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संभल हिंसा: अधूरे सवालों के साथ प्रदेश सरकार के गठित न्यायिक जाँच आयोग पर बोले सांसद अवधेश प्रसाद ‘लोगों के दिमाग को भटकाने’ के लिए न्यायिक जाँच की घोषणा’ बोले संसद बर्क ‘हम पुलिस को अपराधी मानते है’

तारिक खान

डेस्क: संभल जामा मस्जिद के विवादास्पद सर्वेक्षण के दौरान हुई हिंसा की न्यायिक जांच का आदेश उत्तर प्रदेश सरकार ने दिया। यह फैसला गुरूवार की सुप्रीम कोर्ट में दाखिल मस्जिद कमेटी की याचिका पर सुनवाई के ठीक पहले देर रात प्रदेश सरकार ने लिया है। इस जांच हेतु उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश देवेन्द्र कुमार अरोड़ा की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय आयोग का गठन किया है।

इसमें अन्य दो अन्य सदस्य सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी अमित मोहन प्रसाद है। अमित मोहन प्रसाद मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के अधीन कार्य कर चुके है और सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी अरविंद कुमार जैन अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी (सपा) सरकार के कार्यकाल में 2015 में पुलिस महानिदेशक रह चुके है। एक ओर जहां, विपक्षी दल के नेता इस न्यायिक जांच की अचानक घोषणा के सरकार के फैसले को संदेह की नजर से देख रहे हैं, वहीं तीन सदस्यीय आयोग की शर्तें और संदर्भ भी कई सवाल उठाते हैं क्योंकि वे हिंसा में मारे गए लोगों के परिजनों द्वारा पुलिस पर लगाए गए हत्या के गंभीर आरोपों को नजरअंदाज करते नजर आ रहे हैं।

इन आरोपों के कारण इस न्यायिक आयोग के द्वारा दी गई रिपोर्ट पर सब कुछ साफ़ स्थिति के बारे में बताये जाने पर संशय उठा दिया है। ज्ञात हो कि इस हिंसा में पांच मुसलमानों की मौत होने का आरोप विपक्ष लगा रहा है। लेकिन सरकार ने केवल चार लोगों की मौत की बात ही स्वीकार की है। वहीं, घटना के दौरान कई पुलिस कर्मी भी घायल हो गए थे और कुछ वाहनों को आग में आग लगा दी गई, तो कई  गाड़ियां क्षतिग्रस्त कर दी गई थीं। आयोग को दो महीने का वक्त अपनी रिपोर्ट देने के लिए दिया गया है। जिसमे न्यायिक आयोग अपनी जांच चार बिन्दुओ पर करेगी।

पहला, यह जांच करना कि क्या घटना अचानक हुई या सुनियोजित थी और किसी आपराधिक साजिश का नतीजा थी। दूसरा, घटना के दौरान कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए जिला प्रशासन और पुलिस द्वारा की गई व्यवस्था की जांच करना। तीसरा, उन कारणों और परिस्थितियों का पता लगाना जिनके कारण ये घटना घटित हुई। और चौथा, ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए सुझाव देना। आयोग की अधिसूचना घटना के अन्य महत्वपूर्ण तत्वों का कोई विशेष संदर्भ नहीं देती है, जिसके व्यापक समझ के लिए जांच की आवश्यकता होगी। सबसे पहले, इस विवाद की जड़, जो मामले का केंद्र बिंदु है- अदालत द्वारा नियुक्त अधिवक्ता आयुक्त रमेश राघव ने किन परिस्थितियों में जल्दबाजी दिखाई और स्थानीय सिविल अदालत के आदेश के तीन घंटे के भीतर 19 नवंबर की शाम को मस्जिद का सर्वेक्षण किया।

इन सवालों के जवाब भी अभी बाकी हैं कि जब अदालत ने एडवोकेट कमिश्नर को रिपोर्ट जमा करने के लिए 29 नवंबर तक कम से कम पूरे नौ दिन – का समय दिया था, तो अदालत के आदेशों के तुरंत बाद उन्हें सर्वेक्षण शुरू करने के लिए किसने प्रेरित किया? क्या प्रशासन ने स्थानीय धार्मिक समुदायों को विश्वास में लेने के लिए आवश्यक कदम उठाए, यह देखते हुए कि मस्जिद मिश्रित आबादी वाले क्षेत्र में स्थित है, या स्थानीय आबादी को सर्वेक्षण के उद्देश्य के बारे में सूचित करने के लिए कोई शांति बैठकें आयोजित कीं? यह देखते हुए कि यह विषय सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील है, एडवोकेट कमिश्नर ने दूसरा सर्वेक्षण क्यों किया? यदि अधिवक्ता आयुक्त को रात के समय में सर्वेक्षण करने की सीमाओं के बारे में पता था, तो इसे उसी दिन जल्दबाजी में क्यों शुरू किया गया?

