शाहीन बनारसी (तस्वीरे/वीडियो: ईदुल अमीन)
दुनिया मे अपनी शहनाई की मीठी धुन से भारत का नाम बुलंद करने वाले उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब की आज यौम-ए-पैदाइश का दिन है। बिस्मिल्लाह खां को इस दुनिया-ए-फानी से 21 अगस्त 2006 को रुखसत होकर फातमान में अपने पसंदीदा नीम के पेड़ के नीचे अपनी आरामगाह में आराम फरमा रहे है। आज डेढ़ दशक बाद भी शहनाई का नाम आये और उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब का नाम न लिया जाए तो शहनाई के साथ नाइंसाफी होती है। सन 2001 उन्हें भारत के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया। वह तीसरे भारतीय संगीतकार थे, जिन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया है।
बिस्मिल्ला खाँ का जन्म बिहार के डुमराव में मुस्लिम संगीत घराने में हुआ। उनके पिता पैगम्बर खाँ शहनाई वादक थे और माँ मिट्ठन बाई एक गृहणी थी। उनकी शुरूआती परवरिश डुमराँव के टेढ़ी बाजार के एक किराए के मकान में हुई थी। उस रोज भोर में उनके पिता पैगम्बर बख्श राज दरबार में शहनाई बजाने के लिए घर से निकलने की तैयारी ही कर रहे थे कि उनके कानों में एक बच्चे की किलकारियां सुनाई पड़ी। अनायास सुखद एहसास के साथ उनके मुहं से बिस्मिल्लाह शब्द ही निकला। उन्होंने अल्लाह के प्रति आभार व्यक्त किया। हालांकि उनका बचपन का नाम कमरुद्दीन था। लेकिन वह बिस्मिल्लाह के नाम से जाने गए। वे अपने माता-पिता की दूसरी सन्तान थे।
कैसे हुआ काशी से लगाव
6 साल की उम्र में बिस्मिल्ला खाँ अपने पिता के साथ बनारस आ गये। वहाँ उन्होंने अपने मामा अली बख्श ‘विलायती’ से शहनाई बजाना सीखा। उनके उस्ताद मामा ‘विलायती’ विश्वनाथ मन्दिर में स्थायी रूप से शहनाई-वादन का काम करते थे। वक्त गुज़रा और उस्ताद की उम्र जब 16 बरस की हुई तो वह शहनाई वादन में निपुण हो चुके थे। इसी इसी उम्र में उस्ताद के मामू ने अपनी बेटी मुग्गन ख़ानम के साथ उस्ताद का निकाह करवा दिया। उनकी पत्नी उनके दुसरे मामू सादिक अली की दूसरी बेटी थी। उनसे उन्हें 9 संताने हुई। वे हमेशा एक बेहतर पति साबित हुए। वे अपनी बेगम से बेहद प्यार करते थे। लेकिन शहनाई को भी अपनी दूसरी बेगम कहते थे। 66 लोगों पूरा कुनबा था जिसका खाना एक साथ उस्ताद की हयात तक बनता था। इस पुरे कुनबे का उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब ही भरण पोषण करते थे और अपने घर को कई बार बिस्मिल्लाह होटल भी कहते थे।
सांझी वरासत के मरकज़ ‘उस्ताद बिस्मिल्लाह खान’
लगातार 30-35 सालों तक साधना, छह घंटे का रोज रियाज उनकी दिनचर्या में शामिल था। अलीबख्श मामू के निधन के बाद खां साहब ने अकेले ही 60 साल तक इस साज को बुलंदियों तक पहुंचाया। बिस्मिल्ला खाँ पांच वक्त के नमाज़ी मुसलमान थे, फिर भी वे अन्य हिन्दुस्तानी संगीतकारों की भाँति धार्मिक रीति रिवाजों के प्रबल पक्षधर थे। बाबा विश्वनाथ की नगरी के बिस्मिल्लाह खां एक अलग ही अनुकरणीय अर्थ में धार्मिक थे। वे काशी के बाबा विश्वनाथ मन्दिर में जाकर तो शहनाई बजाते ही थे इसके अलावा वे गंगा किनारे बैठकर घण्टों रियाज भी किया करते थे। हमेशा त्यौहारों में बढ़-चढ़ कर भाग लेते थे, पर रमजान के दौरान पुरे तीस रोज़े रखते थे। बनारस छोडऩे के ख्याल से ही वह व्यथित हो जाते थे कि गंगाजी और काशी विश्वनाथ से दूर नहीं रह सकते थे। वे जात पात को नहीं मानते थे। उनके लिए संगीत ही उनका धर्म था। वे सही मायने में हमारी साझी वरासत के उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब एक मरकज़ थे।
