तारिक आज़मी
डेस्क: आज 15 नवम्बर को जब पूरा देश देव दीपावली मना रहा है, वही प्रबुद्धजन झारखण्ड की सबसे सम्मानित शख्सियत बिरसा मुंडा की जयंती मना रहे है। बिरसा मुंडा जिन्होंने महज़ 25 साल की उम्र में अंग्रेजो के दांत खट्टे कर दिए और अँगरेज़ हुकूमत को घुटनों के बल झुका कर आदिवासियों को उनका अधिकार दिया। बिरसा मुंडा ने अंग्रेजो के खिलाफ लड़ाई तब शुरू किया था जब वो 25 साल के भी नहीं हुए थे। उनका जन्म 15 नवंबर, 1875 को मुंडा जनजाति में हुआ था।
उन्होंने पुलिस स्टेशनों और ज़मींदारों की संपत्ति पर हमला करना शुरू कर दिया था। कई जगहों पर ब्रिटिश झंडे यूनियन जैक को उतारकर उसकी जगह सफ़ेद झंडा लगाया जाने लगा जो मुंडा राज का प्रतीक था। अंग्रेज़ सरकार ने उस समय बिरसा पर 500 रुपए का इनाम रखा था जो उस ज़माने में बड़ी रक़म हुआ करती थी। बिरसा को पहली बार 24 अगस्त 1895 को गिरफ़्तार किया गया था। उनको दो साल की सज़ा हुई थी। जब दो साल बाद उन्हें छोड़ा गया था तो वो भूमिगत हो गए थे और अंग्रेज़ों के खिलाफ़ आंदोलन करने के लिए उन्होंने अपने लोगों के साथ गुप्त बैठकें शुरू कर दी थीं।
बिरसा मुंडा से कहीं पहले सन् 1858 से अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ सरदार आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी। उसका उद्देश्य था ज़मीदारों और बँधुआ मज़दूरी को समाप्त करना। उसी दौरान राँची के पास सिलागेन गाँव में बुद्धू भगत ने आदिवासियों को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ संगठित किया था। उन्होंने क़रीब 50 आदिवासियों को जमा किया था जिनके हाथ में हमेशा तीर कमान हुआ करते थे। उनका नारा था ‘अबुआ दिसोम रे, अबुआ राज’ यानी ये हमारा देश है और हम इस पर राज करेंगे। जब भी कोई ज़मींदार या पुलिस अफ़सर लोगों पर ज़्यादती करता पाया जाता था, बुद्धू अपने दल के साथ पहुंच कर उसके घर पर हमला बोल देते थे।
तुहिन सिन्हा और अंकिता वर्मा अपनी किताब ‘द लीजेंड ऑफ़ बिरसा मुंडा’ में लिखते हैं, ‘एक बार एक मुहिम पर जाने से पहले बुद्धू और उनके साथियों ने तय किया कि वो शिव मंदिर में पूजा करेंगे। जब वो मंदिर के पास पहुंचे तो वो अंदर से बंद था। वो अभी सोच ही रहे थे कि क्या किया जाए अचानक 20 पुलिसवाले मंदिर के अंदर से निकले, इसके बाद मुठभेड़ शुरू हो गई जिसमें बुद्धू समेत 12 आदिवासी मारे गए और बाकी लोगों को बंदी बना लिया गया।’ बताया जाता है कि दस गोलियाँ लगने के बावजूद बुद्धू ने मरते-मरते कहा, ‘आज तुम्हारी जीत हुई है, लेकिन ये तो अभी शुरुआत है। एक दिन हमारा ‘उलगुलान’ तुम्हें हमारी ज़मीन से बाहर फेंक देगा।’
सन् 1900 आते-आते बिरसा का संघर्ष छोटानागपुर के 550 वर्ग किलोमीटर इलाके में फैल चुका था। सन 1899 में उन्हें अपने संघर्ष को और विस्तार दे दिया था। उसी साल 89 ज़मीदारों के घरों में आग लगाई गई थी। आदिवासी विद्रोह इतना बढ़ गया था कि राँची के ज़िला कलेक्टर को सेना की मदद माँगने के लिए मजबूर होना पड़ा था। डोम्बारी पहाड़ी पर सेना और आदिवासियों की भिड़ंत हुई थी। केएस सिंह अपनी किताब में लिखते हैं, ‘जैसे ही आदिवासियों ने सैनिकों को देखा उन्होंने अपने तीर-कमान और तलवारें लहराना शुरू कर दीं। अंग्रेज़ों ने दुभाषिए के ज़रिए मुंडारी में उनसे हथियार डालने के लिए कहा। पहले तीन राउंड गोली चलाई गई। लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ। आदिवासियों को लगा कि बिरसा की भविष्यवाणी सच साबित हुई है कि अंग्रेज़ों की बंदूकें लकड़ी में और उनकी गोलियाँ पानी में बदल गई हैं।’
