तारिक़ आज़मी
अमूमन रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में 18 घंटे काम के बाद जिस्म में इतनी कुवत नही बचती कि उगते सूरज को अलविदा कहकर दो रोटी मुकद्दर की खाकर कुछ देर और जाग सकू। बीती रात या फिर कहे आज की सुबह भी कुछ ऐसी ही थी। 4-5 घंटो की नींद की ख्वाहिश लिए जिस्म तो टूट चूका था। मगर निगाहों में उस मासूम का चेहरा था जिसको स्कूल में उसके साथी ही नफरती शिक्षिका के कहने पर थप्पड़ मार रहे थे।
यही नही उन्होंने बताया कि ‘इस कृत्य के चलते आरोपी पर आईपीसी की धारा 153A के तहत केस दर्ज किया जा सकता है। इस धारा के मुताबिक कोई व्यक्ति या समूह धर्म और जाति के आधार पर धार्मिक स्थानों पर आपसी तनाव बनाने की कोशिश करता है या समाज में अशांति फैलाने के लिए लोगों के बीच धर्म, जाति के नाम पर शत्रुता बढ़ाने का काम करता है तो उसके खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है।’
मासूम बच्चे के रोते हुवे उस चेहरे में मुझको उस 4-5 घंटे की नींद में सोने न दिया। करवटे बदलते हुवे पूरा वक्त गुज़र गया। एसी की ठंडक भी दिल को सुकून न दे रही थी। अजीब बेचैनी थी। मुझको उन बच्चों में अपने मुस्तकबिल दिखाई दे रहे थे। मेरे खुद के बच्चे दिखाई दे रहे थे। उस नफरती शिक्षिका ने उस बच्चे को थप्पड़ शायद इसीलिए तो मरवाया था कि वह मुसलमान था। मैं भी मुसलमान हु। मेरे भी बच्चे है। खता अगर वो करे तो शिक्षिका अथवा शिक्षक को डांटने तथा मारने का पूरा अख्रियार मैंने दे रखा है। मगर क्या सिर्फ इस लिए बच्चो को मारा पीटा जाए कि वह मुसलमान है?
दुष्यंत का एक शेर मेरे ज़ेहन को झकझोर रहा है। कलम उठाने को मजबूर कर रहा है। शेर है कि ‘मुड के देखेगी हिकारत से मुझे तारीख कल, मेरी पीढ़ी में किसी फड पर कोई चेहरा न था।’ बेशक ऐसा ही होगा क्योकि अमृतकला के इस नफरत को आने वाला वक्त तो गुनाह के तौर पर ज़रूर लिखेगा। फिर रामधारी सिंह दिनकर की वह बाते भी सच हो जायेगी जो उन्होंने कहा था कि ‘समर शेष है नही पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ है समय लिखेगा उनका भी अपराध।’ तो बेशक वक्त के लिखे उस गुनाह में मैं शुमार तो नही रहूँगा। अपनी कुवत भर ऐसे कर्मो के खिलाफ लिखता रहूँगा। ‘मैं जाहिद-ए-कलम झूठा कोई मंजर न लिखूंगा, शीशे की खता होगी तो पत्थर न लिखूंगा।’
ये तृप्ति त्यागी सिर्फ उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के नेहा पब्लिक स्कूल में ही थोड़ी न है जो केवल बच्चे को उसके सहपाठियों से थप्पड़ इसलिए मरवाये कि बच्चे के पिता का नाम इरशाद है। यानी वह मुस्लिम है। ऐसी तृप्ति त्यागी हर गली नुक्कड़ पर चार मिल जायेगे। फर्क इतना है कि वह मर्दाना भेष में हो सकते है या फिर महिला के भेष में। सोशल मीडिया पर एक वीडियो देखा था जिसमे एक युवती ‘गदर-2’ को सिर्फ इसलिए पसंद कर रही थी कि उसको ‘मुहमडन के चेहरे पर खौफ’ दिखाई दिया था। वह भी एक तृप्ति त्यागी है जिसको मुस्लिम समाज डरा सहमा चाहिए।
अब इरशाद की मज़बूरी समझे, उसको भी सही यकीन है कि इन्साफ मिलेगा ही नही तो फिर शिकायत कहा करू? मैं भी एक मुसलमान के तौर पर इसका अहसास तो करता ही हु। ‘अपने क़त्ल की शिकायत जाकर करू मैं किस्से, यहाँ तो हाकिम ही वही है, जो है कातिल मेरे।’ इरशाद अपने बेटे को अब स्कूल नहीं भेजना चाहते। तृप्ति त्यागी का सपना भी पूरा हो गया ‘अब्दुल पंचर वाला’। यानी ऐसे नफरती लोगो को मुस्लिम पढ़े लिखे नही बल्कि पंचर बनाते हुवे देखने में सुकून मिलता है। सवाल ये उठता है कि इरशाद फिर, अपने बेटे को देश के किस स्कूल में भेजें, जहां धर्म के आधार पर विभाजनकारी सोच न हो ?
