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स्वतंत्रता दिवस पर विशेष: ‘ए मेरे वतन के लोगो, ज़रा आँख में भर लो पानी’, आइये खुशियाँ झूम कर मनाये, मगर जश्न-ए-आज़ादी पर ध्यान रखे ‘ये आज़ादी हमे याद दिलाती है

तारिक़ आज़मी

कल हम अपने हुब्ब-ए-वतन हिन्दुस्तान की यौम-ए-आज़ादी का जश्न मना चुके है. हम खुश है। वैसे हम में से अधिकतर को ये आज़ादी वरासत में ही मिली है। मगर हमारे पुरखो ने इस आज़ादी को पाने के लिए जिस जद्दोजेहद का सामना किया है, उसको हम अब किताबो में एक चैप्टर के रूप में महज़ पढ़ते है। आज कल की नवजवान पीढ़ी तो बस उतना पढना चाहती है जितने से एग्जाम में पासिंग मार्क्स आ जाए।

मेरे वालिद मरहूम अक्सर हम भाई बहनों से बाते जब करते थे तो बड़े फख्र से अपने वालिद और दादा (यानी हमारे दादा और परदादा) द्वारा जंग-ए-आज़ादी के लिए किये गए संघर्षो को याद करके बताते थे। मैं जब समझदार हुआ और समझने की सलाहियत हमारे वैलिदैन और उस्तादैन ने दिया तो मैं ‘पापा’ की बातो को उतने गौर से नही सुनता था बल्कि उनके चेहरे पर उस फख्र का अहसास करता था जो उनको बताते वक्त होता था। बड़े ही फख्र से वह बताते थे कि कैसे मेरे दादा ने जंग-ए-आज़ादी में अपनी भूमिका निभाया और कैसे मेरे परदादा ने निभाया।

अपने वालिदैन से जंग-ए-आज़ादी के किस्से किताबो से ज्यादा सुने। उनका अहसास किया। कह सकते है कि हम भाई बहनों से जब हमारे वालिदैन तस्किरा करते थे तो ऐसा लगता था जैसे सब कुछ सामने ही हो। जैसा पापा बताते थे कि उस वक्त उनकी उम्र 8-10 बरस थी। उन सबसे इस बात का तो अहसास है कि जिस आज़ादी को हमारी जेनरेशन ने तोहफे में पाया है, दरअसल उसके लिए हमारी पुरखो ने अपनी कुर्बानियां दिया है। अंग्रेजो के ज़ुल्म-ओ-सितम सहे है। मेरे मरहूम वालिदैन हमेशा हुब्ब-ए-वतन लफ्ज़ का इस्तेमाल करते थे। हुब्ब-ए-वतन यानी मादर-ए-वतन यानी मातृ भूमि। अपने इस प्यारे वतन की आज़ादी के लिए हमारे पुरखो के बलिदान को कल जश्न से पहले याद किया गया.

ये आज़ादी हमें याद दिलाती है, कि हमारे पूर्वजो ने उन ज़ालिम अंग्रेजो से मुकाबला कर के आज़ादी तो ले लिया है। मगर आज भी हम उनके फैलाए हुवे नफरत से बाहर नही निकल पाए है। इसलिए 1857 की आज़ादी की पहली जंग के बाद अंग्रेजो ने “Divide and Rule” की पॉलिसी अपना कर हमें आपस मे लड़वाने की साज़िश रची। ये साजिश ऐसी थी कि आज हम आज़ाद तो है मगर उन अग्रेजो के फैलाए हुवे ‘फुट डालो’ के कैद से आज़ाद नही हो पाए है। आज भी हमको “आज़ाद” को याद करके वह नीम का पेड़ और सायकल ज़रूर तलाशना चाहिए जो “आज़ाद” के आखरी लम्हों में साथ थी।

हम जश्न-ए-आज़ादी मना रहे है। एक दिन पहले ही से कुछ लोगो ने आज ‘ड्राई डे’ पर गला तर करने के लिए इंतज़ाम कर लिया होगा। कल कुछ का जश्न इसके साथ भी मना हुआ होगा। कुछ ऐसे भी होंगे जो ‘लांग ड्राइव’ पर गये होंगे। कई ऐसे भी रहे होंगे जिन्होंने इस आज़ादी के जश्न को नफरतो से मनाया। तकसीम करेगे आज़ादी को, तो आज़ादी के मायने बहुत कुछ बतायेगे। नही मानते आप तो कोई मुझको वह तस्वीर दे देना भाई जब जलते मणिपुर में तिरंगा यात्रा में कुकी और मैंतेई दोनों समुदाय के लोग एक साथ चल रहे हो।

