मो0 कुमेल
डेस्क: बुलडोज़र से किसी का आशियाना या घर तोड़ने से पहले सरकार या प्रशासन को क्या करना होगा, इसके बारे में सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को अहम दिशा-निर्देश दिए। सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की पीठ ने कहा है कि किसी व्यक्ति के घर या संपत्ति को महज़ इसलिए तोड़ना कि वह अपराधी है या उन पर अपराध के आरोप हैं, क़ानून के ख़िलाफ़ है। इस फ़ैसले में पीठ ने नोटिस देने, सुनवाई करने और तोड़फोड़ के आदेश जारी करने से जुड़े कई दिशा-निर्देश दिए हैं।
सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश में कहा गया है कि नोटिस में ये भी लिखना होगा कि कौन से क़ानून का उल्लंघन हुआ है। इस मामले में सुनवाई कब होगी। जब सुनवाई हो, तो उसका पूरा विवरण भी रिकॉर्ड करना होगा। इसमें कहा गया है कि सुनवाई करने के बाद अधिकारियों को आदेश में वजह भी बतानी होगी। इसमें ये भी देखना होगा कि किसी संपत्ति का एक हिस्सा ग़ैर क़ानूनी है या पूरी संपत्ति ही ग़ैर क़ानूनी है। अगर तोड़-फोड़ की जगह, जुर्माना या और कोई दंड दिया जा सकता है तो वह दिया जाएगा। अगर क़ानून में संपत्ति तोड़ने या गिराने के आदेश के ख़िलाफ़ कोर्ट में अपील करने का प्रावधान है तो उसका पालन किया जाना चाहिए।
इसके अलावा, सुनवाई के दौरान घर या संपत्ति ध्वस्त करने के कई मामलों में पीड़ितों का कहना था कि उन्हें जो नोटिस मिला, उसमें पहले की तारीख़ थी। कोर्ट ने इन स्थितियों से बचने के लिए भी निर्देश दिए हैं। जैसे- कलेक्टर को ईमेल करना, वेबसाइट पर सारे दस्तावेज़ों को नियमित तौर पर डालना वग़ैरह। कुछ याचिकाकर्ताओं का कहना था कि उन पर आरोप लगने या अपराध के तुरंत बाद ही उनकी संपत्ति को तोड़ा गया। अभी कोर्ट ने जो दिशा-निर्देश दिए हैं, उनके मुताबिक नोटिस और अंतिम आदेश, दोनों के बाद कम से कम 15 दिनों का समय होना चाहिए। अब उम्मीद की जानी चाहिए कि आगे से ऐसी चीज़ पर रोक लगेगी।
इन सब बातों की वजह से क़ानून के कई जानकारों का कहना है कि इस फ़ैसले से देश में ‘बुलडोज़र एक्शन’ के नाम पर होने वाली कार्रवाइयों पर असर पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण ने एक्स (ट्विटर) पर लिखा, ‘इस फ़ैसले से ‘बुलडोज़र जस्टिस’ पर रोक लगेगी।’ कोर्ट कई जनहित याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा था। ये दिशा-निर्देश उसी के तहत आए हैं। ये याचिकाएँ जमीयत उलेमा-ए-हिंद जैसे कुछ संगठनों और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की नेता बृंदा करात और कुछ अन्य व्यक्तियों की ओर दायर की गई थीं।
कोर्ट के सामने कुछ ऐसे व्यक्ति भी थे जिनका कहना था कि उनकी संपत्ति को ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से तोड़ा गया है। इनके मामले अभी भी कोर्ट के सामने लंबित हैं। अब इस फ़ैसले से पहले के मामलों में कोर्ट को यह देखना होगा कि तोड़फोड़ में क़ानूनी प्रक्रिया का पालन हुआ था या नहीं। हर राज्य में निर्माण से जुड़े क़ानून हैं। इसमें किसी मकान को तोड़ने से पहले नोटिस देने, सुनवाई करने जैसी प्रक्रिया दी हुई है। कोर्ट को ये भी देखना होगा कि किसी कार्रवाई में इनका पालन हुआ था या नहीं।
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील सीयू सिंह कहते हैं, ‘इस फ़ैसले से बहुत सी चीज़ें बदलेंगी। इससे लंबित केस पर भी फ़र्क़ पड़ेगा।’ क़ानून के जानकारों के मुताबिक बुधवार के फ़ैसले में कोर्ट ने जिन सिद्धांतों की बात की है, उनका असर पहले के मामलों पर भी पड़ेगा। बुधवार को भी कोर्ट ने कहा कि बिना सोचे-समझे सरकार और अधिकारी तोड़ने की कार्रवाई नहीं कर सकते। अगर ऐसा होता है तो उन्हें जवाब देना होगा। ज़िम्मेदारी लेनी होगी। इस मामले में याचिकाकर्ताओं के वकीलों ने कहा था कि वही संपत्ति तोड़ी गई है, जिनका मालिक किसी मामले में अभियुक्त था। किसी अपराध में अभियुक्त बनाए जाने के ठीक बाद उनकी संपत्ति तोड़ी गई।
इस पर सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा था कि ये बस इत्तेफ़ाक़ की बात है कि जो ग़ैर क़ानूनी संपत्ति तोड़ी गई, वह किसी अभियुक्त की थी। इस पर कोर्ट का कहना था, ‘अचानक किसी संपत्ति को तोड़ा जाए और उसके अगल-बगल की एक जैसी इमारतों को कुछ न हो तो ऐसे में लगता है कि तोड़ने की कार्रवाई बुरे इरादे से की गई है। अगर ये दिखे कि किसी ढाँचे को गिराने के ठीक पहले उसके मालिक को किसी मामले में आरोपी बनाया गया है तो ये माना जा सकता है कि इस तोड़फोड़ का असली मक़सद बिना किसी कोर्ट के आदेश के आरोपी को सज़ा देना था। इस सूरत में अधिकारियों को ये साबित करना होगा कि उनका मक़सद ऐसा नहीं था।’
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