मुजफ्फरपुर बच्चो की मौत पर तारिक आज़मी की मोरबतियाँ – हमारे जज़्बात सिर्फ लम्हों में क्यों जागते है ?

तारिक आज़मी

आज हम आपको कोई सटायर सुना कर आपका मनोरंजन नही करने वाले है। हमको पता है कि जिस मुद्दे पर पर आज लिख रहे है वह मुद्दा आपको तनिक भी रोचक नही लगेगा। हो सकता है आप पेज को आधा ही पढ़े और फिर कोई अन्य रोचक खबरों के तरफ ध्यान दे दे और इसको बंद कर दे। ऐसा ही होता है साहब क्योकि हमारी आदत बन चुकी है कि हम देश में नया क्या हुआ ये पढने और देखने के लिए उतावले रहते है। बीमारिया और कुपोषण जैसे मुद्दे भले ही गंभीर मुद्दे हो मगर हमारी निगाहें उनको देखना नही चाहती है। हम अपनी निगाहों से सिर्फ और सिर्फ सब कुछ अच्छा देखना चाहते है। आप खुद बताये इन मुद्दों को लेकर करोडो के स्टूडियो में बैठे लोग कब बहस किये है। शायद हम ऐसी बहस को देखना ही नही पसंद करते है कि लीची जैसे फल खाने का परिणाम आखिर कैसे एक्यूट एंसिफलाइटिस जैसी बिमारी हो सकती है जिससे सैकड़ो की ताय्दात में मुल्क के मुस्तकबिल बच्चे मौत के आगोश में सो गए।

ये भी एक हकीकत है कि मौतों की ताय्दात इतनी ज्यादा नही होती तो शायद ये खबरों का हिस्सा तो बनती भी नही। अब जब खबरों का हिस्सा बनी है तो बुनियादी बाते आज भी नही हो रही है। आज भी बाते तो उस मुद्दे पर हो रही है जो मामला उतना गंभीर न हो। सुशासन बाबु के राज में मुल्क का मुस्तकबिल बच्चे मौत की आगोश में चले गए है। आखिर क्या ऐसी वजह है कि उनको बचाया नही जा सका है। कभी अहसास नहीं हम करना चाहेगे कि आखिर क्या उस माँ बाप के दिल पर गुज़र रही होगी जिनके कलेजे की ठंडक को इस तरह मौत ने अपनी आगोश में ले डाला है।

ऐसा नही है कि यह इस जिले में पहला वाक्या हो और इसके पहले नही हुआ हो। मगर हमारी संवेदनाये बताया आपको कि कही सोई रहती है। बताते चले कि इसके पहले भी बिहार के मुजफ्फरपुर ज़िले में इस प्रकार से एक बिमारी महामारी की तरह आती रही है। इस बार एक्यूट एंसिफलाइटिस के कारण 100 से अधिक बच्चों की मौत हुई है। इसके पहले 2014 में भी 139 बच्चों की मौत हो गई थी। 2012 में 178 बच्चों की मौत हो गई थी। मुझको तो नही याद कि ऐसा कोई साल गुज़रा है जब वहा मौत ने अपने होने का अहसास न करवाया हो। यहां अप्रैल से लेकर जून के बीच बच्चों की मौत की ख़बरें आती रहती हैं। भावुक होने के लिए हमारी पसंदीदा मीडिया 2012 में भी खूब भावुक होकर आंसू बहा रही थी। 2014 में भी ऐसा ही हुआ होगा और अब 2019 में भी हो ही रहा है।

