तारिक़ आज़मी
उम्र के 43 पड़ाव कल गुज़र गए है। खट्टी मीठी यादो के साथ ज़िन्दगी का एक बड़ा हिस्सा गुज़र चूका है। शायद जवानी अपने आखरी पड़ाव के आसपास है। क्योकि इसके बाद अधेड़ी और फिर बुज़ुर्गी नज़दीक आती दिखाई दे रही है। खोने और पाने की बात करे तो रब का करम था उसने बक्शा बहुत कुछ। हमेशा सीखने की एक ख्वाहिश ने हर तरफ सैर करवाया। शायद इस सैर का दौर जारी है।
दिन की शुरुआत जैसे हर साल इस दिन होती है वैसे ही कल भी हुई। आज भी एक सवाल दिमाग में आया जिसका जवाब पिछ्ले 43 साल की ज़िन्दगी में हासिल नही हो सका। मामूर के हिसाब से आस्ताने पर बुज़ुर्ग के हाज़री लगाया और अपने वालदैन (माँ-बाप) से मिलने उनकी आरामगाह (कब्र) पर गया। अमूमन मैं ऐसी तस्वीरों का मुखालिफ हु जिस तरीके की तस्वीर आप देख रहे है। मगर आज मन किया इनको लेने का। वालिदैन की चादरपोशी के बाद उनकी दुआये हासिल करने की कोशिश किया और उसके बाद ‘वृद्धाश्रम’ पंहुचा। काफी सुकून मिलता है यहाँ जाकर।
इस सुकून का अहसास उनको होता है जिनके माँ बाप इस दुनिया में न हो। कौन कहता है दुनिया बड़ी महँगी हो गई है। यहाँ आपको महज़ मुहब्बत के बदले ही करोडो की दुआये मुफ्त में मिल जाती है। उस जगह कई बुजुर्गो के साथ बैठा। उनके साथ हंसा बोला। मगर मेरे दिमाग में वही एक सवाल चल रहा था जो आज भी कायम है। जिसका जवाब आज तक मुझको तो हासिल नही हो पाया। इस आर्टिकल को लिखने का मायने मेरा सिर्फ इतना है कि शायद आप पाठको को इसका जवाब पता तो मुझको बता दे। हो सकता है मुझे इसकी जानकारी मिल जाये।
पिछले दिनों गुज़रे ‘फादर डे’ और ‘मदर डे’ पर सोशल मीडिया के हर जगह माँ बाप से मुहब्बत करने वाले भरे हुवे थे। बेशक हम सभी अपने माँ बाप से मुहब्बत करते है। लोगो की भीड़ सोशल साईट पर ऐसे उमड़ी हुई इन दो दिनों में रहती है कि जैसे लगता ही नही है कि कोई इस दुनिया में ऐसा नही होगा जिसको अपने माँ बाप से मुहब्बत न हो। सभी अपने माँ बाप पर खुद की जान कम से कम सोशल नेटवर्किंग साइट्स और व्हाट्सएप विश्वविद्यालय के स्टैट्स पर उड़ेले रहते है। ऐसे ऐसे ‘कोट्स’ भरे पड़े रहते है जिनको पढ़ कर आँखों में आंसू आ जाये।
मेरा सवाल ये है कि फिर आखिर इन वृद्धाश्रम में रहने वाले जो लोग है वो किसके माँ बाप है? क्या ये लोगो किसी और मुल्क से ताल्लुक रखते है? क्या तोरा बोरा की पहाड़ी से है? या फिर किसी अन्य ग्रह से आये हुवे है। आखिर किनके माँ बाप है जब इतनी भीड़ अपने वैलिदैन से मुहब्बत करने वालो की है। क्या ये लोग लावारिस है? बेशक नही क्योकि इनसे मिलते जुलते हुवे मुझे अरसा बीत गया है जानता हु कि सभी के वारिस इस दुनिया में है। अधिकतर के बेटे बेटी भी है। अधिकतर इसी शहर बनारस और आसपास के है। फिर क्या इनके भी बच्चे जो इनको ऐसे यहाँ छोड़ कर मस्त है वह भी सोशल साइट्स पर ऐसे ही लच्छेदार बाते लिखते होंगे?
एक बुज़ुर्ग को मैं मैंने जाना। बेटा एक बड़ी कंपनी में मेडिकल अफसर है। दो बेटियाँ ‘वेल सेटल’ स्थिति में है। महज़ एक दो ऐसे बुज़ुर्ग है जिनका कोई नही है। फिर आखिर ये लोग यहाँ क्यों है? कैसे इनके बच्चो का, इनके परिवार का, इनके भाई बहनों का दिल भरता होगा कि इनको इस हाल में छोड़ रखा है। जहा दो वक्त की रोटी है, लोगो अकेलापन है। बीमार हो जाए तो सेवा करने वाले इसी आश्रम को चलाने वाले लोग है। न कोई अपना है और न कोई सगा। कैसे…….? आप भी सोचे और अगर आपको मेरा सवाल वाजिब लगे जिसका जवाब आपके पास हो तो मुझको ज़रूर बताये। या फिर कुछ ऐसा ही कि जिनके पास अल्लाह की ये नेमते है, उनको क़द्र ही नही और हमारे जैसे लोग जो यतीम हो चुके है वो तलाशते है इन नेमतो को दर-बदर।
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