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अजमेर: ‘अढ़ाई दिन का झोपड़ा’ का क्या है इतिहास जिसको लेकर डिप्टी मेयर कर रहे मंदिर होने का दावा, आखिर क्यों हरविलास सारदा द्वारा लिखी किताब के प्रकाशन से एक सदी के बाद उठ रहे उसमे लिखे दावे

तारिक आज़मी

डेस्क: अजमेर की एक स्थानीय अदालत ने अजमेर शरीफ़ दरगाह के नीचे ‘मंदिर’ का दावा करने वाली याचिका को हाल ही में स्वीकार कर लिया था। दरगाह से कुछ ही दूरी पर स्थित ‘अढ़ाई दिन का झोपड़ा’ को लेकर अब अजमेर के डिप्टी मेयर ने दावा किया है कि इसकी जगह पहले ‘मंदिर और कॉलेज’ था। भारतीय जनता पार्टी के नेता और अजमेर के डिप्टी मेयर नीरज जैन का दावा है कि ‘अढ़ाई दिन का झोपड़ा’ की जगह पहले मंदिर और संस्कृत कॉलेज मौजूद था।

इस सम्बन्ध में बताते चले कि ‘अढ़ाई दिन का झोपड़ा’ भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसाई) द्वारा संरक्षित स्मारक है और अजमेर की दरगाह से 500 मीटर से भी कम की दूरी पर मौजूद है। अजमेर के डिप्टी मेयर नीरज जैन का दावा है कि नालंदा और तक्षशिला विश्विद्यालय की तर्ज़ पर पुरानी धरोहर को नष्ट करके ‘अढ़ाई दिन का झोपड़ा’ बनाया गया है। नीरज जैन का मीडिया से कहना है कि ‘जिसको आज तथाकथित अढ़ाई दिन का झोपड़ा बताया जाता है वो संस्कृत पाठशाला और मंदिर था। उस समय जो आक्रामणकारी भारत आए थे उन्होंने इस धरोहर को तहस-नहस करने के बाद वर्तमान संरचना को बनाया है। इस बात के सबूत वहां पर मौजूद हैं। आज अढ़ाई दिन का झोपड़ा में लगे खंभों में जगह-जगह पर देवी-देवताओं की मूर्तियां लगी हुई हैं। वहां पर स्वास्तिक और कमल के चिन्ह हैं और संस्कृत की लिखावट में कई श्लोक वगैरह भी लिखे हुए हैं।’

नीरज कहते हैं कि हमने अतीत में भी यह मांग की है कि यहां धार्मिक गतिविधियों पर पूरी तरह से रोक लगाई जाए। नीरज अपने दावे के पीछे हरबिलास सारदा की किताब को आधार मानते हैं और अजमेर शरीफ़ दरगाह मामले में याचिकाकर्ता विष्णु गुप्ता ने भी इसी किताब को आधार बनाया है। साल 1911 में हरबिलास सारदा ने ‘अजमेर: हिस्टोरिकल एंड डिस्क्रिप्टिव’ नाम से एक किताब लिखी थी। 206 पन्नों की इस किताब में कई टॉपिक शामिल हैं। किताब के सातवें चैप्टर में ‘अढ़ाई दिन का झोपड़ा’ नाम का चैप्टर है। इस चैप्टर में हरबिलास सारदा लिखते हैं, ‘जैन परंपरा के मुताबिक़, इस संरचना का निर्माण सेठ वीरमदेवा काला ने 660 ईस्वी में जैन त्योहार पंच कल्याणक मनाने के लिए एक जैन मंदिर के रूप में किया था। इसकी आधारशिला जैन भट्टारक श्री विश्वानंदजी ने रखी थी।’

हरबिलास सारदा इस किताब में दावा करते हैं कि इसके नाम से यह आम धारणा है कि इसे ढाई दिन में बनाया गया है जबकि इस संरचना को मस्जिद में बदलने में कई साल लगे थे।उन्होंने अपनी किताब में दावा किया है कि ‘यह मूल रूप से एक इमारत थी जिसका इस्तेमाल एक कॉलेज के रूप में किया जाता था। इसे एक वर्ग के रूप में बनाया गया था और हर तरफ की लंबाई 259 फ़ीट थी। इसके पश्चिमी भाग में एक ‘सरस्वती मंदिर’ (कॉलेज) था। इस कॉलेज का निर्माण लगभग साल 1153 में भारत के पहले चौहान सम्राट वीसलदेव द्वारा किया गया था। 1192 ई। में ग़ौर (वर्तमान अफ़ग़ानिस्तान का एक प्रांत) से आए अफ़ग़ानों ने मोहम्मद ग़ौरी के आदेश पर अजमेर पर हमला किया था और इस दौरान इस इमारत को भी क्षति पहुंचाई गई थी।’

हम स्पष्ट करते चले कि PNN24 न्यूज़ हरविलास सारदा कि लिखी पुस्तक में किये गए दावो का हम किसी भी प्रकार से समर्थन नही करते है। इस सम्बन्ध में  अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर और भारतीय इतिहास कांग्रेस के सचिव प्रोफ़ेसर सैय्यद अली नदीम रिज़वी इस बहस को तर्कहीन और आधारहीन मानते हुवे कहते हैं कि जब प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट, 1991 है तो इस तरह की बहस की क्या ज़रूरत है। उन्होंने कहा कि ‘बौद्धों के कई धार्मिक स्थल हिन्दू धर्म के मंदिर में बदल गए। जाने कितने जैन मंदिर हैं जो हिन्दू धर्म के मंदिरों में बदल गए। क्या आप हर एक को खोद-खोदकर उनके मूल तक पहुंचाएंगे। यह सब तब हो रहा था जब न तो संविधान था और न ही लोकतंत्र था। आज की तारीख़ में संविधान है, नियम-क़ानून है। कुल मिलाकर यह इतिहास का मसला नहीं है।’

अब अगर एएसआई की बात करे तो उसके वेब साईट पर हरविलास सारदा की किताब का दावा गहरा असर डाला हुआ दिखाई देगा जो असमंजस की स्थति आपकी बना देगा। एक तरफ तो।भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) की वेबसाइट पर ‘अढ़ाई दिन का झोपड़ा’ को लेकर जानकारी दी गई है। एएसआई के मुताबिक़, ‘यह वास्तव में दिल्ली के पहले सुल्तान क़ुतबुद्दीन ऐबक द्वारा 1199 में बनवाई गई एक मस्जिद है, जो दिल्ली के कुतुब-मीनार परिसर में बनी कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद के समकालीन है। इसके बाद 1213 में सुल्तान इल्तुतमिश ने इसमें घुमावदार मेहराब और छेद वाली दीवार लगाई। भारत में ऐसा यह अपने तरीके का पहला उदाहरण है।’

वही दूसरी तरफ एएसआई की वेबसाइट पर संदर्भ के तौर पर हरबिलास सारदा की किताब का इस्तेमाल किया गया है और लिखा है कि ‘हालांकि, परिसर के बरामदे के अंदर बड़ी संख्या में वास्तुशिल्प कलाकृतियां और मंदिरों की मूर्तियां हैं, जो लगभग 11वीं-12वीं शताब्दी के दौरान इसके आसपास एक हिंदू मंदिर के अस्तित्व को दर्शाती हैं। मंदिरों के खंडित अवशेषों से बनी इस मस्जिद को ‘अढ़ाई दिन का झोपड़ा’ के नाम से जाना जाता है, संभवतः इसका कारण है कि यहां ढाई दिनों तक मेला लगता था।’

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