इस मामले में सोशल मीडिया ने थोडा क्रांति लाने की कोशिश किया है। ऐसी माम्लातो में सबसे पहले सोशल मीडिया गर्म होता है। कुछ होता न देख हमारी आवाज़े सोशल मीडिया पर बुलंद होने लगती है। हम जोर जोर से कोसने लगते है। बड़ी बड़ी बाते करने लगते है। प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक को ज़िम्मेदार बना देते है। आवाज़े देने लगते है कहा है जुम्मन मिया कहा है अग्रवाल जी, कहा है सतनाम तो कहा है अलबर्ट। इससे भी बात नही बनती है तो हम अपनों को ही कोसने लगते है। मगर जब भीड़ हमारे चिल्लाने से भी इकठ्ठा नही होती है तो हम थक हार कर बैठ जाते है। रात होने पर भर पेट खाना खाने के बाद प्लेट में बचा खाना डस्टबिन में फेक कर हम टीवी पर पसंदीदा प्रोग्राम देखते हुवे अपनी ख्वाब्गाहो के नर्म बिस्तर पर नींद की आगोश में खो जाते है। सुबह होने के बाद इसी सोशल मीडिया पर किसी और मुद्दे पर क्रांति लिखते है।

अब देख ले न मुझको ही। जहा इस कालम में हमेशा हमने सटायर का इस्तिमाल करके नाम और विजिट बटोरी है। आज कोशिश है कि जज्बातों से भरी रिपोर्टिंग करे। मुझको मालूम है कि मुझे शायद उतनी सफलता इसमें न मिले और लोग पढ़े ही न। कुल मिलाकर जज्बातों से भरे लेख में आप दर्द के अहसास से तो रू-ब-रू हो सकते है। मगर तुरंत आप उसे भूल भी जाते हैं। तभी तो आप भूल गए कि 2014 में 139 बच्चों की मौत हुई थी। आपको याद भी नहीं होगा कि यही डॉ। हर्षवर्धन इसी अस्पताल में 2014 में भी गए थे, आज पांच साल के बाद फिर  2019 में भी गए है। 2014 में 20 से 22 जून तक डॉ। हर्षवर्धन मुजफ्फरपुर में ही रहे थे। इस दौरे के बारे में 2014 में डॉ। हर्षवर्धन ने फेसबुक पर विस्तार से लिखा भी है। ये लेख उनका आज भी उनके वाल पर मौजूद है। उसके कुछ दिनों बाद वे स्वास्थ्य मंत्री पद से हटा दिए गए और उनकी जगह जे पी नड्डा साहब कुर्सी पर आ गए।

मगर सवाल कोई ये नही पूछ रहा है कि आखिर इन पांच सालो में केंद्र सरकार के हेल्थ मिनिस्ट्री जिसकी खुद की सेहत माशा अल्लाह काफी अच्छी है ने मुज़फ्फरपुर को लेकर क्या किया। आखिर उन एलानो का क्या हुआ जो उस वक्त सरकार ने किया था। वह अभी तक क्यों नहीं अमल में लाई गई। 2014 में हर्षवर्धन ने कहा था कि 100 फीसदी टीकाकरण होना चाहिए। कोई बच्चा टीकाकरण से नहीं छूटना चाहिए। जल्दी ही यहां 100 बिस्तरों वाला बच्चों का अस्पताल बनाया जाएगा। पांच साल बाद वही हर्षवर्धन साहब अब जब दोबारा स्वास्थ्य मंत्री बने हैं तो वही सब दोहरा रहे हैं कि 100 करोड़ का 100 बिस्तरों वाला बच्चों का अस्पताल बनेगा। उस वक्त डॉ। हर्षवर्धन ने एलान किया था कि गया, भागलपुर, बेतिया, पावापुरी और नालंदा में विरोलॉजिक डायनोग्सिटक लैब बनाया जाएगा। मुजफ्फपुर और दरभंगा में दो उच्च स्तरीय रिसर्च सेंटर बनाए जाएंगे। यही नहीं मेडिकल कालेज की सीट 150 से बढ़ाकर 250 कर दी जाएगी। अब पांच साल इस बात को बुज़रे होने के बाद हर्षवर्धन साहब के जुबानी फिर से वही बाते हो रही है तो पिछले पांच सालो में इस शहर के लिए क्या हुआ ? बताते चले कि डॉ हर्षवर्धन साहब की पीसी में वहा के पत्रकारों ने इस सवाल को उठाया था। मगर आपको मीडिया को कोसने का एक मौका और मिला हुआ है। आप कोस सकते है। इस सवाल पर डॉ हर्षवर्धन की ख़ामोशी किसी मीडिया हाउस ने ज़ाहिर नही किया और खबर का खत्माँ सिर्फ उनके नये एलानो से कर दिया।

