तारिक आज़मी
डेस्क: कद छह फ़ीट चार इंच, बिल्कुल सीधी कमर, चौड़ा सीना मगर दयालु आँखें जिनके मुहब्बत के झरनों में हर एक हिंसक भी डूब कर अहिंसा के रास्ते अख्तियार कर ले। बेशक पठानी खून गर्म होता है मगर वह महात्मा गांधी के अहिंसा का मार्ग चुन चुके थे। दुनिया उन्हें ख़ान साहब या बादशाह ख़ान कहकर पुकारती थी। और वक्त के साथ उनको फ़्रंटियर गांधी या सीमांत गांधी भी कहने लगे, ये थे ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान (Khan Abdul Gaffar Khan)।
वर्ष 1930 में जब गांधी ने नमक सत्याग्रह किया तो बड़ा असर सीमांत प्रांत में भी दिखाई दिया। 23 अप्रैल 1930 को ब्रिटिश सरकार ने ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान और उनके कुछ साथियों को पेशावर जाते हुए गिरफ़्तार कर लिया। ये ख़बर सुनते ही हज़ारों लोगों ने चारसद्दा जेल को घेर लिया जहाँ ग़फ़्फ़ार ख़ान को रखा गया था। पूरा पेशावर शहर सड़कों पर आ गया। राजमोहन गांधी बादशाह ख़ान की जीवनी ‘ग़फ़्फ़ार ख़ान, नॉन वॉयलेंट बादशाह ऑफ़ द पख़तून्स’ में लिखते हैं, ‘उस दिन पेशावर के क़िस्साख़्वानी बाज़ार और सीमांत प्रांत में अंग्रेज़ पुलिस की गोलियों से तक़रीबन 250 पठान मारे गए। इसके बावजूद आमतौर से गर्म ख़ून वाले पठानों ने कोई जवाबी हिंसक कार्रवाई नहीं की। यहाँ तक कि सेना की गढ़वाल राइफ़ल्स के जवानों ने पठानों की निहत्थी भीड़ पर गोली चलाने से इनकार कर दिया।’
मशहूर राजनयिक नटवर सिंह अपनी किताब ‘वॉकिंग विद लायंस, टेल्स फ़्रॉम डिप्लोमेटिक पास्ट’ में लिखते हैं, ‘काँग्रेस के पाँच लोगों ने भारत के विभाजन का विरोध किया, महात्मा गांधी, ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद। 31 मई से 2 जून के बीच 1947 में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई जिसमें पाकिस्तान को स्वीकार करने का अहम फ़ैसला लिया गया। सीमांत गांधी को लगा कि उनके साथ धोखा किया गया है।’ 23 फ़रवरी 1948 को बादशाह ख़ान ने पाकिस्तान संविधान सभा के सत्र में भाग लिया और नए देश और उसके झंडे के प्रति अपनी निष्ठा की शपथ ली।
बादशाह ख़ान और पाकिस्तानी सरकार के बीच सुलह बहुत दिनों तक नहीं रह सकी। ब्रिटिश सरकार के जाने के दस महीनों के अंदर ही बादशाह ख़ान को देशद्रोह के आरोप में पश्चिम पंजाब की मॉन्टगोमरी जेल में तीन साल के लिए भेज दिया गया। अप्रैल, 1961 में पाकिस्तान के सैनिक शासक अयूब ख़ान ने उन्हें फिर गिरफ़्तार कर सिंध की जेल में भेज दिया। 1961 तक बादशाह ख़ान पाकिस्तान की सरकार के लिए एक ‘देशद्रोही’, ‘अफ़ग़ान एजेंट’ और ख़तरनाक व्यक्ति हो गए थे। हालात ऐसे बने कि उन्हें पाकिस्तान छोड़कर अफ़ग़ानिस्तान में शरण लेनी पड़ी। 1969 में जब भारत की प्रधानमंत्री अफ़ग़ानिस्तान के दौरे पर गईं तो वहाँ भारत के राजदूत अशोक मेहता ने बादशाह ख़ान को इंदिरा गांधी के सम्मान में दिए गए भोज में आमंत्रित किया।
