तारिक़ आज़मी
डेस्क: भारत ने संयुक्त राष्ट्र में इसराइल के खिलाफ पेश एक प्रस्ताव के पक्ष में अपना मतदान किया है। संयुक्त राष्ट्र में पिछले सप्ताह एक निंदा प्रस्ताव पेश किया गया था जिसमे इसराइल द्वारा फलिस्तीनी क्षेत्र में इसराइली बस्तियों की निंदा किया गया था। इस प्रस्ताव के समर्थन में भारत ने अपना मत दिया और इसराइल की मुखालफत किया है।
यहाँ एक दिलचस्प मुद्दा ये है कि भारत ने हमास इसराइल जंग के बाद से पहली बार इसराइल के खिलाफ वोट दिया है। इसराइल के खिलाफ बांग्लादेश, भूटान, चीन, फ़्रांस, जापान, मलेशिया, मालदीव, रूस, दक्षिण अफ्रीका, श्रीलंका, ब्रिटेन आदि थे। अंग्रेज़ी अख़बार द हिन्दू ने भारत के अधिकारियों से हुई बातचीत के आधार पर लिखा है कि उससे अधिकारियों ने बताया कि यूएन में इसराइल पर भारत के रुख़ में कोई बदलाव नहीं आया है। उस अधिकारी ने कहा कि यूएन में इसराइल को लेकर हर साल इस तरह के प्रस्ताव आते हैं और भारत के रुख़ में कोई परिवर्तन नहीं आया है।
सबसे दिलचस्प बात ये ये रही कि ट्रूडो के मनमाने नेतृत्व वाले कनाडा को छोड़ दें तो अमेरिका को सारे सहयोगियों ने उसको अकेला छोड़ दिया। अब कनाडा के ट्रूडो की बात करे तो जो शख्स भारत के मामले में नियम आधारित व्यवस्था की बात कर रहा है वही फ़लस्तीनी क्षेत्र में इसराइली कब्ज़े का समर्थन कर रहे हैं। मतलब यही हुआ कि खुद के बाहर बात गई तो नियम उठा कर ताख पर रख दिया और भारत के मामले में नियमो की बात करते है। इसको दोहरी मानसिकता भी कहा जा सकता है।
इस प्रस्ताव पर इसराइल ने एक अपील जारी किया था। अपील जारी करते हुवे इसराइल ने कहा था कि ‘हम आप सभी से अपील करते हैं कि इस प्रस्ताव के ख़िलाफ़ वोट करें। सात अक्टूबर को हमास के आतंकवादी हमले के बावजूद प्रस्ताव में इसका ज़िक्र नहीं किया गया है। हमास के युद्ध अपराध का कोई ज़िक्र नहीं है। ऐसे में इसराइल सभी देशों से इस प्रस्ताव के विरोध में वोट करने की अपील करता है।’ मगर भारत ने इस अपील को नज़रंदाज़ करते हुवे प्रस्ताव के समर्थन में मतदान कर एक बार फिर अपने पुराने रुख को साबित किया है जो रुख पहले भी भारत का फलिस्तीन के समर्थन में था।
26 अक्टूबर को यूएन में इसराइल के गज़ा पर जारी हमले को लेकर आपातकालीन सत्र बुलाया गया था और भारत ने युद्धविराम के प्रस्ताव पर वोट नहीं किया था। हालांकि भारत ने इसका विरोध भी नही किया था और मतदान से खुद अलग रहा। उस समय भारत के इस रुख़ को इसराइल के पक्ष में माना गया था। भारत ने तब कहा था कि प्रस्ताव में सात अक्टूबर को इसराइली इलाक़े में हमास के हमले का संदर्भ नहीं था और भारत की नीति आतंकवाद को लेकर ज़ीरो टॉलरेंस की रही है। यूएन में 26 अक्टूबर की वोटिंग के बाद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अरब और खाड़ी के देशों के कई नेताओं से बात की है। इस बातचीत में पीएम मोदी से अरब के नेताओं ने फ़लस्तीनियों के पक्ष में खड़े होने की अपील की थी। इनमें ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी, यूएई के राष्ट्रपपति शेख़ मोहम्मद बिन ज़ायद अल नाह्यान और मिस्र के राष्ट्रपति अब्दुल फ़तह अल-सीसी शामिल थे।
अमेरिका और यूके में भारत के राजदूत रहे नवतेज सरना ने इंडो-अमेरिका फ़्रेंडशिप एसोसिएशन की ओर सोमवार को आयोजित एक चर्चा में कहा था कि, ‘भारत का रुख़ पूरी तरह से राष्ट्रहित में है और पूरी तरह से यथार्थवादी है। अगर हम अरब के देशों को भी देखें तो वहाँ से भी फ़लस्तीनियों के समर्थन में कोई मज़बूत प्रतिक्रिया नहीं आई है। भारत का रुख़ एक अहम संकेत है कि हम कहाँ खड़े हैं। हम द्वि-राष्ट्र समाधान के सिद्धांत के साथ इसराइल के साथ खड़े हैं।’ संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि रहे टीएस तिरूमूर्ति ने इसराइल-हमास की जंग पर भारत के रुख़ को लेकर 31 अक्टूबर को अंग्रेज़ी अख़बार ‘द हिन्दू’ में भारत के रुख़ को लेकर लिखा था कि भारत ने हमेशा से इसराइल-फ़लस्तीन संकट का समाधान द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत में देखा है। इसराइल के भीतर आतंकवादी हमले से भारत का चिंतित होना भी लाजिमी है।
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