तारिक़ आज़मी
हल्द्वानी के इंदिरा नगर इलाके में चलने वाले बुलडोजर के पहिए को आज सुप्रीम कोर्ट ने ब्रेक लगा दी है। सुप्रीम कोर्ट में पेश हुए आज के केस में अदालत ने वहां के निवासियों को एक बड़ी राहत देते हुए उत्तराखंड सरकार को अगले आदेश तक के लिए किसी भी कार्रवाई पर रोक लगाने का हुक्म जारी करते हुए स्थानीय उत्तराखंड सरकार और रेलवे से अपने सवालों का जवाब मांगा है।
सुप्रीम कोर्ट में आज की सुनवाई में कहा है कि इस पूरे मामले में एक मानवीय एंगल की भी देखा जाना चाहिए। सुनवाई के दरमियान सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस कौल ने कहा कि हमें लोगों की जरूरतों को ध्यान में रखना होगा। सुप्रीम कोर्ट से निकलकर वरिष्ठ वकील और कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद ने कहा कि इस पूरे मामले में गौर से देख कर कोई समाधान निकालने को अदालत ने कहा है। कोर्ट ने कहा है कि रेलवे का भी काम हो जाए, उन्हें जैसे जगह मिल जाए और जो लोग वहां रह रहे हैं उनके पुनर्वास की भी व्यवस्था की जाए।
अदालत ने इस मामले में 8 फरवरी की अगली तारीख मुकर्रर करते हुए उत्तराखंड सरकार और रेलवे को अपना जवाब दाखिल करने को कहा है। वहीं दूसरी तरफ इस आदेश की खबर आते ही हल्द्वानी के इंदिरा नगर और आसपास इलाकों के बाशिंदों के बीच खुशी की एक लहर देखी गई। हर तरफ सुप्रीम कोर्ट की जयकारे के नारे भी सुनाई दिए।
कैसे उठा और कहा से उठा ये मामला
इस मामले की शुरुआत कहा से हुई इसको जानने के लिए आपको भविष्य में थोडा जाना पड़ेगा। वर्ष 2007 में तत्कालीन इलाहाबाद और वर्त्तमान प्रयागराज के कुछ अधिवक्ताओं ने हल्द्वानी हाई कोर्ट में याचिका दाखिल कर मांग किया कि इलाहाबाद से काठगोदाम तक सीधी ट्रेन चलाया जाए। मामला शुरू हुआ और मामले में स्थानीय रेल प्रशासन ने अदालत को बताया कि उनकी 29 एकड़ ज़मीन पर अवैध कब्ज़ा है। ये कब्ज़ा महज़ इसी इलाके यह हल्द्वानी के इन्द्रानगर के लिए नही बताया गया था, बल्कि पूरा मिलाकर बताया गया था।
इसके बाद हल्द्वानी प्रशासन ने शपथ पत्र के माध्यम से इस केस में बताया कि इन 29 एकड़ ज़मींन में से कुल 19 एकड़ ज़मीन को अतिक्रमण खाली करवा दिया गया है। यहाँ से बात ठन्डे बस्ते चली जाती है और मामला यहाँ सिर्फ 10 एकड़ ज़मींन का ही अतिक्रमण जैसे माहोल का रहता है। मगर बात दुबारा उठती है वर्ष 2014 में। यहाँ साल को ध्यान देने की ज़रूरत है कि वर्ष 2014 में हल्द्वानी हाई कोर्ट में दुबारा मामला दाखिल होता है। इस बार याचिकाकर्ता रवि शंकर जोशी ने याचिका दाखिल कर इस अतिक्रमण को खाली करवाने की मांग किया।
यहाँ ध्यान देने वाली बात और भी है कि रविशंकर जोशी की याचिका में जो बहस हुई उसमे उसी वर्ष गोला नही पर बने रेलवे के पुल गिर जाने की बात हुई। उक्त पुल गिर गया था और जाँच में सामने आया था कि पुल के पास कई बड़े गड्ढे किये जाने से पुल के पिलर कमज़ोर हो गए थे और पुल गिर गया। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में दो बार गया। सुप्रीम कोर्ट ने हल्द्वानी हाई कोर्ट को दूसरी बार में आदेश दिया कि इस मामले में तीन महीनो में सुनवाई पूरी करे। जिसके बाद चली सुनवाई में अदालत ने ये पूरी बस्ती खाली करवाने का हुक्म जारी किया है। यहाँ एक बात और ध्यान देने वाली है कि रेलवे ने इस केस में अपने एक और शपथ पत्र के माध्यम से यह कहा था कि असल में उनकी ज़मीन जो अवैध कब्ज़े में है वह 69 एकड़ है। जबकि 2007 के केस में रेलवे 29 एकड़ की बात कर रहा था और प्रशासन उसने से 19 एकड़ खाली करवा देने का दावा भी कर चूका था।
क्या है अनसुलझे सवाल
