शाहीन बनारसी
उर्दू के मशहूर शायर क़ैसर-उल जाफ़री ने कई रूमानी ग़ज़लें लिखी हैं, जिसे हिंदी के पाठक भी आसानी से समझ सकते हैं। इन्होने अपने गजलो में इश्क को एक खुबसूरत अंदाज़ में बयान किया है। कैसर उल जाफरी ने दिलो की बाते कहने के लिए लफ्जों के जालो में नहीं फंसाया बल्कि दिल की बात को बड़े ही खुबसूरत अंदाज़ में पेश किया।
तुम्हें भुलाने में शायद मुझे ज़माना लगे…
तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे
मैं एक शाम चुरा लूँ अगर बुरा न लगे
तुम्हारे बस में अगर हो तो भूल जाओ मुझे
तुम्हें भुलाने में शायद मुझे ज़माना लगे
जो डूबना है तो इतने सुकून से डूबो
के आस पास की लहरों को भी पता न लगे
वो फूल जो मेरे दामन से हो गये मंसूब
ख़ुदा करे उन्हें बाज़ार की हवा न लगे
न जाने क्या है किसी की उदास आँखों में
वो मुँह छुपा के भी जाये तो बेवफ़ा न लगे
तू इस तरह से मिरे साथ बेवफ़ाई कर
कि तेरे बाद मुझे कोई बेवफ़ा न लगे
तुम आँख मूँद के पी जाओ ज़िन्दगी “क़ैसर”
के एक घूँट में शायद ये बदमज़ा न लगे
इक रात में सदियों की थकन कम नहीं होती…
टूटे हुए ख़्वाबों की चुभन कम नहीं होती
अब रो के भी आँखों की जलन कम नहीं होती
कितने भी घनेरे हों तिरी ज़ुल्फ़ के साए
इक रात में सदियों की थकन कम नहीं होती
होटों से पिएँ चाहे निगाहों से चुराएँ
ज़ालिम तिरी खुशबू-ए-बदन कम नहीं होती
मिलना है तो मिल जाओ यहीं हश्र में क्या है
इक उम्र मिरे वादा-शिकन कम नहीं होती
‘क़ैसर’ की ग़ज़ल से भी न टूटी ये रिवायत
इस शहर में ना-क़दरी-ए-फ़न कम नहीं होती
चांदनी रात से पूछो मीरा घर कैसा लगा
डूबने वालों हवा का हुनर कैसा लगा
ये किनारा ये समुंदर ये भँवर कैसा लगा
पोंछते जाईये दामन से लहू माथे का
सोचते जाईये दिवार को सर कैसा लगा
हट गयी छाँव मगर लोग वहीँ बैठे हैं
दश्त की धूप में जाने वो शजर कैसा लगा
डर ओ दिवार है मैं हूँ मिरी तन्हाई है
चांदनी रात से पूछो मीरा घर कैसा लगा
इस से पहले कभी पोंछे थे किसी ने आंसू
उन का दामन तुझे दीदा-ए-तर कैसा लगा
सहल थीं मरहला-ए-तर्क-ए-वफ़ा तक राहें
इससे आगे कोई पूछे कि सफ़र कैसा लगा
आँख से देख लिया तर्क-ए-वतन का मंज़र
घर जहाँ छोड़ गए थे वो खंडर कैसा लगा
वो मुझे सुन के बड़ी देर से चुप है ‘क़ैसर’
जाने उस को मिरी ग़ज़लों का हुनर कैसा लगा
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