12 रबीउल अव्वल पर विशेष: है शहर-ए-बनारस का गदा कितना मुकर्रम, रहती है मदीने की गली आँखों में हर-दम

तारिक आज़मी/शाहीन बनारसी (फोटो:- ईदुल अमीन)

रबी-उल-अव्वल के शब का आगाज़ हो चूका है। शहर की हर मुस्लिम बाहुल्य गली दुल्हन की तरह सजी हुई है। कही नात शरीफ पढ़ी जा रही है तो कही तक़रीर का सिलसिला जारी है। कही लंगर चल रहे है तो कही तबर्रुक के तौर पर मिठाई तकसीम हो रही है। कही बेला की खुशबु है तो किसी सु चमेली की खुशबु है। रंगबिरंगी रौशनी से शहर जगमग जगमग कर रहा है। बिना सोचे ही दिल से सदा बुलंद हो रही है “मरहबा या रसूल अल्लाह, या हबीब अल्लाह।” रबी-उल-अव्वल की 12 तारीख को ही नबी-ए-करीम (स0) इस्लाम ही नही  बल्कि पुरे आलम के नूर बनकर आए। आपकी आमद उस वक्त हुई जब इंसानियत जैसी कोई चीज नहीं थी। मगर आपके आने से बुराई खत्म हो गई।

आज बरोज़ सनीचर ब्तारीख 8 अक्टूबर 2022 मौसम बड़ा खुशगवार था। हर मस्जिद से फ़ज्र की अज़ान की सदाएँ बुलंद होने लगीं। सुबह होने लगी और सूरज चढ़ने लगा। देखने में सूरज बहुत ही सख्त नज़र आ रहा था मगर उसकी धुप भी आज मद्धिम और सुकून दे रही थी ऐसा लग रहा था कि जैसे सूरज ने भी सदा लगाई है “सरकार की आमद मरहबा। दोपहर हुई और हमने आपको शहर-ए-बनारस फिजा से रूबरू करवाने की की चाहत दिल में पाल लिया और निकल पड़े सडको पर इस रौनक का लुत्फ़ उठाने के लिए। बेशक हर गली से निकलने वाली सदाओं ने कानो में शक्कर घोल रखा था। सरकार की आमद मरहबा के लफ्ज़ चंद कदमो पर ही सुनाई पड़ जाते थे। नमाज़-ए-जोहर का वक्त हो चला था तो हमने अपने इस सफ़र की शुरुआत ही बनारस की मशहूर और बा-फ़ैज़-ओ-बा-मुराद और मुक़द्दस बारगाह हज़रत मौलाना शाह मोहम्मद वारिस रसूल-नुमा क़ादरी बनारसी (मुतवफ़्फ़ा 1167 हिज्री) की आस्ताने से शुरू किया।

आस्ताने को दुल्हन की तरह सजाया गया था। रंगीन रोशनियों वाली झालरों के साथ फुल की भी सजावट है। यही से अंजुमन इलाहिया अपने कलाम पढने निकलती है। हमने रसूल-ए-नुमा के आस्ताने पर हाजरी लगा कर “या-अय्युहल-लज़ीन-आमनुत्तक़ुल्लाह वब्तग़ू इलैहि वसीला” के तहत दुआ’एं माँगी। ये वो बुज़ुर्ग-ए-आ’ली-मर्तबत हैं जिनकी कश्फ़-ओ-करामत ख़्वास-ओ-आ’म में मशहूर है। हमें ये महसूस हो रहा था कि हम जन्नत की हसीन क्यारी में बैठे हैं। तभी अंजुमन इलाहियाँ सामने ही खानगाह पर अपने कलाम की प्रैक्टिस कर रही थी। बेशकीमती लफ्जों से सजे कलाम को सुनकर दिल झूम उठा था।

तारीख़ की रौशनी में इस हक़ीक़त से कौन इंकार कर सकता है कि जिन मक़ासिद के लिए काएनात बनाई गई और अम्न ओ आश्ती, मोहब्बत ओ रवादारी की तालीम ओ तरबियत पूरी काएनात में ख़ुसूसन भारत में फैली और अख़लाक़ी क़दरों का पूरे मुआशरे में बोल बाला हुआ, वो एक ना-क़ाबिल-ए-फ़रामोश एहसान है। चीनी सय्याह इब्न-ए-बतूता ने अपने सफ़र-नामा में दुनिया के कई देशों का जाएज़ा लेने के बाद उसे सुनहरे अलफ़ाज़ में लिखा। तेरहवीं सदी हिज्री के शुरु में 22 दिन के यादगार सफ़र-ए-दिल्ली को “सैर ए दिल्ली” के नाम से हज़रत शाह अकबर दानापुरी (1843-1909)ने रोज़-नामचा की शक्ल में किताबी सूरत दी, जिसकी दूसरी इशाअत 2010 में दिल्ली यूनीवर्सिटी शोबा ए उर्दू के ज़ेर ए हतीमाम गोल्डन जुबली के मौक़ा पर अमल में आई।

बहरहाल, यहाँ से बढ़कर हम सीधे चौक पहुचते है और रुख करते है बनारस की कदीमी मार्किट दालमंडी। हर सजावट दिखाई दे रही थी। लगभग हर एक दुकानों पर कुरआन ख्वानी हो रही थी। रात को होने वाले प्रोग्रामो की तैयारियां जोरो शोर से चल रही थी। सभी लोग मशगुल थे कि रात को किसका स्टेज कहा लगेगा। थोडा आगे बढ़ने पर दालमंडी की मशहूर गुदड़ी मोड़ आता है। जहा दालमंडी व्यापार मंडल लंगर-ए-मुहम्मदी का इंतज़ाम करते हुवे दिखाई दिया। वही पास ही मरकज़ के दफ्तर में तैयारियों का जोरो शोर दिखाई दिया। पास ही कई स्टेज बनने को बेताब दिखाई दे रहे थे। देख कर ही लग रहा था कि जश्न-ए-आमद-ए-रसूल में सभी खोये हुवे है। शहर-ए-बनारस का गदा कितना मुकर्रम, रहती है मदीने की गली आँखों में हर-दम। हम आगे बढ़ते है और बनिया पहुच जाते है। एक एक नुक्कड़ ऐसे सजा हुआ था अँधेरे को भी भागने की जगह हासिल न हो

नई सड़क की लंगड़े हाफ़िज़ मस्जिद। बेहद खुबसूरत सजावट के साथ दिखाई दी। मुल्क परस्ति और कौम परस्ती का मिला जुला हाल दिखाई दिया। रोशनी भी तिरंगे के रंग में दिखाई दी। पास से ही नन्हे मुन्ने बच्चे सरकार की आमद मरहबा कहते हुवे जुलूस लेकर निकल रहे थे। हाथो में जहा नबी का झंडा था तो लबो पर या रसूल अल्लाह की सदा थी। पूरा शहर ही जश्न-ए-ईद-ए-मिलाद्दुन्न्बी के खुशनुमा मौसम में खोया दिखाई दिया।

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