दोस्तों जब तक हम आपस मे लड़ते रहे, तब तक आज़ाद संवैधानिक रूप से तो है। मगर हमारी सोच आज भी अंग्रेजो द्वारा फैलाए गए ‘डिवाइड एंड रूल’ की निगहबानी कर रही होगी। आज़ाद हम तब हुए जब हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सबने मिल कर अंग्रेजो को धक्के देकर खदेड़ डाला। हम आज़ाद तब हुवे जब सभी धर्म, सभी सम्प्रदाय, सही भारतीयों ने एक दुसरे के कंधे से कन्धा मिला कर कोशिश किया। हमको आज़ादी तब मिली थी, ऐसे नही मिली थी कि धर्म सम्प्रदाय अलग अलग आपस में लड़ते रहे।

सियासत आवाम को अवाम के कौम और मज़हब के नाम दिखाती है कि कही इनसे ध्यान हटा तो आप बुनियादी मुद्दों पर बाते न करने लग जाये। क्या ये वक्त नहीं है दोस्तों कि हम जंग ए आज़ादी से सबक लें, और आने वाली नस्लों को एक बेहतर हिन्दोस्तान देने के लिए आज आपस के झगड़े खत्म कर के ज़ुल्म और नाइन्साफी के खिलाफ एक आवाज बन जाएं। इतिहास बड़े काम की चीज है दोस्तों, अगर हम उससे सबक लेकर गलत दिशाओं मे उठते अपने कदमों को रोक लें तो जरुर हमारा देश सोने की चिड़िया फिर से हो जायेगा। अब एक धक्का और देकर नफरतो की दीवार को तोड़ने का वक्त है। वरना हमारी नस्ले हमको तो माफ़ नही करेगी।

सोचे आप मणिपुर में जिस तरीके से हिंसा जारी है। मैतेई और कुकी समुदाय के बीच इलाकों में सेना बफर ज़ोन बना कर बैठी है। सेना पर पुलिस ऍफ़आईआर कर रही है। क्या ऐसे में मणिपुर और नोआखाली में कोई फर्क आपको समझ आता है। मुझको तो नही समझ आता है। नोआखली में भी ऐसे ही दहशत में हिन्दू समुदाय था। उस वक्त गांधी जी खुद नोआखाली गए थे और एक एक गाँव का पैदल दौरा किया था। आज हम कहा से गांधी लाये? बापू को तो गोडसे की तीन गोलियों ने मार दिया। यही नही हमारी नफरतो ने उनके विचारो पर भी पहरा लगा दिया है। फिर कहा आये मणिपुर में शांति।

मैंने कहा इतिहास से सीख मिलती है कि हम वैसी गलती दुबारा न करे। चलिए कुछ एतिहासिक उदहारण देता हु। पृथ्वीराज चौहान ने तराईन मैदान में दुश्मनों से खुद को जब घिरा देखा होगा तो वही से कुछ दूर खडा होकर जयचंद ये सोच कर मुस्कुरा रहा होगा कि ‘मरने दो पृथ्वीराज को, बड़ा गर्व में रहता था।’ मगर जयचंद ने क्या उस वक्त सोचा था कि पृथ्वीराज के गर्दन पर चलने वाले तलवार का रुख महज़ दो साल में उसके गर्दन के जानिब होगा? नही सोचा होगा। दूसरा उदाहरण चंगेज़ खान का है। चंगेज़ खान के इस घटना को अरब इतिहासकार इब्न-अल-अथिर (1160-1234) के किताब में वर्णन मिल जायेगा।

चंगेज़ खान ने बुखारा में डेरा डाल रखा था। मगर बुखारा को फतह करना आसान नही था। तो एक शातिराना चाल के तहत बुखारा में सन्देश भेज दिया कि जो लोग हमारा समर्थन करेगे हम उनकी जान बख्स देंगे। चंगेज़ खान के इस सन्देश पर बुखारा दो हिस्सों में तकसीम हुआ और कुछ चंगेज़ खान की बात मानने में भलाई समझ रहे थे। तो कुछ उसके मुखालिफ थे। इसके बाद चंगेज़ खान ने दूसरा सन्देश भेजा कि जो हमारे समर्थक है हम राज उनके हवाले करके लौट जायेगे। फिर क्या था समर्थको ने चंगेज़ खान के विरोधियो पर हमले शुरू कर दिए। जंग में तब्दील हुवे इन हमलो में हार चंगेज़ खान के विरोधियो की हुई।

इसकी जानकारी मिलते ही चंगेज़ खान ने बुखारा पर हमला कर दिया। उसने कहा कि जो लोग अपने वतनी भाइयो के नही हुवे वह हमारे कैसे होंगे। बुखारा में चंगेज़ खाना के समर्थको को भी चंगेज़ खान की तलवारों ने न छोड़ा। अब आप सोचे आपस में लड़कर फायदा किसको हुआ? कौन मुफाद में रहा ? सोचिये और सोच समझ कर जवाब दीजिये। आज़ादी महज़ तीन थके हुवे रंगों का नाम नही है जिसको एक पहिया ढोता है, दरअसल इसका कुछ और ही मतलब होता है।

जय हिन्द

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