16 साल का संघर्ष और सिर्फ 90 वोट:वैचारिक मंथन को मजबूर करती इरोम शर्मिला की कहानी।
” वह अभी नहीं रुकी है,वह अब भी नहीं थकी है ।
वह बढ़ रही है संघर्ष पथ पर अकेले,रुक-रुक कर ही सही।।”
करिश्मा अग्रवाल की कलम से एक सच
हाल में हुए विधानसभा चुनावों में एक खबर ने शायद आपका ध्यान जरूर अपनी ओर खींचा होगा,’16 साल तक संघर्ष करने वाली इरोम शर्मिला को मिले महज 90 वोट’ मगर अब सब से अहम बात,90 वोट पाने के बाद भी हर अखबार ने इस महिला के बारे में प्रमुखता से छापा। कभी जानने की कोशिश की क्यों?शायद नहीं !क्योंकि कुछ लोग ऐसे भी जरूर होंगे ,जो इरोम शर्मिला के महान त्याग, संघर्ष और समर्पण की कहानी से अंजान ही रह गए होंगे।इसकी वजह यह है कि,ज्यादातर हम उन मसीहों के बारे में तो जान लेते हैं,जो हमारे बीच नहीं रहे। लेकिन हमारे बीच मौजूद मसीहों की दास्तानें है अक्सर अनदेखी ही रह जाती हैं।
16 साल लंबे संघर्ष की एक हैरान करने वाली दास्ताँ:
16 साल का लंबा संघर्ष!लेकिन क्या उसे सिर्फ संघर्ष कह देना भर ही काफी था? नहीं ! यह कहानी है त्याग, समर्पण ,संघर्ष और 16 साल तक हर पल जूझने वाली एक ऐसी महिला की जिसने पल पल ‘मानव अधिकारों’ की लड़ाई में ‘अपनों’ के लिए लड़ते हुए, स्वयं को तपाकर बिना पानी अनशन करते हुए भी हार नहीं मानी। वो लड़ती रही,जूझती रही।अकेले ही..’अपनों’ के अधिकारों के लिए ।लेकिन आखिरकार ऐसा क्यों हुआ कि…वो हार गई! उनसे नहीं, ‘जिनसे’ वो लड़ रही थी,बल्कि ‘उनके हाथों’ जिनके लिए वो लड़ रही थी। क्यों ?आखिर वह क्या वजह थी कि,जिनके लिए उसने संघर्ष किया,वे उसका साथ देना तो दूर उल्टा उसकी हार की सबसे बड़ी वजह बन गए। वह लड़ाई जो शुरू की गयी थी,उनके लिए जो उसके ‘अपने’ थे। हां ! ‘अपने’ ही तो थे,वो जिनके लिए संघर्ष पथ पर उसने अकेले ही बढ़कर लड़ने की हिम्मत दिखाई।पर वहीँ उसका साथ छोड़ गए! आखिर क्यों?
