तारिक आज़मी की मोरबतियाँ – आखिर ये राजनीत क्या महामना की बगिया में पतझड़ लाना चाहती है
तारिक आज़मी
बड़ा दुःख होता है सुनकर कि जिस महामना की बगिया के हम छोटे से फुल है उस गुल्स्तान में उल्लुओं ने भी शायद बसेरा कर रखा है। आज खबर आई कि देर शाम महामना की बगिया दुबारा एक बार फिर गर्म हो गई। कारण स्पष्ट तो नही है। मगर जानकारी के मुताबिक किसी मामले को लेकर कभी एक बड़ा आशियाना हुआ करने वाला बिडला हास्टल जो किश्तों में तकसीम हो चूका है ताकि शांति बनी रहें, मगर शांति क्या साहब उन किश्तों में बने हुवे बिडला ए और बिडला सी के छात्रो में विवाद हो गया। ये विवाद इतना गहराता गया कि जिले के कई थानों की फ़ोर्स को मौके पर पहुचना पड़ा। दोनों हास्टल में लाइट बंद करके काफी देर तक पथराव हुआ। इस पथराव में कोई घायल है या नही इसकी अभी कोई पुष्ट सुचना नही आ रही है। मगर पथराव के बाद मौके पर पहुचे जिला प्रशासन के मोर्चा सँभालने के बाद से समाचार लिखे जाने तक माहोल में तनाव पूर्ण शांति है।
ये विवाद किस मामले को लेकर हुआ अभी ये साफ़ ज़ाहिर नही है। मगर कही न कही इस गुलिस्तान में राजनीत ने अपने घोसले बनने शुरू कर दिये है। छोटे छोटे मसले पर माहोल को गर्म हो जाना ये कम से कम छात्र राजनीत का तो हिस्सा नही हो सकता है। वही विश्वविद्यालय प्रशासन लाख दावे करे कि बाहरी लोगो का हस्तक्षेप विश्वविद्यालय में नही है, मगर आज भी बाहरी हस्तक्षेप तो कही न कही से विश्वविद्यालय में है ही। वरना मामला छोटा सा होने पर लम्बा तुल पकड़ता है। अचानक माहोल गर्म होने लगता है और ये गर्मी सुकून को पिघला देती है।
चल रहे दशक की बात करे तो इसके पहले इस तरीके से माहोल गर्म नही होता था। 1995-96 सत्र में विवाद हुआ था और इस विवाद में तत्कालीन वीसी हरिप्रसाद गौतम ने सख्त कदम उठाये थे। कई छात्र नेता जिनको बाहरी संरक्षण होने की बात सामने उस समय आई उनको निष्काषित कर दिया गया। छात्र संघ को भंग कर दिया गया और उसके बाद माहोल धीरे धीरे करके ख़ामोशी अख्तियार करता गया। मगर इस मौजूदा दशक में पिछले तीन चार सालो से माहोल एक बार फिर गर्म होने लगा। इस बार ये 90 के दशक से अधिक क्रूर रूप से गर्म होने लगा है। 90 के दशक में कई घटनाये विश्वविद्यालय में हुई मगर उसका असर कभी शहर में नही पड़ता था। तत्कालीन एडीएम सिटी बादल चैटर्जी के साथ छात्रो के हुवे एक विवाद को छोड़ दे तो तत्कालीन छात्र और छात्र नेता कभी कैम्पस के बाहर गुत्थम गुत्था नही हुवे। विवाद थोडा बहुत मेडिकल स्टूडेंट्स और अन्य छात्रो के बीच होता था मगर चंद घंटे में ही विवाद हल हो जाता था। अधिकतर ये विवाद इलाज के नाम पर होते रहे है। मगर कभी इसने इतना उग्र रूप धारण नही किया कि इसकी आंच में जिला प्रशासन को अन्दर आना पड़े। केवल 95-96 के सत्र में जिला प्रशासन को कैम्पस में मोर्चा संभालना पड़ा था। मगर कुछ दिनों में ही शांति अख्तियार हो गई और मामले धीरे धीरे करके नियंत्रित होने लगे।
उस समय के माहोल और आज के माहोल में बड़ा फर्क नज़र आता है। परिसर में आवाज़े बाहर तक आती है मगर उस समय परिसर की आवाज़ बाहर नही आती थी। इसका अगर मुख्य कारण देखा जाए तो कही न कही से दलगत राजनीत ने अपने पैर परिसर में जमा लिये है। ऐसा नही है कि पहले दलगत राजनीत परिसर में नही थी मगर इस स्तर पर नही थी जिस स्तर पर आज दिखाई देती है। पहले दलगत राजनीत केवल छात्रो में रहती थी और छात्र भले दो अलग अलग राजनितिक गुटों के समर्थक रहे मगर बिहारी के चाय की दूकान पर सब केवल छात्र होते थे। आज स्थिति बड़ी विपरीत है। आज दलगत राजनीत जितनी छात्रो में है उससे कम शिक्षा क्षेत्र से जुड़े लोगो में नही है। एक दुसरे से दो कदम आगे बढ़ते हुवे प्रोफ़ेसर से लेकर अन्य कर्मी तक किसी न किसी राजनितिक दल के समर्थक बने दिखाई दे रहे है। राजनीती पहले भले किसी राजनितिक दल का समर्थन कोई प्रोफ़ेसर करते रहे हो मगर कभी सार्वजनिक रूप से समर्थन नही किया। हमेशा निष्पक्ष रहते थे। मगर आज स्थिति ये है कि कुछ प्रोफ़ेसर अपनी राजनितिक विचारधारा को सार्वजनिक करने का मौका नही छोड़ते है और सोशल लाइफ से लेकर सोशल मीडिया तक पर अपनी राजनितिक छाप छोड़ते दिखाई दे जाते है।
शायद यही एक कारण है कि शिक्षको का सम्मान छात्रो के बीच से कम होता जा रहा है जो माहोल को गर्म करने के लिये काफी होता है। पहले जितना बड़ा विवाद हो रहा हो मगर मौके पर कोई प्रोफ़ेसर आकर खड़े होते थे तो हम छात्र चेहरा छुपा कर वहा से सरक लेते थे। किसी चाय की दूकान पर अगर छात्र खड़े रहते थे और दूर से आते प्रोफ़ेसर साहब कोई दिखाई दे जाए तो ऐसे लोग छुपते थे कि जैसे सर ने देख लिया तो कान खीच लेंगे। मगर आज स्थिति विपरीत है। आज प्रोफ़ेसर और वीसी माइक लेकर शांति की अपील करते रहे मगर शांति तो छोड़े साहब उलटे जितनी अशांति है वह और अधिक हो जायेगी।
अब समय है कि इस मामले में कही न कही से गहन मंथन विश्वविध्यालय प्रशासन करे और छात्र गुटों को बैठा कर बात करे। वार्ता सार्थक रहे इसके लिये ध्यान दिया जाए कि छात्रो का प्रतिनिधित्व वह करे जो छात्रो का नेतृत्व कर रहे है और उनको शांति से समझाया जाए साथ ही उनकी मूल समस्याओ पर गौर किया जाये। अन्यथा महामना के इस गुलिस्ता को नज़र तो लग ही चुकी है अब सिर्फ पतझड़ होना बाकी रह गया है।