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ज़िन्दगी वायलिन के धुनों और संगीत से बसर हुई, उम्मीद है आखरी सांसे भी वायलिन की धुन पर ही आये: कैसर पीड़ित वायलिन वादक अरविन्द पाण्डेय

तारिक़ आज़मी (फोटो: शाहीन बनारसी)

वाराणसी: काशी और संगीत एक दुसरे के पर्यायवाची है। संगीत कला काशी में प्राचीन काल से रही है। कई संगीत घराने काशी की पहचान रहे है। इन सबके बीच अगर काशी में मौसिकी के बीच वायलिन की बात चले और अरविन्द पाण्डेय का नाम न लिया जाए तो यह बेहुरमती होगी। मगर कई वर्षो से अरविन्द पाण्डेय संगीत के मंचो पर नज़र नही आ रहे। भूलने की खुसूसियत रखने वाली इस दुनिया में मौसिकी के दीवानों के अन्दर है एक खुसूसियत बस नही मिलती है। मौसिकी किसी का नाम और अपने लिए उसकी अहमियत को नही भूलती है।

पिछले काफी समय से मौसिकी में वायलिन के दरमियान अरविन्द पाण्डेय के शिष्यों का प्रदर्शन तो रहा है। मगर उनकी उपस्थिति नही दिखाई देने से थोडा दिल में बेचैनी महसूस होना बरहक़ है। इसी बेचैनी को दूर करने के लिए हमने अरविन्द पाण्डेय के सम्बन्ध में जानकारी करना चाह तो उनकी सेहत नासाज़ होने की जानकारी हमारे एक मित्र अरविन्द मिश्रा द्वारा प्रदान किया गया। अरविन्द मिश्रा भी मौसिकी के दीवाने है और शहर बनारस के एक चर्चित पत्रकार है। उनके और अरविन्द पाण्डेय के बीच पुरानी दोस्ती है। अरविन्द मिश्रा से वायलिन वादक उस्ताद अरविन्द पाण्डेय का नंबर लेकर उनसे संपर्क किया और गुजिस्ता रात का कुछ वक्त उनके साथ हमारा गुज़र हुआ।

कैसर से जद्दोजेहद कर रहे अरविन्द पाण्डेय की मौजूदा तकलीफ का हम अहसास तो कर सकते है। मगर उनके चेहरे का नूर और मीठी मुस्कराहट उनके इस बड़ी तकलीफ को दबाने में कामयाब दिखाई दी। रेक्टम कैंसर के फाइनल स्टेज से जूझ रहे अरविन्द पाण्डेय ने हमसे बातचीत के दरमियान अपने दर्द का बयान हमसे किया। मगर इस जुझारू संगीत के उस्ताद की हिम्मत को सलाम आप भी कर बैठेगे कि ऐसे सेहत के बावजूद भी कल 23 मई को सुन्दरपुर स्थित कैसर अस्पताल जहाँ से उनका इलाज चल रहा है, पर अपने शागिर्दों के साथ वह वायलन वादन का कार्यक्रम प्रस्तुत करेगे।

बनारस के मशहूर शिक्षक स्व0 यज्ञनारायण पाण्डेय के पुत्र अरविन्द पाण्डेय ने वर्ष 1998 में बीएचयु से एमए स्नातक (संगीत) से करने के बाद पीएचडी गोपाल दास मिश्रा के निर्देशन में शुरू किया था। मगर मुकद्दर में डॉ गोपाल दास मिश्रा का साथ बहुत दिनों तक नहीं नसीब था और उनके देहांत हो गया। जिसके बाद अरविन्द पाण्डेय ने पीएचडी छोड़ दिया और वायलन को ही अपनी जिंदगी और उसके तारो को अपनी सांसे बना लिया। एन राजन के शिष्य अरविन्द पाण्डेय वायलन में इतने ही निपुण है कि उनके हाथो में वायलन जाते ही उसके तार खुद-ब-खुद बजने लगते है। वायलन को शिक्षा का एक हिस्सा बनाते हुवे एक लम्बे समय तक अरविन्द पाण्डेय ने ‘द आर्यन इंटरनेशनल स्कूल’ में बतौर संगीत शिक्षक के तौर पर सेवा प्रदान किया।