कैसे शुरू हुई थी,इरोम की कहानी:
तारीख 2 नवंबर सन 2000,मणिपुर का मालोम बस स्टैंड। रोज की तरह वह अपनी बस आने का इंतजार कर रही थी और उसके साथ कुछ और लोग भी अपनी बस के इंतजार में खड़े थे। तभी वहां कुछ ऐसा हुआ जिसने सब कुछ बदल कर रख दिया। अचानक असम सिक्योरिटी फोर्सेज का एक दस्ता आया और अंधाधुंध गोलियां बरसाना शुरू कर दिया। पल भर में 10 लोगों को उन्होंने मौत के घाट उतार दिया। मानवता का दिल दहला देने वाला एक ऐसा चेहरा भी हो सकता है,यह सब देख रही उस लड़की ने कभी नहीं सोचा था ।
और फिर शुरू हुई इरोम शर्मिला की कहानी:
और फिर उसने फैसला किया कि, जिस ताकत के दम पर सिक्योरिटी फोर्सेज ने उन बेकसूरों को मार डाला, वह संघर्ष करेगी उस ताकत केे खिलाफ। मानव अधिकारों के हक में यह लड़ाई लड़ने वाली महिला थी- ‘इरोम शर्मिला’। और फिर शुरू हुई कहानी इरोम शर्मिला के संघर्ष की।
16 साल लंबा अनशन:
इरोम शर्मिला ने 4 नवम्बर 2000 को अपना अनशन शुरू किया था, इस उम्मीद के साथ कि 1958 से अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मणिपुर, असम, नगालैंड, मिजोरम और त्रिपुरा में और 1990 से जम्मू-कश्मीर में लागू आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट (एएफएसपीए) को हटवाने में वह महात्मा गांधी के नक्शेकदम पर चल कर कामयाब होंगी। पूर्वोत्तर राज्यों के विभिन्न हिस्सों में लागू इस कानून के तहत सुरक्षा बलों को किसी को भी देखते ही गोली मारने या बिना वारंट के गिरफ्तार करने का अधिकार है। शर्मिला इसके खिलाफ इम्फाल के ‘जस्ट पीस फाउंडेशन’ नामक गैर सरकारी संगठन से जुड़कर भूख हड़ताल करती रहीं।
संघर्ष भरा सफर:
सरकार ने शर्मिला को आत्महत्या के प्रयास में गिरफ्तार कर लिया था। क्योंकि यह गिरफ्तारी एक साल से अधिक नहीं हो सकती अतः हर साल उन्हें रिहा करते ही दोबारा गिरफ्तार कर लिया जाता था। नाक से लगी एक नली के जरिए उन्हें जबरदस्ती लिक्विड डाइट दी जाती थी। तथा इस के लिए पोरोपट के सरकारी अस्पताल के एक कमरे को अस्थायी जेल बना दिया गया था। जनता की बात करें तो उन्हें ‘आयरन लेडी’ तो कह दिया गया पर जो समर्थन इस लड़ाई में इरोम शर्मिला को मिलना चाहिए था वो नहीँ मिला।
जनता की बेरुखी और अनशन की समाप्ति:
जुलाई 2016 में इरोम शर्मिला ने घोषणा की कि वे शीघ्र ही अपना अनशन समाप्त कर देंगी, और अपने इस निर्णय का कारण आम जनता की उनके संघर्ष के प्रति बेरुखी को बताया। 9 अगस्त 2016 को लगभग 16 साल के पश्चात् उन्होंने अपना अनशन तोड़ा पर संघर्ष जारी रखने के लिए राजनीति में आने की घोषणा की।
किया चुनाव लड़ने का फैसला:
16 साल अनशन रखने के बाद इरोम शर्मिला ने चुनाव लड़ने का फैसला किया।इरोम के पास ‘आप’ और दूसरी पार्टियों से चुनाव लड़ने के प्रस्ताव भी आये थे पर उन्होंने अपनी पार्टी गठित की। इस वक्त इरोम के पास अगर कुछ था,तो वो उसकी संघर्ष की ताकत। फिर भी इरोम शर्मिला ने मुख्यमंत्री के खिलाफ चुनाव लड़ने की हिम्मत दिखाई ।चुनाव प्रचार के नाम पर खर्च करने को करोड़ों रुपए उनके पास नहीं थे, इसीलिए इरोम शर्मिला ने पैदल और साइकिल से घूम-घूमकर प्रचार किया और लोगों से खुद जा कर मिली और बातचीत की, उनकी समस्याओं को जाना।
और आख़िरकार.. ! :
लेकिन जहां दागी,भ्रष्टाचारी और जहां तक की हत्यारों को भी बहुमत से जीता और फूल मालाओं से लाद विधानसभा और लोकसभा तक पहुंचाना स्वीकार कर लिया जाता है ,वहां एक संघर्षशील और वास्तव में लोगों के हक के लिए लड़ने वाली महिला को क्यों चुनना चाहिए यह लोगों को समझ में नहीं आया।और 16 साल तक जिनके अधिकारों के लिये इरोम शर्मिला ने सँघर्ष किया, उन्होंने ही उसे हरा दिया और उन्हें मिले,सिर्फ 90 वोट और एक दर्दनाक हार।
फिर भी दिया सबको धन्यवाद:
मानवता के इतिहास में तमाम करुण कहानियां अक्सर अनकही रह जाती हैं। इरोम शर्मिला का आंखों में आंसू लिए,अपनी हार के बाद भी जनता का धन्यवाद देना, और सक्रिय राजनीति से सन्यास की घोषणा के बाद भी,वह संघर्ष करती रहेंगी ये कहना, ऐसी ही एक कहानी को बयां करता है।
इरोम की हार वास्तव में किसकी हार है?