दूसरा, पुलिस पर गंभीर आरोप लगे हैं। पुलिस पर न केवल प्रदर्शनकारी मुसलमानों पर गोली चलाने और उन्हें मारने का आरोप है, जो उस भीड़ का हिस्सा थे, जिसने पुलिसकर्मियों पर पथराव किया और वाहनों को क्षतिग्रस्त कर दिया, बल्कि उन पर यह भी आरोप है कि उन्होंने अनावश्यक लाठीचार्ज से भीड़ को हिंसक बना दिया। मारे गए लोगों के परिजन, मस्जिद का प्रबंधन करने वाली समिति के अध्यक्ष जफर अली और संभल के सांसद जिया-उर-रहमान बर्क सहित विपक्षी नेताओं ने पुलिस पर भीड़ पर गोलीबारी करने का आरोप लगाया है।

पुलिस ने इन आरोपों से इनकार किया है और कहा है कि उन्होंने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए केवल रबर की गोलियां और आंसू गैस छोड़ी और लाठीचार्ज किया। पुलिस ने यह भी दावा किया कि बंदूक की गोली से मारे गए चार लोगों को देशी हथियारों से मारा गया था, जिससे पता चलता है कि भीड़ के सदस्यों ने एक-दूसरे पर गोली चलाई होगी। इस मामले में एपीसीआर ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में दायर एक जनहित याचिका में मांग की है कि पुलिस या राज्य पदाधिकारियों द्वारा कथित तौर पर किए गए ‘अपराधों और अत्याचारों’ की सभी शिकायतें तुरंत दर्ज की जाएं और इसकी जांच उच्च न्यायालय की निगरानी में एक स्वतंत्र जांच एजेंसी या टीम द्वारा हो।

एपीसीआर ने यह भी अनुरोध किया है कि अदालत पुलिस और सरकार को एक स्थिति रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दे, जिसमें बताया जाए कि क्या पुलिस को जनता पर ‘गोली चलाने’ के लिए प्रोत्साहित किया गया था। एपीसीआर की याचिका में कहा गया है कि भीड़ मस्जिद की खुदाई की अफवाहों के खिलाफ शांतिपूर्वक विरोध कर रही थी, तभी पुलिस ने लाठीचार्ज शुरू कर दिया। लाठीचार्ज के बाद भीड़ कथित तौर पर हिंसक हो गई और पथराव करने लगी, उल्लेखनीय है कि पुलिस अधिकारियों ने अंधाधुंध गोलियां चलाकर असंगत बल का प्रयोग किया और चार लोगों की गोली लगने से जान चली गई।

न्यायिक जांच के आदेश पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए फैजाबाद से सपा सांसद अवधेश प्रसाद ने कहा कि यह जांच ‘मामले को ठंडे बस्ते में डालने’ और ‘लोगों के दिमाग को भटकाने’ के लिए घोषित की गई है। प्रसाद ने आगे कहा, ‘यह खुला तथ्य है कि गोलियां चलीं, लोग मरे और दर्जनों घायल हुए। इसमें ऐसी क्या खास बात है कि यह मामला किसी आयोग को दिया जाना चाहिए? यह सरकार कुछ करना ही नहीं चाहती। यह वह सरकार है जिसने चीजों को खराब कर दिया है।’

एसपी सांसद बर्क, जिन पर मस्जिद की ‘सुरक्षा’ के लिए भीड़ को उकसाने का आरोप है, ने कहा कि ‘ईमानदार और निष्पक्ष जांच’ केवल सुप्रीम कोर्ट या इलाहाबाद हाईकोर्ट के मौजूदा न्यायाधीशों की देखरेख में गठित जांच आयोग के साथ ही संभव होगी। संसद के बाहर पत्रकारों से बात करते हुए बर्क ने यह भी मांग की कि अगर कोई निष्पक्ष जांच होती है तो घटना में शामिल पुलिस अधिकारियों और प्रशासनिक अधिकारियों को निलंबित किया जाना चाहिए। बर्क ने शुक्रवार को पुलिस के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज करने की मांग करते हुए कहा, ‘हम उन्हें अपराधी मानते हैं। सपा सांसद ने यह भी आरोप लगाया है कि 24 नवंबर को हुई हिंसा की घटना पुलिस प्रशासन द्वारा रची गई थी। उन्होंने कहा कि पुलिस ने पहले अराजकता फैलाई और फिर फर्जी मामले दर्ज किए गए।

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