डॉ मो0 आरिफ
साहिर लुधियानवी कोई साधारण फिल्मी शायर नहीं वल्कि प्रगतिशीलता और समाजवादी विचारधारा के अलम्बरदार किरदार हैं। 59 साल की कम उम्र में अपनी मृत्यु के समय वे कैरियर के ऊंचे पायदान पर थे।उनका नेहरूवियन और समाजवादी होना जग जाहिर हो चुका था।उनके गीत इंक़लाब और बदलाव के गीत बन चुके थे,जिन्हें आज भी यदा-कदा इंक़लाबी जलसों में सुना जा सकता है।
गुरूदत की फिल्म प्यासा साहिर के सिने कैरियर की अहम फिल्म साबित हुई।मुंबई के मिनर्वा टाकीज में जब यह फिल्म दिखाई जा रही थी तब जैसे ही साहिर का लिखा क्रान्तिकारी गीत “जिन्हें नाज है हिन्द पर वो कहाँ हैं ” बजा तब दर्शक अपनी सीट से उठ खडे हुए और गाने की समाप्ति तक तालियां बजाते रहे।बाद में दर्शकों की मांग पर इसे तीन बार बजाया गया।फिल्म इण्डस्ट्री के इतिहास में शायद ये पहली बार हुआ।
तीन दशक से ज्यादा वर्षों तक हिन्दी सिनेमा को अपने इंक़लाबी गीतों से आंदोलित करने वाले साहिर 59 साल की उम्र में 25 अक्टूबर 1980 में इस दुनिया को अलविदा कह गए।
साहिर के कुछ महत्वपूर्ण गीत दर्शनीय है—–
साहिर लुधियानवी और मेरे वालिद अच्छे दोस्तों में थे।इसलिए उनसे मिलने का गाहे ब गाहे मौका मिलता रहता था।बम्बई जाने पर तो मुलाकात लाज़िम ही थी। लोग उनसे शाम में मिलने आते पर हमारे लिए हुक्म होता कि दोपहर शुरू होने के पहले ही आना यानी लगभग 11बजे दिन के आसपास।वजह होती शाम का उनका अपनी महफ़िल में बिजी होना और दोपहर का हमें खाना खिलाना। मेरे वालिद शायद ऐसे शख्स थे जो इन जैसी तमाम नामचीन हस्तियों को एक साथ बैठ-बैठा सकते थे।
मुझे 1973 की एक घटना याद है।मेरे बड़े भाई की शादी का वलीमा (Reception)था और साहिर लुधियानवी मेरे गरीबखाने पर तशरीफ़ फरमा थे।उस वक़्त फोटोग्राफी का रिवाज गांव में न के बराबर था।साहिर साहब बार बार कहते सिनेमा में रहने की वजह से बिना फोटोशूट के कोई जश्न समझ में ही नही आता।बम्बई पहुंचते ही उन्होंने एक कोडक कैमरा भेजा जो काफी दिनों तक हमारा कीमती सरमाया बना रहा। गांव में उनकी बेतरतीब जीवनशैली (बम्बइया)से मेरी अम्मा को अपने घरेलू रूटीन में बदलाव लाना पड़ता था जो उन्हें नागवार गुजरता था।लेकिन मेहमान नवाजी में कोई कमी नहीं करती थी।अम्मा कहती कि ई मट्टीमिला तो मज़रुह से ठीक है। ऊ तो दिन रात सुबह कुछ नही देखते और शुरू हो जाते हैं पर ई तो आसपास वालों का भी लिहाज रखते है। कहने की जरूरत नहीं कि मेरी अम्मा बात बात में मट्टी मिला लफ्ज़ का इस्तेमाल भी करती थीं।
अनेक बार मैं उनसे बम्बई में मिला।वे दुबारा 1979 में मेरे गाँव आये।सम्भवतः जनतापार्टी की सरकार थी।मेरे वालिद गाँधीयन के साथ-साथ नेहरूवियन भी थे।नेहरू साहिर की भी पसन्द थे।तब तक मैं गांधी-नेहरू को लेकर बहुत उत्साहित नहीं रहता था।शेरो-शायरी के साथ-साथ सियासत की बातें होती।उसी वक़्त मैंने पहली बार साहिर की लिखी हुई नेहरू पर नज़्म सुनीं।दिन में दर्जनों बार साहिर लुधियानवी इसे पढ़ते और मेरे वालिद ग़मज़दा होकर इसे सुनते।हम लोग इसे उस वक़्त पागलपन करार देते।आज समझ मे आया कि उस पीढ़ी को नेहरू क्यों इतने महबूब थे।
ये वही नज़्म है जिसे नेहरू की मौत पर साहिर ने लिखा था—–
उनसे मिलने पर आत्मीयता का एहसास होता।हम लोग उन्हें अंकल कहते।जब भी मिलते गांव का हाल पूछते और सबसे मजेदार बात अम्मा की बकरी का भी हाल चाल लेते।बकरी को ऐसे तमाम नामचीन लोगों के दामन कुतरने का मेडल हासिल था।पर क्या मजाल कोई बकरी पर रोब ग़ालिब कर सके।अम्मा की नाराजगी का डर बहुत महंगा पड़ सकता था। 25 अक्टूबर 1980 को वो इस दुनिया ए फ़ानी को अलविदा कर गए पर जाते-जाते मेरे पोस्ट ग्रेजुएशन करने की खुशी में एक कोट तोहफे में सिला गए।
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