नटवर सिंह ने लिखा, ‘मुझे उनको पोर्च में रिसीव करना था, लेकिन मुझे वहाँ पहुंचने में कुछ सेकेंड की देर हो गई।” उन्होंने मुझे डाँटते हुए कहा, “आपको वक़्त पर आना चाहिए था। उनकी समय की पाबंदी ने मुझ पर गहरा असर छोड़ा। उसी बैठक में ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान ने गांधी शताब्दी समारोह में भारत आने के लिए हामी भर दी।’ बादशाह ख़ान पूरे 22 सालों बाद भारत आ रहे थे। वो अपने पाकिस्तानी पासपोर्ट पर भारत आए। उनका पासपोर्ट एक्सपायर हो चुका था, लेकिन काबुल के पाकिस्तानी दूतावास ने उस पर एक्सटेंशन की मोहर लगा दी। हवाई-अड्डे पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और जयप्रकाश नारायण उनके स्वागत के लिए पहुंचे हुए थे।
बादशाह ख़ान के भारत पहुंचने के एक या दो दिन बाद देश के कई भागों में सांप्रदायिक दंगे शुरू हो गए। बादशाह ख़ान ने इन दंगों को रोकने के लिए तीन दिन के अनशन की घोषणा की। ये सुनते ही दंगे रुक गए। 24 नवंबर, 1969 को उन्होंने संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक को संबोधित किया। संसद में दो टूक बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘आप गांधी को उसी तरह भुला रहे हैं जैसे आपने गौतम बुद्ध को भुलाया था।’ कुछ दिन बाद जब वो इंदिरा गांधी से मिले तो उन्होंने उनसे भी बिना किसी लाग-लपेट के कहा, ‘आपके पिता और पटेल ने तो मुझे और पख़्तूनों (पठानों) को भेड़ियों के सामने फेंक दिया था।’ राजमोहन गांधी लिखते हैं, ‘इंदिरा गांधी की इस बात के लिए तारीफ़ करनी होगी कि उन्होंने बादशाह ख़ान की इस साफ़गोई का बुरा नहीं माना और काबुल में तैनात होने वाले हर भारतीय राजदूत को यही सलाह दी कि वो बादशाह ख़ान की ज़रूरतों का ध्यान रखें।’
ये थे सीमान्त गांधी शायद इसी सब वजहों से उनको फ्रंटियर गांधी या सरहदी गांधी कहा गया। मुल्क परस्ती की वह निशानी जो किसी और कही और में नहीं दिख सकती है। एक शख्सियत जिनकी साफगोई यह भी नहीं ख्याल करने को तैयार कि जिसके सामने वह साफ़गोई से बाते कर रहे है वह उस वक्त की दुनिया की अज़ीम शख्सियत में शुमार थी और तस्किरा भी चल रहा था उनके खुद के वालिद का। बड़ा दिल तो इंद्रा गाँधी का भी था जिन्होंने हकीकत को कुबूल किया। जज्बा तो साफगोई का ये भी था कि एक मुल्क पर हुकूमत कर सकने की कुवत रखने वही शख्सियत खान अब्दुल गफ्फार खान ने जिन्ना और अय्यूब जैसो की जी-हुजूरी पसंद करने से बेहतर मुफलिसी में ज़िन्दगी बसर करना पसंद किया। आज गणतंत्र दिवस के इस मुबारक मौके पर उनको दिल से सलाम।
नोट: इस लेख में प्रकाशित शब्द ‘मर्द-ए-मुजाहिद’ में दो अलग अलग भाषाओं के शब्द है, जो उर्दू और अरबी के शब्द है. दोनों के मेल का तात्पर्य यानि मर्द-ए-मुजाहिद का अर्थ होता है- कोशिश करने वाला; प्रयत्नशील; पराक्रमी
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