प्रह्लाद गुप्ता की कलम से – कहा एक चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए
कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये, कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये
हिन्दी के मशहूर कवि दुष्यंत कुमार की यह पंक्तियाँ शायद चिराग बनाने वाले कुम्हार पर सटीक बैठती है। महंगाई और चाइना बाज़ार की व्यापकता में हाथ की पारम्परिक कारीगरी अब दम तोड़ने पर मजबूर है। प्लास्टिक के मकड़ जाल में मिटटी के सामान उलझ से गए है। दीपावली पर सैकड़ों दिए खरीदने वाले अब सिर्फ धन की देवी लक्ष्मी के सामने ही दिए जलाते है।
अब इस धंधे में हमारी आखरी पीढ़ी काम कर रही है। अब हमारे घर के बच्चे इस धंधे में आना नहीं चाहते। यह कहना है फुलवरिया गाँव के कुम्हारपुरवा के कुम्हार उमाशंकर प्रजापति का। अपने जीवन का 67 बसंत देख चुके आदर्श आज भी अपने दिनचर्या का आधा समय “चाक” पर बिताते है। उमाशंकर प्रजापति ने हमें बताया कि ” पहले के ज़माने में सभी लोग अपनी परंपरा को संजोकर चलते थे, पर अब विकास के पथ पर अग्रसर होने की होड़ में लोग परम्पराओं से किनारा करने लगे है। जिसका खामियाज़ा हमें भुगतना पड़ रहा है। पहले हम चार महीना पहले से दीपावली पर बिकने वाले दिए और भैयादूज पर बिकने वाले खिलौनों को बनाने में जुट जाते थे। अब वो बात नहीं रह गयी है। कुछ दुकानदार है जो आज भी कुल्हड़ में चाय बेचते है। जिससे हमारा धंधा चल रहा है। वो तब तक चलेगा जब तक हमारे शरीर में जान बची है। हमारे घर की दाल रोटी चलना मुश्किल हो गया है ।
वही रेडीमेड साँचे से मिटटी का दिया गाढने में लगी गुड़िया देवी ने बताया कि ” हम पिछले 15 साल से इस काम में अपने परिवार वालों का हाथ बटा रहे है। आमदनी होती थी की घर का खर्चा भी चलता था और हमारे बच्चे पढ़ते भी थे पर बाज़ार में चाइना के मालों की आमद से अब लोग रंग बिरंगी झालरों की तरफ भाग रहे है। जिससे हमारे लिए मुश्किल खड़ी हो गयी है। हमारे पति इस धंधे से दूर हो चुके है और अब वो दूसरा धंधा करके घर का खर्चा चला रहे है।दीपावली दियो का त्यौहार है। भगवान राम जब बुराई के उपासक रावण का अंत करके अयोध्या नगरी पहुंचे तो अयोध्या वासियों ने भगवान राम के आने और विजय की ख़ुशी में पूरे शहर को दीयों से जगमग किया था। तब से लेकर आज तक यह परम्परा चलती आ रही है। उस परम्परा को अब विकास ने पीछे छोड़ दिया है। लोग मिटटी के पारम्परिक दीयों को छोड़ अब चाइना के लाइटिंग वाले दिए लेना पसंद कर रहे है। जिससे कुम्हार अब इस धंधे से पीछा छुड़ाने के लिए तैयार है। वो दिन दूर नहीं जब हमें मिटटी के कसोरे, कुल्हड़, दिये देखने के लिए म्यूज़ियम का सहारा लेना पड़ेगा।
रिपोर्ट:- प्रहलाद गुप्ता वाराणसी