हाई सिक्योरिटी से घिरे,लंबे गाड़ियों में घूमते, और सेलेब्रिटीज से चुनाव प्रचार करवाते, एसी कमरों में बैठे जनता के प्रतिनिधि होने का दावा करते पर जनता की ही पहुँच से दूर, ऐसे लोगों को वोट डाल अपनी शान समझने वाली जनता को ,नाक में नली डाले संघर्ष करने वाली इरोम शायद आकर्षित नहीं कर पाई।16 साल का अनशन खत्म करने पर उसकी आलोचना करने को तो लोग एकजुट हो सकते थे ।लेकिन अगर 16 दिन भी इरोम शर्मिला के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहते,तो ऐसी दर्दनाक और शर्मनाक हार उसे नहीँ झेलनी पड़ती।
सोचने को मजबूर करती है ,यह हार:
इरोम शर्मिला की यह हार, सिर्फ उनकी हार नहीं है ।बल्कि यह ‘सभ्य समाज’ और ‘विचारशील लोकतांत्रिक देश वासियों ‘ का दावा करने वाले लोगों की संकीर्ण सोच ,संवेदनहीनता और दम तोड़ती ‘मानवता’ और ‘भौतिकवादी सोच’ की तस्वीर दिखाती है। इरोम की लड़ाई और उसकी हार समाज सेवा और बदलाव लाने का सपना देखने वालों को क्या संदेश छोड़ जाएगी? यह की समाज के लिए की जाने वाली एक नि:स्वार्थ लड़ाई जीती जा सकती है या भ्रष्ट हालातों से हाथ मिला कर जिंदगी जीना ही ज्यादा बेहतर है। क्योंकि अच्छाई और सच्चाई के लिए उठने वाली हर आवाज के साथ अगर समाज खड़ा होता तो, ना तो किसी इरोम को 16 साल तक लंबी लड़ाई लड़नी पड़ती और और ना ही ऐसी हार झेलनी पड़ती।
वैचारिक मंथन का समय……:
संघर्ष पथ पर अकेले दूसरों के लिए लड़ने वाली इरोम शर्मिला अगर जनता का साथ नहीं पा सकी, तो क्या फिर भविष्य में कोई ‘समाज’ के लिए लड़ने की हिम्मत दिखा पाएगा ? क्या इरोम शर्मिला जैसे लोगों का हमें साथ नहीँ देना चाहिए?जो समाज के लिए अपना जीवन समर्पित कर रहे हैं! क्या फिर कोई आवाज उठ पाएगी या सिर्फ आवाज ही रह जाएगी ? क्यों आखिर समाज के लिए और उनकी समस्याओं के लिए लड़ने वालों का साथ देने के लिए लोग जल्द आगे नहीं आते ? भ्रष्ट हालातों और जर्जर व्यवस्था के लिए फिर हम किस पर उंगली उठाएंगे ? उन पर जो ऐसा कर रहे हैं या खुद पर जिन्होंने उन्हें ऐसा करने की ताकत दी है ?
जरूर विचार कीजिएगा।