ होती है तो हमारे देश के केंद्रीय विश्वविद्यालय किसी विदेशी शिक्षण संस्थान से कम किसी कीमत पर नही हो सकते है। ऐसे कई उदहारण आपको इतिहास के पन्नो में मिल जायेगे। मगर बात आकर वही रूकती है कि जब शिक्षको की संख्या ही कम होगी और एक शिक्षक के कंधो पर दो शिक्षको का भार होगा तो फिर आखिर क्या स्थिति होगी। सरकार को इस मुद्दे पर गम्भीर होने की आवश्यकता है। केवल “मिशन मोड़” जैसे शब्द कहने के बजाये इस शब्द के मायने को भर्तियो में धरातल पर लाना पड़ेगा।

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