शाहीन बनारसी
डेस्क: ‘बुझ जाए वो शमा तो क्या गम है ‘शाहीन’, उस जलते चिराग ने बुझ कर भी उजाला तो कर दिया।’ मुल्क की खिदमत करते करते बुझ जाने की तमन्ना करने वाले बुझ तो जाते है मगर इस दुनिया-ए-फानी में उनका नाम घुप सियाह अँधेरे में चराग-ए-सुखन हो जाता है। ऐसी ही एक शख्सियत है खान अब्दुल गफ्फार खान जिन्हें लोग सीमान्त गांधी के नाम से जानते है।
ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान का जन्म 6 फ़रवरी, 1890 को पेशावर, तत्कालीन ब्रिटिश भारत वर्तमान पाकिस्तान में हुआ था। उनके परदादा ‘अब्दुल्ला ख़ान’ बहुत ही सत्यवादी और जुझारू स्वभाव के थे। उनके पिता ‘बैरम ख़ान’ शांत स्वभाव के थे और ईश्वरभक्ति में लीन रहा करते थे। उन्होंने अपने लड़के अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को इल्म हासिल करने के लिए ‘मिशनरी स्कूल’ में भेजा, पठानों ने उनका बड़ा विरोध किया। मिशनरी स्कूल की पढ़ाई खत्म करने के बाद वे अलीगढ़ आ गए। गर्मी की छुट्टियों में समाजसेवा करना उनका मुख्य काम था। पढाई पूरी कर वह मुल्क की खिदमत में लग गए।
विनम्र ग़फ़्फ़ार ने सदैव स्वयं को एक ‘स्वतंत्रता संघर्ष का सैनिक’ मात्र कहा, परन्तु उनके प्रसंशकों ने उन्हें ‘बादशाह ख़ान’ कह कर पुकारा। गांधी जी भी उन्हें ऐसे ही सम्बोधित करते थे। राष्ट्रीय आन्दोलनों में भाग लेकर उन्होंने कई बार जेलों में घोर यातनायें झेली हैं। फिर भी वे अपनी मूल संस्कृति से विमुख नहीं हुए। इसी वज़ह से वह भारत के प्रति अत्यधिक स्नेह भाव रखते थे।
ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को वर्ष 1987 में भारत सरकार की ओर से भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया। सन 1988 में पाकिस्तान सरकार ने उन्हें पेशावर में उनके घर में नज़रबंद कर दिया गया। 20 जनवरी, 1988 को उनकी मृत्यु हो गयी और उनकी अंतिम इच्छानुसार उन्हें जलालाबाद अफ़ग़ानिस्तान में दफ़नाया गया। गफ्फार खान महिला अधिकारों और अहिंसा के पुरजोर समर्थक थे। उन्हें एक ऐसे समाज से भी घोर सम्मान और प्रतिष्ठा मिली जो अपने ‘लड़ाकू’ प्रवित्ति के लिए जाना जाता था। उन्होंने ताउम्र अहिंसा में अपना विश्वास कायम रखा। उनके इन सिद्धांतों के कारण भारत में उन्हें ‘फ्रंटियर गाँधी’ या सीमांत गांधी के नाम से पुकारा जाता है।
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