गांधी जयंती पर तारिक आज़मी की मोरबतियाँ: गोडसे को अपना ‘पीर’ मानने वालो…..! नोआखाली को गोडसे ने नही गांधी ने हिंसा से बचाया था, गोडसे की तीन गोलियों से गाँधी का शरीर मर सकता है, विचार अजर अमर है
तारिक़ आज़मी
बात अगर बड़ी शख्सियत की होगी तो लाख कोशिशो के बावजूद भी लेख बड़ा तो होगा ही…..! आज गाँधी जयंती हम मना चुके है। जिस समय आप इस पोस्ट को पढ़ रहे होंगे गांधी जयंती खत्म हो चुकी होगी। वैसे भी हम ‘ब्रांडिंग’ में मास्टर है तो इस मौके की ‘ब्रांडिंग’ कैसे न करे? स्वच्छान्जली देकर हमने भले स्वच्छता का पाठ पढाया होगा और खुद भी थोडा बहुत पढ़ा होगा। मगर गाँधी के विचारों को इस गाँधी जयंती पर हम कितना अपना चुके है वह देवरिया में हुई महज़ 35 मिनट में 6 मौतों ने बता दिया।
एक हत्या के बाद भीड़ इन्साफ खुद के हाथो से करने को आतुर हुई और 5 अन्य हत्याओं को अंजाम दे दिया। आज गांधी जयंती के दिन कम से कम हमको याद आना चाहिए कि बापू ने कहा था ‘आँख के बदले आँख का कानून एक दिन पुरे समाज को अँधा कर देगा।’ हुआ तो वही हत्या के बदले हत्या के क्रम में इन्साफ तो भीड़ बनकर पहुचे लोगो ने खुद अपने हाथो से कर डाला। इसी खबर के साथ हमारी भी सुबह हुई थी और आपकी भी हुई होगी। कोई अचम्भे की बात आपको बेशक नही लगी होगी, क्योकि दस्तूर तो इन्साफ अपने हाथो से करने का बन ही चूका है।
अगर आपको इस खबर के बाद तकलीफ नही हुई तो फिर आप मुस्कुरा सकते है कि आप ‘पत्थरदिल’ है। चलिए शर्मसार समाज होगा कि नही होगा हमको नही पता। क्योकि हम उस समाज के बीच है जहा आज गांधी जयंती के दिन ‘गोडसे जिंदाबाद’ का हैशटैग चल गया। ऐसे ट्वीटर अकाउंट का नाम लिखता चालू तो आर्टिकल तीन किलोमीटर लम्बा हो जायेगा सिर्फ नामो से जिन्होंने आज गाँधी जयंती के दिन गोडसे को अपना ‘पीर’ घोषित करते हुवे उसके समर्थन में ट्वीट किया। हजारो की संख्या में ट्वीट हुवे जो गाँधी के हत्यारे गोडसे की महिमा का बखान कर रहे थे।
बेशक शर्मिंदा हम क्यों होंगे? गोडसे की तीन गोलियों ने गांधी के शरीर को मारा था। मगर उनके विचार गोडसे की तीन गोलियों से नहीं मर सकते है, ये बात तो साफ़ है। क्योकि गाँधी वही है जिन्होंने नोआखाली की हिंसा को अपने जान पर खेल कर शांत करवाया था। नोआखाली याद है या फिर आप वह भी भूल चुके है। कम से कम नोआखाली मत भूलिए अन्यथा गोडसे प्रेमी उसका श्रेय भी गोडसे को देने लगेगे। कुछ्ह स्मरण करवाता चलता हु आपको।
नोआखली की हिंसा को भारत विभाजन पूर्व की क्रूरतम हिंसा माना जाता है। इसे वहां की अखिल भारतीय मुस्लिम लीग सरकार के इशारे पर नियोजित ढंग से बहुसंख्यक मुसलमानों द्वारा अल्पसंख्यक हिंदुओं के खिलाफ करवाया गया था। पाकिस्तान की मांग को लेकर ‘सीधी कार्रवाई दिवस’ की मोहम्मद अली जिन्ना की घोषणा के साथ ही कलकत्ता (कोलकाता) में हिंदुओं के प्रति हिंसा, मारकाट, लूटपाट व हत्याओं का दौर कई दिन तक चलता रहा था। तत्कालीन बंगला के प्रधानमन्त्री हुसैन सुहरावर्दी ‘ सब ठीक है’ का राग ही अलापते रहे और उन्होंने हिंसा रोकने का कोई प्रयास नही किया, बल्कि हिंसा कर रहे समुदाय को सबल ही मिला।
नोआखली चटगांव डिवीजन का मुस्लिम बहुसंख्यक जिला था। यहां हिंदू अल्पसंख्यक थे पर जमींदार वही थे और उसके पास काफी जमीनें थीं। ये दंगे कई दिन तक चलते रहे। दिल्ली तक यह बात तो पहुंच रही थी कि वहां बहुत ज्यादा मारकाट व हिंसा हुई है पर यह कोई नहीं बता पा रहा था कि वास्तव में हुआ क्या है? उस वक्त महज़ गांधी ही थे जो इस हिंसा को लेकर परेशान थे। महात्मा गांधी इस बात को लेकर बेहद परेशान थे कि कैसे इस हिंसा को रोका जाए। बंगाल की सरकार कह रही थी कि कुछ नहीं हुआ। सब ठीक है। कलकत्ता में बैठे कांग्रेस नेताओं को भी कुछ पता नहीं था।
