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तारिक आज़मी की मोरबतियाँ: पापी पेट का सवाल है साहब, तभी तो उम्र गुज़र गई ज़हर बेचते-बेचते

तारिक आज़मी

डेस्क: पेट की आग जब लगती है तो उसको बुझाने के लिए पानी नहीं बल्कि राशन चाहिए होता है। वैसे हमारे काका तो कहते है कि ‘ए बबुआ राशन पर भाषण तो कुल दे सकते है, भाषण पर राशन केहू न देता है।’ बात तो ये भी सौ टका ठीक है एकदम उसी तरह से जैसे ‘बतिया है कर्तुतिया नाही, मेहर है घर खटिया नाही’ की तरह। आखिर ये पेट की ही तो आग है जिसको बुझाने के लिए रोज़ जीना पड़ता है।

पेट की आग के खातिर इंसान कारोबार, नौकरी और चाकरी सब किया करता है। किसी भूखे के ‘रब बदलने में बहुत कुछ नहीं महज़ एक रोटी की ज़रूरत होती है।’ को कैसे भुला जा सकता है। किसी खोमचे से पेट की ही आग बुझाने के लिए किसी भूखे को एक रोटी उठाते कभी देखा है क्या ? बेशक पेट की आग के खातिर हमारे काका कल्पनाओं से निकल कर साक्षात् आ जाते है और काकी से शेर-ओ-शायरी करने लगते है। कभी रास्ता ख़राब तो कभी सब्जी महँगी हो जाती है। पेट की ही तो बात है और कुछ ख़ास नहीं। वरना काका और काकी भला कल्पनाओं से बाहर कैसे निकल सकते थे।

अब बात पापी पेट की ही तो है कि राणा प्रताप सिंह विगत 55 सालो से एक उम्मीद की दुनिया में ज़हर बेचने का कारोबार कर रहे है। जानकार आप भी कह सकते है कि ‘पापी पेट का सवाल है साहब, तभी तो उम्र गुज़र गई ज़हर बेचते बेचते।’ नाम में दबदबा किसी राजा महाराजा से कम नहीं है। फिर भी हालात ने कुछ ऐसा हाल किया कि उम्र गुज़र गई है ‘ज़हर बेचते बेचते’, वह भी उम्मीद की नगरी में जहा इन्साफ की उम्मीद पर रोज़ हज़ारो की भीड़ इकठ्ठा होती है। कुछ उम्मीद पूरी कर पाते है तो कुछ उम्मीद की अगली तारीख लेकर वापस लौट जाते है।

जी हाँ हम बात कर रहे है कचहरी परिसर की। कचहरी परिसर के रजिस्ट्री दफ्तर के नीचे जवानी से खड़े खड़े बुढापे में पहुच चुके राणा प्रताप सिंह पिछले 55 सालो से ज़हर बेच रहे है। लोग आते है और ज़हर खरीद कर चले जाते है। इसी ज़हर की कमाई से राणा प्रताप सिंह का पूरा भरा परिवार चल रहा है। रजिस्ट्री दफ्तर के नीचे आपको ज़ोरदार आवाज़ आयेगे ‘चूहा मार, खटमल मार।’ इसी आवाज़ के बल पर लोग पलट कर चले आते है। उम्मीदों के साथ ज़हर की पुडिया लेते है और घर के अन्दर आये घुसपैठियों को मारने के लिए लेकर घर चले जाते है।

इस ज़हर के बारे में राणा प्रताप बताते है कि इसको यदि कोई मनुष्य सेवन कर ले तो उसके लिए कोई जानलेवा साबित नहीं होगा। खटमल और चूहों के लिए अलग अलग पुडिया होती है। उन्होंने बताया कि पहले कारोबार अच्छा चल रहा था। मगर अब बड़ी कंपनियों के रेट किलर आ जाने और चारपाई विलुप्त होने के बाद काम धंधा कमज़ोर पड़ गया है। अब किसी तरह सुबह 10 बजे से लेकर रात 10 बजे तक कचहरी और वरुण पुल पर कारोबार करने के बाद किसी तरह बस दाल रोटी चल जाती है। पिछले 55 साल से हम इसी काम में महारत रखते है तो और कोई काम आता भी नहीं है।

तारिक़ आज़मी
प्रधान सम्पादक
PNN24 न्यूज़

राणा प्रताप सिंह ने बताया कि 1970 में कचहरी परिसर में कदम जवानी में रखा था और अब बुढापा आ गया है। पहले कारोबार बढ़िया चलता था, मगर अब दाल रोटी की भी दिक्कत आ गई है। किसी तरह से चटनी रोटी चल रही है। बस बात इतनी है कि इसके अलावा कोई काम नहीं आता है।

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