काशी से अथाह मुहब्बत कि ठुकरा दिया अमेरिका की नागरिकता
एक बार की बात है जब उस्ताद बिस्मिल्ला खां को अमेरिका से बुलावा आया 1970 के दशक का उस्ताद का यह किस्सा काफी मशहूर है जिसको जानकार हर कोई हैरत में पड़ गया था। तत्कालीन अमेरिका के राष्ट्रपति ने उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब को न्योता दिया कि अमेरिकन सिटिज़न शिप लेकर यही बस जाए, साथ ही। उन्हें सभी प्रकार की सुविधा उपलब्ध होने का वायदा भी था। मगर उस्ताद ने यह प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। उनका कहना था कि यहां गंगा है, यहां काशी है, यहां बालाजी का मंदिर है, यहां से जाना मतलब इन सभी से बिछड़ जाना, साथ ही उन्होंने कहा था कि मेरी खटिया जैसी मीठी नींद आपके महल में नही आएगी। इसीलिये ‘सारे जहा से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा’। उनकी ये मुल्क परस्ती थी कि उन्होंने अमेरिकन सिटिजनशिप ठुकरा दिया।
प्राप्त अवार्ड
उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को ‘भारत रत्न’, ‘रोस्टम पुरस्कार’, ‘पद्म श्री’, ‘पद्म भूषण’, ‘पद्म विभूषण’, ‘तानसेन पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
उपलब्धि
1947 में आजादी की पूर्व संध्या पर जब लालकिले पर देश का झंडा फहरा रहा था, तब बिस्मिल्लाह ख़ाँ की शहनाई भी वहाँ आज़ादी का संदेश बाँट रही थी। तब से लगभग हर साल 15 अगस्त को प्रधानमंत्री के भाषण के बाद बिस्मिल्लाह ख़ाँ का शहनाई वादन एक प्रथा बन गयी।
अपनी तपस्या और रियाज़ से सवार संगीत
बिस्मिल्ला ख़ाँ ने ‘बजरी’, ‘चैती’ और ‘झूला’ जैसी लोकधुनों में बाजे को अपनी तपस्या और रियाज़ से ख़ूब सँवारा और क्लासिकल मौसिक़ी में शहनाई को सम्मानजनक स्थान दिलाया। इस बात का भी उल्लेख करना आवश्यक है कि जिस ज़माने में बालक बिस्मिल्लाह ने शहनाई की तालीम लेना शुरू की थी, तब गाने बजाने के काम को इ़ज़्जत की नज़रों से नहीं देखा जाता था। ख़ाँ साहब की माता जी शहनाई वादक के रूप में अपने बच्चे को कदापि नहीं देखना चाहती थीं। वे अपने पति से कहती थीं कि- “क्यों आप इस बच्चे को इस हल्के काम में झोक रहे हैं”।
क्या कहते है लेखक
उनके ऊपर लिखी एक किताब ‘सुर की बारादरी’ में लेखक यतीन्द्र मिश्र ने लिखा है- “ख़ाँ साहब कहते थे कि संगीत वह चीज है, जिसमें जात-पात कुछ नहीं है। संगीत किसी मजहब का बुरा नहीं चाहता।” किताब में मिश्र ने बनारस से बिस्मिल्लाह ख़ाँ के जुड़ाव के बारे में भी लिखा है। उन्होंने लिखा है कि- “ख़ाँ साहब कहते थे कि उनकी शहनाई बनारस का हिस्सा है। वह ज़िंदगी भर मंगलागौरी और पक्का महल में रियाज करते हुए जवान हुए हैं तो कहीं ना कहीं बनारस का रस उनकी शहनाई में टपकेगा ही।“