उस बच्चे की विचारधारा इस देश, लोकतंत्र और गरिमा, बराबरी और धार्मिक स्वतंत्रता की बड़ी बात करने वाले और संविधान के प्रति कैसी होगी, जिसकी आत्मा को सरेआम थप्पड़ो के ज़रिये कुचल दिया गया हो? आप घर से बाहर निकलें। पाएंगे कि हर तीसरे दिमाग में यह ज़हर भरा है। सच बात मान ले हुजुर कि अमृतकाल की यह महज़ एक घटना नहीं है, एक विचारधारा है और ‘मज़हब नही सिखाता आपस में बैर रखना’ के विचारधारा की करारी हार है। 1857 से 1947 तक जिस एकजुटता के साथ हमने ब्रिटिश हुकूमत से जंग लड़ी, वह विचारधारा तो गांधी के साथ ख़त्म हो गई। गोडसे की तीन गोलियों ने गांधी को मारा था, उनकी विचारधारा जिंदा थी जिसको नफरत के सौदागरों ने बीच सड़क पर अपनी बोलियों से मार डाला।
सवाल कौन पूछेगा कि ‘गाल पर मजहबी नफ़रत का थप्पड़ खाते उस बच्चे का क्या भविष्य है?’ एकदम न पूछना वर्ना इस सच का भी झूठा रियलिटी चेक हो जायेगा। एक रास्ता है उस मासूम बच्चे के लिए कि वह सब–कुछ भूल जाये और डरकर, दुबककर, चुपचाप किसी मदरसे की आड़ ले ले। क्योकि उस बच्चे के गाल पर पड़ता थप्पड़ मेरी निगाहों में भारत की आत्मा पर थप्पड़ है। आप सिर्फ तसव्वुर करके दहशत में आ सकते है कि अगर वह शिक्षिका, नफरत की देवी, का नाम तृप्ति त्यागी की जगह तृप्ति परवीन होता तो? अब तक पुरे प्रदेश की फ़ोर्स उसको तलाश रही होती। हिन्दूवादी संगठन हंगामा कर देते। क्रांति आ जाती, संगीन धाराओं में पुलिस मुकदमा स्वतः संज्ञान के दर्ज कर लेती। उसके घर पर सुबह सुबह बुलडोज़र पहुच जाता। सब कुछ ज़मीदोज़ हो जाता।
नींद मेरी आँखों से कोसो दूर है। एक लम्हा नही सोया हूँ। नवीन चोगे ने मोब लीचिंग पर एक कविता लिखा था। उसकी चंद लाइन मेरे ज़ेहन से आज उतर ही नही रही है। आपको सुनाता हु कि ‘एक सडक पर खून है, तारीख कोई जून है, एक उंगली है पड़ी और उस पे जो नाख़ून है, नाख़ून पर है एक निशा, कौन होगा हुक्मरा,जब चुन रही थी उंगलिया, ये ऊँगली भी तब थी वह।’ ऐसा ही निशाँ नाख़ून पर मेरे भी है और उस मासूम में माँ-बाप को भी होगा। फिर अमृतकाल में इस नफरत का गुनाहगार कौन?
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