उधर, इस मसले पर प्रदर्शन करने वालों ने सरकार को याद दिलाया कि साल 2016 में सरकार ने इस भूमि को नजूल की माना था। उनका सवाल है कि 6 साल पहले जो ज़मीन राज्य सरकार के नियंत्रण में थी, वह अब रेलवे की कैसे हो गई? और इससे भी बड़ा विवाद है इस सवाल के शुरू होने पर। जिस ज़मीन को लेकर पूरा बखेड़ा हो रहा है, जिसे रेलवे अपनी बता रहा है और जिसे अतिक्रमण से मुक्त कराने के लिए सरकार ने पूरी तैयारी कर ली है, उसका मामला न तो रेलवे ने उठाया था और न ही राज्य सरकार ने। पूरा मसला खड़ा हुआ था गौला नदी का पुल गिरने से।
नैनीताल हाई कोर्ट में समाजसेवी रविशंकर जोशी ने साल 2013 में एक जनहित याचिका दायर की। उन्होंने आरोप लगाया कि पुल के आसपास जो बस्तियां हैं, उनमें रहने वाले लोग नदी में खनन करते हैं। पुल के पिलर्स के आसपास भी खनन किया गया, जिससे पुल गिर गया। इस याचिका पर हाई कोर्ट ने रेलवे और राज्य सरकार को नोटिस जारी किया था। रेलवे ने तब हलफनामा दिया कि गफूर और ढोलक बस्ती जिस ज़मीन पर बसी हैं, वह उसकी है। विभाग ने तब बताया था कि कुल 29 एकड़ भूमि पर अवैध क़ब्ज़ा है। वहीं, सरकार का कहना था कि यह ज़मीन नजूल की है और इस पर उसका अधिकार है।
इस बीच 9 नवंबर 2016 को हाई कोर्ट ने आदेश दे दिया कि 10 हफ्ते के भीतर अतिक्रमण हटाया जाए। कुछ लोग इसके ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट चले गए। तब शीर्ष अदालत ने आदेश दिया कि अतिक्रमणकारियों का भी पक्ष सुना जाए। उनके काग़ज़ देखे जाएं। इसके बाद रेलवे पीपी ऐक्ट यानी 1971 के तहत नोटिस देकर जनसुनवाई शुरू हुई। हालांकि इसके बाद रेलवे ने अपना दावा और बढ़ा दिया। विरोध कर रहे लोगो का आरोप है कि पहले रेलवे अपनी 29 एकड़ ज़मीन पर अतिक्रमण बता रहा था। बाद में उसने अतिक्रमण की जद में आई भूमि का रकबा 78 एकड़ बताना शुरू कर दिया। पहले जब 29 एकड़ में अतिक्रमण की बात कही जा रही थी, तब उसमें वनभूलपुरा की गफूर बस्ती और ढोलक बस्ती ही आ रही थी। लेकिन, अब 78 एकड़ के दायरे में बहुत बड़ी आबादी आ गई है। हाई कोर्ट के आदेश के बाद प्रशासन यहां रहने वालों को बेदखल करने की तैयारी में जुटा है।
प्रभावितों का यह भी आरोप है कि रेलवे ने सुनवाई के नाम पर महज खानापूर्ति की। उनका पक्ष नहीं सुना गया। स्थानीय निवासीयो का आरोप है कि रेलवे ग़लत बोल रहा है। पीपी ऐक्ट में इकतरफा सुनवाई की गई। उन्होंने इसके ख़िलाफ़ रिवीजन लगाया है। बरेली रेलवे कोर्ट में सुनवाई के लिए दो फरवरी की तारीख लगी है। उन्होंने ज़िला कोर्ट में भी मामला दायर किया है, जहां पांच फरवरी को सुनवाई होनी है। ज़िला अदालत में एक हज़ार 178 प्रभावितों ने काग़ज़ लगाए हैं। उनका सवाल है कि जो घर बाप-दादा ने बनवाया, उसे लेकर कहां अर्जी लगाएं?
प्रभावितों का पक्ष रखने के लिए बनी ‘बस्ती बचाओ संघर्ष समिति’ का कहना है कि हाई कोर्ट में रेलवे ने जो नक्शा दिया, वह 1959 का है। वहीं, लोगों के पास 1937 की लीज है यानी लोगों का दावा रेलवे से पुराना है। समिति से जुड़े परिवर्तनकामी छात्र संगठन के चंदन सिंह मेहता का कहना है कि साल 2016 में राज्य सरकार ने हाई कोर्ट में कहा था कि अतिक्रमण वाली ज़मीन नजूल भूमि है। तब उसने रेलवे के अधिकार को नकारा था। फिर अब चुप्पी क्यों? राज्य सरकार 2016 में मलिन बस्ती अधिनियम लेकर आई थी। इसके तहत पूरे राज्य में 582 मलिन बस्तियों को पुनर्वास के लिए सूचीबद्ध किया गया। इस लिस्ट में वनभूलपुरा क्षेत्र की गफूर बस्ती, ढोलक बस्ती, चिराग अली शाह और इंदिरा नगर भी थे। लिस्ट में आने से इन बस्तियों को सरकार का संरक्षण मिल गया। लेकिन, 2021 में सूची संशोधित हुई और वनभूलपुरा की बस्तियों को बाहर कर दिया गया।
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