उस्ताद विलायत ख़ाँ के सितार और पण्डित वी0जी0 जोग के वायलिन के साथ ख़ाँ साहब की शहनाई जुगलबंदी के एल0 पी0 रिकॉडर्स ने बिक्री के सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले। इन्हीं एलबम्स के बाद जुगलबंदियों का दौर चला। संगीत-सुर और नमाज़ इन तीन बातों के अलावा बिस्मिल्लाह ख़ाँ के लिए सारे इनाम-इक़राम, सम्मान बेमानी थे। उन्होंने एकाधिक बार कहा कि “सिर्फ़ संगीत ही है, जो इस देश की विरासत और तहज़ीब को एकाकार करने की ताक़त रखता है”। बरसों पहले कुछ कट्टरपंथियों ने बिस्मिल्ला ख़ाँ के शहनाई वादन पर आपत्ति की। उन्होंने आँखें बद कीं और उस पर “अल्लाह हू” बजाते रहे। थोड़ी देर बाद उन्होंने मौलवियों से पूछा- “मैं अल्लाह को पुकार रहा हूँ, मैं उसकी खोज कर रहा हूँ। क्या मेरी ये जिज्ञासा हराम है”। निश्चित ही सब बेज़ुबान हो गए। सादे पहनावे में रहने वाले बिस्मिल्ला ख़ाँ के बाजे में पहले वह आकर्षण और वजन नहीं आता था। उन्हें अपने उस्ताद से हिदायत मिली कि व्यायाम किए बिना साँस के इस बाजे से प्रभाव नहीं पैदा किया जा सकेगा। इस पर बिस्मिल्ला ख़ाँ उस्ताद की बात मानकर सुबह-सुबह गंगा के घाट पहुँच जाते और व्यायाम से अपने शरीर को गठीला बनाते। यही वजह है कि वे बरसों पूरे भारत में घूमते रहे और शहनाई का तिलिस्म फैलाते रहे।
फिल्मो में भी चमका उनका नाम, संगीतकार मानते थे उनको ‘संत संगीतकार’
बिस्मिल्ला ख़ाँ ने कई फ़िल्मों में भी संगीत दिया। उन्होंने कन्नड़ फ़िल्म ‘सन्नादी अपन्ना’, हिंदी फ़िल्म ‘गूंज उठी शहनाई’ और सत्यजीत रे की फ़िल्म ‘जलसाघर’ के लिए शहनाई की धुनें छेड़ी। आखिरी बार उन्होंने आशुतोष गोवारिकर की हिन्दी फ़िल्म ‘स्वदेश’ के गीत ‘ये जो देश है तेरा’ में शहनाई की मधुर तान बिखेरी थी। संगीतकारों का मानना है कि उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान साहब की बदौलत ही शहनाई को पहचान मिली है और आज उसके विदेशों तक में दीवाने हैं। वो ऐसे इंसान और संगीतकार थे कि उनकी प्रशंसा में संगीतकारों के पास भी शब्दों की कमी नज़र आई। पंडित जसराज हों या हरिप्रसाद चौरसिया सभी का मानना है कि वो एक संत संगीतकार थे।
अब क्या है हालात
उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के वरासत को उनके वारसा द्वारा विगत वर्षो तोडा जा रहा था। स्थानीय ठेकेदारों के साथ मिल कर उनके पोते सिप्पू उस जगह पर एक कमर्शियल काम्प्लेक्स बनाना चाहते थे। ये मुद्दा सबसे पहले वरिष्ठ पत्रकार तारिक़ आज़मी के द्वारा उठाया गया था। जिसके बाद ये बात आगे बढ़ी और मामला राष्ट्रीय स्तर तक पहुचा तथा काम रुक गया। हमने उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के सम्बन्ध में वरिष्ठ पत्रकार तारिक आज़मी से बात किया। उन्होंने हमसे बातचीत में बताया कि ‘उस्ताद बिस्मिल्लाह खा साहब एक अहसास है उस गंगा जमुनी तहजीब का जिसका हम ज़िक्र महज़ लफ्जों में किया करते है। मुल्क परस्ती, आवामी खिदमत, ज़मीनी ज़र्रे से जुडी एक शख्सियत का नाम उस्ताद बिस्मिल्लाह खान है।’