और फिर पहल बापू ने किया। बापू ने अपनी शाम की प्रार्थना सभा में कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष को वहां जाना चाहिए फिर चाहे वहां जाने के बाद उसे अपनी जान ही क्यों न दे देनी पड़े। और जेबी कृपलानी अगले ही दिन वहां के लिए रवाना हो गए। साथ में पत्नी सुचेता कृपलानी भी गईं। कलकत्ता पहुंचने पर वहां के कांग्रेस अध्यक्ष ने हाथ खडे़ कर दिए कि नोआखली तक जाने का कोई रास्ता नहीं है। दंगाइयों ने सारे रास्ते काट दिए हैं। दहशत के मारे वे उनके साथ वहां नहीं गए। कृपलानी सुहरावर्दी से मिले तो उनका कहना वहीं था- वहां हालात ठीक हैं। वहां जाने की कोई जरूरत नहीं है।
फिर भी जैसे-तैसे वे पति पत्नी वहां पहुंचे और तब पता चला कि कितनी बड़ी संख्या में वहां कत्लेआम हुआ है। अगर कहीं हिंदू अपने को बचा पाने में कामयाब हो भी गए तो वे इतना डरे हुए थे कि किसी एक ही कमरे में दो-तीन परिवार और उनके पशु भी साथ ही रह रहे थे। सभी भूखे प्यासे। कई दिन से। कोई बाहर नहीं निकलता था। एक भी पुलिस या प्रशासनिक अधिकारी, कर्मचारी वहां नहीं। तीन दिन तक हालात का जायजा लेने के बाद जेबी कृपलानी तो दिल्ली लौट गए। पर सुचेता कृपलानी वहीं रह गई। क्यों? इसलिए कि जब दोनों ने वापस जाना तय किया तो कुछ लोग जेबी के पास आए और बोले कि आप तो जाइए, पर इस मां को हमारे पास रहने दीजिए। उनके स्वर की कातरता को देखते हुए दोनों ही नि:शब्द हो गए और फिर सुचेता छह महीने वहां रहीं।
इसके बाद सात नवंबर को खुद महात्मा गांधी वहां आए तो वे वहीं पर थीं। गाँधी तब तक रहे जब तक हिंसा खत्म नही हुई। महात्मा गाँधी ने एक एक गाँव और एक एक गली जाकर हिंसा को रोका और अमन कायम किया। गांधी के हाथो में कोई बन्दुक अथवा तमंचा या पिस्तौल नही थी। शरीर पर आधी धोती और हाथो में लाठी का सहारा था। लबो पर अहिंसा का लफ्ज़ था। गाँधी जिधर जाते दंगाई खुद अपने असलहे रख देते और उनका अनुसरण करते हुवे उनके पीछे हो जाते। ये गाँधी के अहिंसा की कुवत थी कि नोआखाली जैसा दंगा गांधी ने अपने मुहब्बत से रोक दिया।
अब अगर इतिहास को वर्त्तमान के साथ देखे तो मणिपुर और नोआखाली में कोई ख़ास फर्क आपको समझ नही आएगा। हमें अपने अतीत से शिक्षा लेनी ही चाहिए। मणिपुर का कुकी आज वैसा ही भयभीत है जैसा कि नोआखली का हिंदू था। पर क्या हमारे पास कोई गांधी है? ऐसा गाँधी जो नफरत की आग को मिटा सके। पैदल एक एक गाँव का दौरा कर सके। क्योकि हमारे गाँधी तो गोडसे की तीन गोलियों से मर चुके है। बचे है उनके विचार जो हम भूलते जा रहे है। हमारे आपके बीच में गोडसे के चाहने वालो ने नफरतो को घोल रखा है। गांधी को श्रधांजलि चंद फूलो और दो चार मालाओं से नही दिया जा सकता है। गांधी को सच्ची श्रधांजलि उनके आदर्शो पर चलने से मिलेगी।
आज आप देखे गली नुक्कड़ पर आपको वह मिल जायेगे जो खुद को राष्ट्रवाद के असली सिपाही बतायेगे। बातो में हिंसा की झलक होगी। दिमाग में बसे नफरती कीड़े जुबांन के रस्ते बाहर निकल कर समाज को सडा रहे होंगे। उनके आदर्शो में गोडसे जैसे नाम भी शुमार मिल जायेगे। फिर कैसा राष्ट्रवाद है ये? दरअसल राष्ट्रवाद या फिर कहे मुल्कपरस्ती अस्तीनो पर रहने वाली चीज़ नही है। इसका सीने से ताल्लुक कम है, इसका ताल्लुक सीधे दिल से होता है। बातो बातो में लोग कह पड़ते है कि ‘मज़बूरी का नाम महात्मा गांधी।’ हकीकत तो ये है कि महात्मा गांधी मज़बूरी नही बल्कि एक मजबूती का नाम है। हम गांधी के मजबूती वाले फ्रेम में कही नही आते और एक कोने में भी सेट नही हो पाते तो उसको मज़बूरी का नाम देते है।