वैवाहिक बलात्कार को अपराध के दायरे में लाने की मांग वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने माँगा केंद्र से जवाब

मो0 कुमैल/ईदुल अमीन

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने वैवाहिक बलात्कार को अपराध के दायरे में लाने की मांग वाली और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के उस प्रावधान को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सोमवार को केंद्र से जवाब मांगा, जो किसी पति को बालिग पत्नी के साथ जबरन यौन संबंध बनाने की सूरत में दोषारोपण से सुरक्षा प्रदान करता है।

इन याचिकाओं में से एक याचिका इस मुद्दे पर दिल्ली हाईकोर्ट के खंडित आदेश के संबंध में दायर की गई है। यह अपील, दिल्ली हाईकोर्ट में याचिकाकर्ता खुशबू सैफी ने दायर की है। केंद्र की ओर से पेश सॉलीसिटर जनरल तुषार मेहता ने प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस जेबी परदीवाला की पीठ से कहा कि इस मुद्दे के कानूनी तथा ‘सामाजिक निहितार्थ’ हैं और सरकार इन याचिकाओं पर अपना जवाब दाखिल करेगी। पीठ ने कहा, ‘भारत सरकार 15 फरवरी 2023 तक जवाबी हलफनामा दाखिल करे। याचिकाओं पर सुनवाई 21 मार्च को होगी।’

शीर्ष अदालत ने अधिवक्ता पूजा धर और जयकृति जडेजा को नोडल अधिवक्ता नियुक्त किया और कहा कि पक्षकारों को तीन मार्च तक लिखित में अभ्यावेदन देना होगा, ताकि याचिकाओं पर बिना किसी परेशानी के सुनवाई हो सके। दिल्ली हाईकोर्ट ने 11 मई 2022 को इस मुद्दे पर खंडित फैसला दिया था। एक न्यायाधीश ने कानून में मौजूद उस अपवाद को निष्प्रभावी कर दिया था, जो अपनी पत्नी की असहमति से उसके साथ यौन संबंध बनाने के लिए पति को आरोपित करने से संरक्षण प्रदान करता है, जबकि दूसरे न्यायाधीश ने इसे असंवैधानिक घोषित करने से इनकार कर दिया था।

हालांकि, पीठ में शामिल दोनों न्यायाधीशों जस्टिस राजीव शकधर और जस्टिस सी0 हरि शंकर ने मामले में सुप्रीम कोर्ट में अपील करने की अनुमति दी थी, क्योंकि इसमें कानून से जुड़े महत्वपूर्ण सवाल शामिल हैं, जिन पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा गौर किए जाने की आवश्यकता है। एक अन्य याचिका एक व्यक्ति द्वारा कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर की गई थी। इस फैसले के चलते उस पर अपनी पत्नी से कथित तौर पर बलात्कार करने का मुकदमा चलाने का रास्ता साफ हो गया था। अपने इस महत्वपूर्ण निर्णय में कर्नाटक हाईकोर्ट ने एक महिला द्वारा उनके पति पर लगाए बलात्कार के आरोपों को धारा 375 के अपवाद के बावजूद यह कहते हुए स्वीकारा था कि विवाह की संस्था के नाम पर किसी महिला पर हमला करने के लिए कोई पुरुष विशेषाधिकार या लाइसेंस नहीं दिया जा सकता।

दरअसल, कर्नाटक हाईकोर्ट ने 23 मार्च 2022 को पारित आदेश में कहा था कि अपनी पत्नी के साथ बलात्कार तथा आप्राकृतिक यौन संबंध के आरोप से पति को छूट देना संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) के खिलाफ है। सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में कुछ अन्य याचिकाएं भी दायर की गई हैं। कुछ याचिकाकर्ताओं ने आईपीसी की धारा 375 (बलात्कार) के तहत वैवाहिक बलात्कार को मिली छूट की संवैधानिकता को इस आधार पर चुनौती दी है कि यह उन विवाहित महिलाओं के खिलाफ भेदभाव है, जिनका उनके पति द्वारा यौन शोषण किया जाता है।

कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई शुरू होने पर याचिकाकर्ता के वकील सिद्धार्थ दवे ने कहा कि यह मामला अलग है, क्योंकि बाकी सब जनहित याचिकाएं हैं। उन्होंने कहा, ‘मेरा मामला अलग है। मेरे काबिल मित्र यहां जनहित याचिकाओं के लिए हैं। मैं उस व्यक्ति के लिए हूं, जो प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित है।’ सॉलीसिटर जनरल ने सुझाव दिया कि दिल्ली हाईकोर्ट के खंडित फैसले के खिलाफ मामलों को हाईकोर्ट के किसी तीसरे न्यायाधीश द्वारा सुनवाई की अनुमति दी जा सकती है और फिर सुप्रीम कोर्ट ‘अंतिम बार गौर’ कर सकता है।

इससे पहले सितंबर 2022 में भी सुप्रीम कोर्ट ने वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में रखे जाने के मुद्दे पर दिल्ली हाईकोर्ट के खंडित फैसले के कारण दायर की गई याचिकाओं को लेकर केंद्र से जवाब मांगा था। ज्ञात हो कि केंद्र ने 2017 के अपने हलफनामे में याचिकाकर्ताओं की दलीलों का विरोध करते हुए कहा था कि वैवाहिक बलात्कार को आपराधिक श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है, क्योंकि यह एक ऐसी घटना बन सकती है जो ‘विवाह की संस्था को अस्थिर कर सकती है और पतियों को परेशान करने का एक आसान साधन बन सकती है।’

हालांकि, केंद्र ने जनवरी 2022 में अदालत से कहा था कि वह याचिकाओं पर अपने पहले के रुख पर ‘फिर से विचार’ कर रहा है, क्योंकि उसे कई साल पहले दायर हलफनामे में रिकॉर्ड में लाया गया था। केंद्र ने इस मामले में अपना रुख स्पष्ट करने के लिए अदालत से फरवरी 2022 में और समय देने का आग्रह किया था, जिसे पीठ ने इस आधार पर खारिज कर दिया था कि मौजूदा मामले को अंतहीन रूप से स्थगित करना संभव नहीं है।

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