तारिक आज़मी ने हमसे बात करते हुवे बताया कि ‘आज उनकी याद साल में दो बार शासन और प्रशासन को आ जाती है। इलाके की अवाम अक्सर उनके नामो की चर्चा करती है। मगर जो सन्देश आपसी भाईचारे का उनके द्वारा दिया गया वह आज किस मुकाम पर है। खुद उनके हयात में उनके नवासे ने ही उनकी शहनाई चुराई थी जिसका असर उस्ताद के ऊपर काफी पड़ा था। दौर ऐसा भी आया कि उनकी हयात के बाद उनके वरसा जो आज भी उस्ताद के नाम पर पहचाने जाते है ने उनकी ही वरासत को खत्म करने की कोशिश किया। सरकार ने उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के नाम पर बेनिया मार्ग का नाम रख दिया। शिलापट आज भी मौजूद है मगर अतिक्रमण के कारण बोर्ड छिप जाता है। वही स्मार्ट सिटी ने सबसे ज्यादा उस्ताद के नाम को खत्म करने का काम किया है। उनके नाम के गेट को बंद कर दिया गया है। इलाके के व्यापारियों की संस्था न्यू बनारस व्यापार समिति उस गेट को खोलने की मांग कर रही है, मगर सुनवाई कौन करेगा ये बड़ी बात है। स्मार्ट सिटी सुनता कम है और कहता ज्यादा है।’
उन्होंने बताया कि उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब के सभी वरसा लगभग अपने अपने रोज़गार में लगे हुवे है। बेहतर स्थिति में भी है। मगर उस्ताद के बेटे नाज़िम मिया जो कुवारे है बिना रोज़गार के है। उस्ताद ने अपनी हयात में उनके लिए शासन से अनुरोध किया था कि उनके रोज़ी के ज़र्रा-ए-माश का इंतज़ाम कर दे। उस समय नाजिम मिया के लिए पेट्रोल पम्प देने की कवायद शुरू हुई थी। मगर बीच रस्ते में अभी भी कही फाइल अटकी पड़ी है। नाजिम मिया तबला वादक है और देश के बड़े तबला वादकों में उनकी गिनती होती है। वरिष्ठ पत्रकार तारिक आज़मी ने बताया कि नाजिम मियाँ को यश भारती सम्मान सहित अन्य कई पुरस्कार मिले है। उन्होंने अमजद अली खान साहब, विलायात्तुल्लाह खान साहब, पंडित रविशंकर के साथ उन्होंने तबला वादन किया है। मगर अब स्थिति ऐसी है कि उनको मौके बड़े मंचो पर नही मिलता है। नाजिम मिया ने अल्लाहरखा खान साहब से तबला वादन सीखा, उस्ताद जाकिर हुसैन उनके गुरु भाई है।
वारिसो में दो पोतो के कंधे पर है उस्ताद की वरासत
उस्ताद के वारिसो की बात करते हुवे तारिक़ आज़मी ने बताया कि उस्ताद की दत्तक पुत्री शोभा डे आज भी चर्चित शख्सियत है। उनको किसी परिचय की मोहताजी नही है। उस्ताद ने अपने बेटो को संगीत की शिक्षा दिया। जिसमे बड़े बेटे महताब हुसैन और नय्यर हुसैन ने उस्ताद के साथ मंचो पर शहनाई भी बजाय। तीसरे बेटे जामिन हुसैन ने भी शहनाई सीखी और बजाया भी तीनो के देहांत के बाद नय्यर हुसैन ने अपने बेटे नासिर अब्बास और जामिन हुसैन ने अपने बेटे आफाक हैदर को शहनाई दादा की वरासत के तौर पर दिया जिसका सिलसिला आज भी कायम है। वही चौथे बेटे काजिम हुसैन हमेशा संगीत से दूर रहे। उस्ताद की बेशकीमती शहनाई चोरी मामले में एसटीऍफ़ ने इनके बेटे नज़रे हसन सहित दो सोनारो को गिरफ्तार किया था। नाजिम मियाँ सबसे छोटे होने के वजह से उस्ताद के सबसे दुलारे भी थे। उन्होंने तबला वादन में निपुणता हासिल किया।
वही उस्ताद की बेटियो की बात करते हुवे वरिष्ठ पत्रकार तारिक़ आज़मी ने बताया कि उस्ताद की चार साहेबज़दियाँ थी जिनमे एक सबसे बड़ी मलका बेगम का इन्तेकाल हो चूका है। उसके बाद ज़रीना बेगम, अजरा बेगम और कनीज़ फातिमा है। उस्ताद के किसी नवासे ने संगीत के क्षेत्र में निपुणता हासिल नही किया, मगर अपने भाइयो और मामुओ की हौसला अफजाई हमेशा करते है। उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब अक्सर अपने घर को बिस्मिल्लाह होटल का खिताब देते थे। क्योकि उनके घर में कुल 50 अफराक थे। उस्ताद पुरे कुनबे को एक साथ रखते थे।
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