उन्होंने चिल्ला कर इस गोलीबारी का जवाब दिया। इसके बाद अंग्रेज़ों ने दो राउंड गोली चलाई। इस बार दो ‘बिरसैत’ मारे गए। तीसरा राउंड चलने पर तीन आदिवासी धराशायी हो गए। उनके गिरते ही अंग्रेज़ सैनिकों ने पहाड़ पर हमला बोल दिया। इससे पहले उन्होंने पहाड़ के दक्षिण में कुछ सैनिक भेज दिए ताकि वहाँ से आदिवासियों को बच निकलने से रोका जाए। केएस सिंह ने लिखा है, “इस मुठभेड़ में सैकड़ों आदिवासियों की मौत हुई थी और पहाड़ी पर शवों का ढेर लग गया था। गोलीबारी के बाद सुरक्षाबलों ने आदिवासियों के शव खाइयों में फेंक दिए थे और कई घायलों को ज़िंदा गाड़ दिया गया था। इस गोलीबारी के दौरान बिरसा भी वहां मौजूद थे, लेकिन वो किसी तरह वहाँ से बच निकलने में कामयाब हो गए। कहा जाता है कि इस गोलीबारी में क़रीब 400 आदिवासी मारे गए थे, लेकिन अंग्रेज़ पुलिस ने सिर्फ़ 11 लोगों के मारे जाने की पुष्टि की थी।
तीन मार्च को अंग्रेज़ पुलिस ने चक्रधरपुर के पास एक गाँव को घेर लिया था। बिरसा के नज़दीकी साथियों कोमटा, भरमी और मौएना को गिरफ़्तार कर लिया गया था। लेकिन बिरसा का कहीं अता-पता नहीं था। तभी एसपी रोश को एक झोंपड़ी दिखाई दी थी। तुहिन सिन्हा और अंकिता वर्मा लिखते हैं, ‘जब रोश ने अपनी संगीन से उस झोंपड़ी के दरवाज़े को धक्का देकर खोला था तो अंदर का दृश्य देख कर उनके होश उड़ गए थे। बिरसा मुंडा झोंपड़ी के बीचोंबीच पालथी मार कर बैठे हुए थे। उनके चेहरे पर अजीब सी मुस्कान थी। उन्होंने तुरंत खड़े होकर बिना कोई शब्द बोले इशारा किया था कि वो हथकड़ी पहनने के लिए तैयार हैं।’
रोश ने अपने सिपाही को बिरसा को हथकड़ी पहनाने का आदेश दिया। ये वो शख़्स था जिसने इस इलाके में अंग्रेज़ सरकार की नींव हिला कर रख दी थी। बिरसा को दूसरे रास्ते से राँची ले जाया गया ताकि लोगों को पता न चल सके कि उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया है। लेकिन जब बिरसा राँची जेल पहुंचे तो हज़ारों लोग उनकी एक झलक पाने के लिए वहाँ पहले से ही मौजूद थे। जेल में बिरसा को एकांत में रखा गया। तीन महीने तक उन्हें किसी से मिलने नहीं दिया गया। सिर्फ़ एक घंटे के लिए रोज़ उन्हें सूरज की रोशनी पाने के लिए अपनी कोठरी से बाहर निकाला जाता था।
एक दिन बिरसा जब सोकर उठे तो उन्हें तेज़ बुख़ार और पूरे शरीर में भयानक दर्द था। उनका गला भी इतना ख़राब हो चुका था कि उनके लिए एक घूंट पानी पीना भी असंभव हो गया था। कुछ दिनों में उन्हें ख़ून की उल्टियां शुरू हो गई थीं। 9 जून, 1900 को बिरसा ने सुबह 9 बजे दम तोड़ दिया। बाद में रांची जेल के अधीक्षक कैप्टन एंडरसन ने जांच समिति के सामने दिए बयान में कहा, “जब बिरसा के पार्थिव शरीर को कोठरी के बाहर लाया गया तो जेल में कोहराम मच गया। सभी बिरसैतों को बुलाकर बिरसा के शव को पहचानने के लिए कहा गया। लेकिन उन्होंने डर की वजह से ऐसा करने से इनकार कर दिया।
नौ जून की शाम साढ़े पाँच बजे शरीर का पोस्टमॉर्टम किया गया। उनके शरीर में बड़ी मात्रा में पानी पाया गया। उनकी छोटी आँत पूरी तरह से नष्ट हो चुकी थी। पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में उनकी मौत का कारण हैजा बताया गया। बिरसा के साथियों का मानना था कि उन्हें ज़हर दिया गया था, आख़िरी समय में जेल प्रशासन ने उन्हें मेडिकल सहायता नहीं दी, इससे इस आशंका को और बल मिला। अपने अंतिम क्षणों में बिरसा कुछ पलों के लिए होश में आए। उनके मुंह से शब्द निकले, ‘मैं सिर्फ़ एक शरीर नहीं हूँ। मैं मर नहीं सकता। उलगुलान (आंदोलन) जारी रहेगा।’ बिरसा की मृत्यु के साथ ही मुंडा आंदोलन शिथिल पड़ गया था, लेकिन उनकी मौत के आठ साल बाद अंग्रेज़ सरकार ने ‘छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट’ पारित किया जिसमें प्रावधान था कि आदिवासियों की भूमि को ग़ैर-आदिवासी नहीं ख़रीद नहीं सकते।
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