तारिक़ आज़मी
ज़िन्दगी का एक और कलेंडर बदलने का लम्हा आने को बेताब है। कलेंडर जो हर रोज़ एक “तारीख” बदल देता है उसके भी हयात में एक ऐसा “तारिक” आ जाता है जो खुद के बदलने के साथ ही कलेंडर को भी बदल देता है। शायद इसी को मुहब्बत कहते है कि वक्त की अदालत के कई फैसलों को बकाया छोड़ कर ज़िन्दगी का कलेंडर बदल जाता है। जब आप ये पोस्ट पढ़ रहे होंगे तो बेशक या तो कलेंडर बदल चूका होगा या फिर कुछ ही लम्हों में बदलने वाला होगा।
दरअसल ये दिन ही तो है। सर्द मौसम की “धुप” के “काँधे” पर हाथ रख कर बगल से गुज़रती हुई “सर्द हवा” के झोको से जब हौले से फुसफुसा कर कहो कि “ए दिन तू गुज़रना मत, शायद किसी को तेरे होने का इंतज़ार हो।” एक अजीब कसक भले आपके मन में हो मगर देखने वाले आपको दीवाना करार दे देंगे। अब देखे न आज ही के दिन वो “फरीद” भी इसी दुनिया में आया जो ग़म के साथ भी फरेब कर गया।” चेहरे पर चार्मिंग मुस्कान लिए ग़मो को फरेब देने वाला ऐसा दुनिया में आया कि पूरा साल खा गया, ये भी कहना कोई गलत तो हो नही सकता है। मगर क्या करे वक्त है कि गुज़र ही जाता है। कलेंडर है कि पलट ही जाता है।
सही भी तो है कि अगर कलेंडर नही पटलता तो एक साल को शुरू करने के लिए “शाहीन” कहा से अपनी परवाज़ करने के लिए इस “दुनिया-ए-फानी” में तशरीफ़ फारमा होती। परवाज़ की ही तो बात है तभी तो 365 दिनों की परवाज़ के बाद भी नई परवाज़ के शुरुआत में भले ही वक्त की अदालत कई फैसलों को बाकि रखे, मगर कलेंडर तो पलट ही जा रहा है। वक्त गुज़र जाए तो हर लम्हा खुबसूरत होता है। अगर वक्त न गुज़रे तो हर एक लम्हे “बेचैनी” की दस्तक जोर-ओ-शोर से देकर दिन बदलने के लिए इल्तेजा और मिन्नतें करना शुरू कर देते है। दिन तो बदलते ही रहते है।
बेशक मुझको नहीं पता कि किसने कहा था “दिन सब एक जैसा नही होता है।” किसी बेरोज़गार से पूछे हर दिन एक जैसा ही तो होता है। या फिर किसी मेहनतकश मज़दूर से भी पूछ सकते है कि हर दिन क्या अलग अलग होते है। किसी पत्रकार जिसकी ज़िन्दगी की डोर कलम के रफ़्तार पर मुक़र्रर रहती है से भी पूछ सकते है कि “क्या सब दिन एक जैसा नही होता।” मेरे जैसा इंसान तो कहेगा कि “सब दिन एक जैसा ही तो दिखाई दे जाता है।“ बेरोज़गार भी यही कहेगा कि सब दिन एक जैसा ही है। जब इतराते हुवे इतवार को आवाज़ देने पर मंगल या फिर जुमेरात आकर हौले से कहती है कि “मियाँ ये मैं हु।” सोमवार को देखो तो वह शनिवार सा लगता है। रविवार जैसा तो हर एक दिन दिखाई पड़ता है। फिर कैसे कोई कह दे कि “मियाँ हर दिन एक सा नही होता है।”
इन सबके लिए तो हर दिन एक सा होता है। जब भागते दौड़ते वक्त गुज़रता है तो किसी बेकार और बरोज़गार से पूछ ले। सुबह भी शाम जैसे और दोपहर भी रात जैसे ही दिखाई देती है। कलेंडर पलटता है तो धड़कने तेज़ हो जाती है। कलेंडर के पलटने पर थोड़ी उम्मीद अपनी ज़िन्दगी में वक्त के फैसले आने की देरी पर जगाने की कोशिश होती है जब गूगल पर “मुस्तक़बिल” की तलाश होती है। खुद की कुंडली में बेरोज़गारी के “काल-सर्प” के भागने की उम्मीद उस “मुस्तक़बिल” बेच रहे इंसान के लिखे लफ्ज़ो में अपना “मुस्तक़बिल” तलाश रही होती है। “मुस्तक़बिल” मिलता है फिर उस “मुस्तक़बिल” का महीना मिलता है। उसके बाद जाग जाती है उम्मीद कि फलनवा महीने में “मुस्तक़बिल” हक़ीकी ज़िन्दगी में आकर सच हो जायेगा।
इसी उम्मीद के सहारे वह महीना ही नही बल्कि हर एक महीना गुज़रने लगता है। हर लम्हा गुज़रता है। इतवार तो इतराता ही रहता है और कहता है कि मैं ही शनिवार हूँ। सोमवार खुद को इतवार बताने में नही हिचकता है। आखिर इसी उम्मीद के साथ और भी वक्त, दिन, तारीख, महीना गुज़रता हुवे वहाँ पहुँच जाता है जहाँ आज हम है। यानी कलेंडर बदलने का इंतज़ार। न जाने वक्त के फैसले का इंतज़ार आखिर कब खत्म होगा। किसी शायर ने कहा कि “वक्त के साथ बदलना तो बहुत आसाँ था, बस..! मुझसे हर वक्त मुखातिब रही ग़ैरत मेरी।” अब मखातिब ग़ैरत है तो फिर बदलने का सवाल कहाँ पैदा हो पायेगा। या फिर उम्मीद पर टिकी ज़िन्दगी के अरमान को अगर पढ़े तो “हजारो ख्वाहिशे ऐसी कि हर ख्वाहिश पर दम निकले, बहुत निकले दम हमारे लेकिन फिर भी कम निकले।”
(आर्टिकल में दो लफ्ज़ थोडा आपको मायने में परेशानी का सबब बन सकते है। एक लफ्ज़ जो मेरा नाम है “तारिक़” यह अरबी भाषा का शब्द है जिसका मायने होता है “वह सितारा, जो सुबह को निकलता है।” इसको आप “ध्रुव तारा” भी कह सकते है। जबकि दूसरा शब्द “तारिक” है जो क़दीमी उर्दू का लफ्ज़ है जिसका मायने “अँधेरा” होता है।)
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