राष्ट्रीय ही नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कई शागिर्दों को वायलन की बारीकियां सिखा कर उनके जीवन में संगीत भरने वाले अरविन्द पाण्डेय को वर्ष 2017 में रेक्टम कैंसर ग्रसित पाया गया। इस कैंसर से संघर्ष करते हुवे उन्होंने मुम्बई जाकर आपरेशन भी करवाया और स्वस्थ हो गए। मगर इस दरमियान प्राइवेट नौकरी छुट चुकी थी। सब कुछ सामान्य होने को था कि वर्ष 2020 के कोरोना काल में कैंसर ने दुबारा अपने पाँव पसार लिया। कोरोना काल और चिकित्सा सेवा का ठप होना किसी से छिपा नही है। आखिर जब चिकित्सा सेवा पुनः बहाल हुई तो डॉ अरविन्द पाण्डेय का कैसर ऐसी स्थिति में पहुच चूका था जहां आपरेशन और अन्य चिकित्सा अपने हाथ खडी कर चुकी थी।

अब विगत दो वर्षो से हर 20 दिनों पर ‘कीमो थेरेपी’ ही एक मात्र रास्ता बचा हुआ है। सरकारी इमदाद की बात करे तो एक संस्कारों और नियमो से बंधे शिक्षक की आर्थिक स्थिति क्या होती है किसी से छिपा नही है। वर्ष 2017 में हुवे आपरेशन का खर्च सभी जमा पुंजी समाप्त कर चूका था। परिवार में एक बेटा अभी शिक्षा ग्रहण कर रहा है और इसी वर्ष अव्वल नम्बरों के साथ स्नातक पास किया है वही बेटी ने कुल का नाम रोशन करते हुवे जेआरऍफ़ क्वालीफाई किया और वर्त्तमान में IIMS काशीपुर से पीएचडी कर रही है। पत्नी गृहणी है। ऐसे में आयुष्मान कार्ड कीमो जैसी महँगी दवाओं का खर्च वहां नही करता है। विगत वर्षो स्थानीय विधायक ने डॉ अरविन्द पाण्डेय को अपनी निधि से 3 लाख रुपया प्रदान किया। बेशक विधायक ने बड़ा दिल दिखाया जो अमूमन विधायक दिखाते ही नही है। मगर भाजपा विधायक ने यह सहयोग समस्त अडचनों के बावजूद भी किया।

यह सरकारी इमदाद के तौर पर मिली राशि ऐसे मर्ज़ में ऊंट के मुह में जीरा सरीखी ही है। हर 20 दिनों में लगभग 25 हज़ार की इन दवाओं के खर्च का बोझ किसी की भी आर्थिक कमर तोड़ने के लिए काफी है। मगर जज्बा तो अरविन्द पाण्डेय का है जिसको देख कर आप खुद इज्ज़त, अदब-ओ-एहतराम के साथ सलाम कर बैठेगे कि ऐसे स्वास्थ्य के बावजूद भी अरविन्द पाण्डेय आज भी वायलन बच्चो को सिखा रहे है। ‘हम न रहेगे, फिर भी रहेगी निशानियाँ’ शायद उनके बचे हुवे जीवन का उद्देश्य रह गया है।

महज़ 7 साल की तुषारिका सिंह ‘राव्या’ से लेकर कर न्यूयार्क से काशी दर्शन को आई अनिजुजेला तक को वायलन के गुर अरविन्द पाण्डेय ने सिखाये है। ‘राव्या’ शायद सबसे कम उम्र में वायलन सीखने वाली बच्ची है।

कल अरविन्द पाण्डेय कैसर हॉस्पिटल सुन्दरपुर में अपने शागिर्दों के साथ एक वायलन वादन कार्यक्रम की प्रस्तुति करने वाले है। उनकी ख्वाहिश है कि ज़िन्दगी की सांसे वायलन के धुन पर चली तो ख़त्म भी इसकी धुन पर हो। उन्होंने अपने शागिर्दों की तरफ इशारा करते हुवे मुस्कुराते हुवे कहा कि ‘मैं कल रहू, न रहू, मगर मेरी निशानियाँ तो रहेगी।’ हम रब से दुआ करते है कि ‘हे सर्वशक्तिमान, तू ही है जो इस पुरे ब्रह्माण्ड को चलाता है, तुझको कोई ईश्वर कहकर पुकारता है तो भगवान, कोई गॉड कहता है तो कोई रब्बुल आलमीन’ तू ही तो इस पुरे आलम का रब है। एक जिंदादिल इंसान अरविन्द पाण्डेय की तेरे इस धरती पर ज़रूरत है। तू चाहे तो क्या करिश्मा नही हो सकता है। एक करिश्मा दिखा दे और अरविन्द पाण्डेय को स्वस्थ कर दे मेरे रब।’

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