फारुख हुसैन की कलम से – मन्दिर मस्जिद और महिलाओ का सम्मान महज़ चुनावी स्टंट

फारुख हुसैन 

मन्दिर मस्जिद और महिलाओ के सम्मान में तीन तलाक खत्म हो, जैसे बयानों पर गौर किया जाये तो यह महज़ चुनावी स्टंट दिखाई देगा। यदि अयोध्या की ही बात करे तो वहा बाबरी मस्जिद और मन्दिर निर्माण को लेकर अक्षर राजनैतिक हस्तिया एक दूसरो पर जुमले बाज़ी कर हिन्दू मुस्लिमो को बांटकर अपनी राजनीति चमकाने में कोई कोर कसर नही छोड़ते। कैसे भी हो वोट बैंक हासिल हो जाये बस इस पर अधिक ध्यान देते है। उन्हें इससे भी कोई फ़र्क़ नही पड़ता कि उनके ब्यानो से प्रेरित होकर हिन्दू मुस्लिमो में मनमुटाव पैदा हो जाता है। 

और फ़र्क़ भी क्यों पड़े, आखिर सत्ता में भी तो आना जरूरी है। तो क्या फ़र्क़ पड़ता है अगर हिन्दू मुस्लिम आपस में मर मिट जाते है।  उत्तर प्रदेश की बात करे तो यहाँ कि राजनीति मन्दिर, मस्जिद पर चलती है। भाजपा मन्दिर निर्माण का मुद्दा अक्षर उठाती चली आ रही है। और सपा मुस्लिमो को रिझाने में लगी रहती है, 
ये मामला कोर्ट में विचाराधीन होने के बावजूद राजनेताओ में हलचल क्यों मची है, जो राजनेता राजनीतिक रोटिया सेकने के लिए सुप्रीम कोर्ट का अपमान करने से भी पीछे नही हट रहे। वास्तविकता पर गौर किया जाए तो सच्चाई कुछ और ही बया करती है। देश में रहने वाले हिन्दू मुस्लिम हिंदुस्तानी है जो आपस में प्यार और मुहब्बत से रहना चाहते है, कभी कोई आम हिन्दू ये आवाज़ उठाता नज़र नही आया कि अयोध्या में राम मन्दिर ही बने और न ही मुसलमानो के दिलो में मन्दिर निर्माण को लेकर नाराज़गी है तो फिर नफरत का ये ज़हर क्यों घोला जा रहा है। 
अगर आज़म खान या अशदुद्दीन या अन्य कोई आपत्तिजनक ब्यान देते है तो इसका मतलब ये तो नही पूरे देश के मुसलमानो की आवाज़ बनकर ये बोल रहे है, या साक्षी महाराज और सुब्रमण्यम को सारे हिन्दुओ की तरफ से बोलने की आज़ादी है। इन लोगो के अलावा आम नागरिको में मन्दिर मस्जिद को लेकर बेचैनी क्यों नही, क्या सिर्फ यही लोग पूजा और नमाज़ पढ़ने वाले है बल्कि ऐसा कहा जाये कि ये हमारे हितैषी नही बल्कि राजनीतिक रोटिया सेकने के लिए इस तरह के ब्यान देते है तो कोई गलत नही होगा, अगर हितैषी होते तो दंगो में आप और हम नही ये लोग मारे जाते। ब्यान देकर घरो में दुबक जाना और लोगो को आपस में भिड़ाकर मरवाना ही इनका पैसा है। और हम इस भम्र में रह जाते है कि ये हमारे हमदर्द है। कभी मुस्लिम महिलाओ के सम्मान में तीन तलाक खत्म करने की बात उठाई जाती है तो कभी मन्दिर मस्जिद का मुद्दा। अगर महिलाओ के सम्मान की  परवाह है तो बसों व ट्रेन में ऐसा क़ानून लागू किया जाए कि यदि महिलाये खड़ी हो तो उनके लिए मर्द खुद ही सीट छोड़ दे जिससे एक इंसानियत का परिचय भी मिलता है अक्षर बसो व ट्रेनों में ऐसा देखने को मिलता है कि महिलाये खड़ी होकर सफर करती है लेकिन मर्दों को जरा भी शर्म नही आती। जवान तबके के नौजवान भी महिलाओ व बुजुर्गो के लिए सीट छोड़ना गवारा नही समझते। इसके अलावा रास्तो में सार्वजनिक स्थल पर पेशाब करने वालो के खिलाफ कड़ी कार्यवाही हो ऐसा कानून बने। सड़को पर साइड में कही भी खड़े होकर लोग पेशाब करते है। उन्हें इससे भी कोई फ़र्क़ नही पड़ता कि उस रास्ते से महिलाओ का आना जाना भी है जिससे बे अदबी का परिचय ही मिलता है। अगर हकीकत में महिलाओ के सम्मान की बात है तो मैं सरकार से अनुरोध करता हूँ कि इन बातो पर ध्यान दिया जाए।
तीन तलाक का मुद्दा छोड़ना ही आपके लिए फायदेमंद साबित होगा क्योकि देश की मुस्लिम महिलाये इस क़ानून में फेरबदल नही चाहती है और जो चाहती है वो मुस्लिम हो ही नही सकती। लेकिन पेशाब करने पर कार्यवाही और बस ट्रेनों में महिलाओ को सीट देना अनिवार्य करने वाली बात से उम्मीद है देश की हर महिलाये सहमत होगी। दरअसल महिलाओ के सम्मान की बात करना और वास्तव में सम्मान करने में बहुत फ़र्क़ होता है लेकिन अगर मन्दिर मस्जिद और तीन तलाक जैसे मुद्दों को छोड़कर सही मुद्दों को पकड़ा जाये तो फिर राजनेताओ की दुकाने तो बन्द हो जायेगी। यही विचार नेता अपने मन में लिए बेठे है और राजनेताओ की यही सोच हमारे देश के लिए कैंसर की बीमारी से भी ज्यादा घातक है।

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