पुलिस से दूर होते मुखबिर

अधिकतर आपराधिक मामलों की तफ्तीश अब सिर्फ इलेक्ट्रानिक सर्विलांस के भरोसे

साभार – अरशद आलम
एक दौर था जब हर चट्टी-चौराहे पर पुलिस के पास मुखबिरों का सशक्त जाल हुआ करता था। मगर, सूचना और तकनीक के इस दौर में मुखबिरों की जगह धीरे इलेक्ट्रानिक सर्विलांस ने ले ली। सर्विलांस की मदद से पुलिस को सहूलियत भी मिली मगर छोटे-बड़े अपराधियों के बारे में धरातलीय सूचना संकलन का काम पूरी तरह से ठप्प हो गया। बानगी के तौर पर बीते साल दिसंबर में एमएलसी बृजेश सिंह के करीबी बसपा नेता रामबिहारी चौबे की चौबेपुर क्षेत्र में हुई हत्या, उसके पहले अन्याय प्रतिकार यात्रा में दरोगा से पिस्टल छीनी गई, उसके बाद इस साल टोयोटा शोरूम संचालक से दो करोड़ की रंगदारी मांगी गई लेकिन तीनों मामले आज भी जस के तस हैं, चेतगंज थाना क्षेत्र में बिल्डर को गोली मारने वाले और रामकटोरा पर लूट के उद्देश्य से कर्मचारी को गोली मारने वाले के गिरहबान तक आज तक पुलिस के हाथ नहीं पहुँच पाये, अन्य बहुत सारी घटनाएं भी अनसुलझी रह गई,   और धरातलीय सूचनाएं ना मिल पाने के कारण पुलिस बदमाशों से बहुत दूर है।

इलेक्ट्रॉनिक सर्विलांस के उदय के साथ ही यूपी पुलिस की उस समय नवगठित STF ने कुख्यात श्रीप्रकाश शुक्ला को मार गिराया था और उसके बाद आधुनिक होती तकनीक के साथ यूपी पुलिस कदमताल मिला के चली और बहुत सारे मामले पुलिस ने खोले भीl लेकिन पुलिस विभाग की शान और दाहिना हाथ समझे जाने वाले मुखबिर इस विद्या के उदय के साथ ही कम होने लगे और अब तो विलुप्त की श्रेणी में आते जा रहे है
पुलिस का इकबाल बुलंद हुआ करता था,  कभी हनक और रौबदार देहभाषा वाले दारोगा, बदमाशों के लिए डर और खौफ का पर्याय हुआ करते थे कभी। इधर वारदात हुयी नहीं कि चंद रोज में अपराधी सींखचों के पीछे पहुंच जाते थे, खाकी की शान कायम थी तो वजह थे वो चेहरे जिन्हें मुखबिर कहा जाता है। इन्हें महकमे का आंख-कान भी माना जाता था। अब तस्वीर बदल गयी है। उधर, शान पर बट्टा लग गया तो इधर मुखबिरों का अकाल पड़ गया। नतीजा, अपराध करने वालों की गिरेबां तक कानून के हाथ नहीं पहुंच पा रहे हैं।
ब्रितानिया हुकूमत का कानून, उसके अनुपालन के पेचीदा तौर तरीके और बेहतर नतीजे देने की चुनौती, इस चुनौती से जूझती है हमारी पुलिस। इस पहचान को चमकदार बनाता था मुखबिर तंत्र जो शहर से लेकर गांव तक, बदमाशों के अड्डों से लेकर नेताओं के ठीहे ठिकानों तक पसरा रहता था। पुलिस-मुखबिर का गठजोड़ विश्वास की मजबूत कड़ी पर टिका होता था। जो अब कहीं गुम हो गया है। और मुखबिर क्या गायब हुए, पुलिस की भद पिटना आम बात हो गयी। आलम ये है कि अपराध छोटे हो या गंभीर, पुलिस को वर्कआउट करने में हफ्तों तक पापड़ बेलने पड़ते है । एक कारण अब अपराधियो का भी तकनीकी रूप से सक्षम होना हो सकता है, समय के साथ आजकल के तकनीकी रूप से सशक्त और पढ़े लिखे नौजवान जो आजकल की चमक दमक भरी दुनिया से तुरन्त करोड़पति बनने की ललक में अपराध की दुनिया में कदम रखते है, उनको तकनीक की मदद से पकड़ना पुलिस के लिये टेढ़ी खीर साबित हो रहा है
पुलिस, अब जल्दी घटनाओं का खुलासा नहीं कर पाती है,  इस नाकामी के पीछे कहीं ना कहीं मुखबिर तंत्र का अभाव काम कर रहा है। ऐसा नहीं कि मुखबिर हैं ही नहीं पुलिस के पास, सूचना संसाधन बढ़ने के बाद भी मुखबिरों की अहमियत अभी कम नहीं हुयी है। लेकिन वो सहयोग तभी करेंगे ना जब विश्वास पुख्ता हो, अधिकारियों को इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है की हर थानेदार के पास कम से कम अपने कुछ मुखबिरों की भी सशक्त सेना हो जो की, अपराध के उन्मूलन में उनके लिए सदैव सक्रीय रहें, बाकी तो उनकी मदद के लिए क्राइम ब्रांच और STF तो है ही।

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