चलिये मानता ही साहब की मुल्क की हुकूमत के पास काफी काम है और वह भूल सकती है। मगर सूबाई हुकूमत जो यहाँ है उसने क्या कर डाला। आखिर खुद को सुशासन बाबु का खिताब लेकर बैठे नीतीश साहब क्या वह भी भूल गए थे। 2015 से 17 के बीच भी इस जिले में मौतें होती रहीं भले ही संख्या 50 से कम थी। सूबे के स्वास्थ्य मंत्री क्या कर रहे थे। सूबे के मुख्यमंत्री क्या कर रहे थे। खुद पटना में ही रहते हुए मुज़फ्फरपुर के गरीब बच्चों के लिए क्या किया ?

अब सबसे बड़ी बात पर आते है। हमारी कही से यह मंशा नही है कि किसी की हम बुराई करे। हम अब तक की सभी सरकारों के सेहत के मुताल्लिक काम पर ही सवाल कर रहे है। अपने मुल्क की आबादी 125 करोड़ है और हमारे मुल्क का स्वास्थ्य बजट 52 हज़ार करोड़ है। अब आपको समझ आ जाएगा कि जब हमारी हुकूमते 1 रुपया 14 पैसे हर शख्स के रोज़मर्रा हिसाब से स्वास्थ बजट जारी करेगी तो हम महामारियों से लड़ने के नाम पर चूने और फिटकरी का छिड़काव ही कर पा रहे होंगे। वह भी अगर बीच में करप्शन कही अपना घर किया तो चुने में से फिटकरी की ताय्दात कम हो जाती होगी।

अब आप खुद देखे सुशासन बाबु के राज में सूबे की हुकूमत अपने बजट का 4।4 प्रतिशत ही स्वास्थ्य पर खर्च करता है। मुल्क के 18 राज्यों के औसत ख़र्च से यह काफी कम है। स्वास्थ सेवाओं की बात करे तो बिहार में कुल 3 हज़ार प्राथमिक स्वास्थ केंद्र होने चाहिये मगर है केवल 1850। पुरे सूबे में अगर डाक्टरों और आम जनता के बीच का रेशियो निकाले तो बिहार में 17,685 लोगों पर एक डॉक्टर है। राष्ट्रीय औसत 11,097 लोगों पर एक डॉक्टर का है। यह जानकारी बिहार के स्वास्थ्य मंत्री ने 2018 में विधानसभा में दी थी।अब आप समझ सकते है कि बिहार में प्राइवेट एम्बुलेंस एक कारोबार कैसे बन गया है। ज़ाहिर है जब अस्पताल ही नही है तो फिर प्राइवेट में जाना ही है।

वक्त तो अब भी है। अपने जज्बातों को हम संभाले और इस बात पर गौरो फिक्र करे कि आखिर ये मौत हुई कैसे है। व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी में तो जब यह बात चली कि मौत लीची खाने से हुई है तो लोगो ने हसकर इसका मज़ाक बना दिया। सही है वह मज़ाक बना भी सकते है, मगर 2012 में इसी तरह के मौत पर हुई एक रिसर्च में यह बात निकल कर सामने आई थी कि खाली पेट लीची बच्चो के खाने से शरीर में ग्लूकोज़ की मात्रा कम हो जाती है और ग्लूकोज़ बनना बंद हो जाता है जिससे दिमाग पर असर पड़ता है और दिमाग काम करना बंद कर देता है। जब एक चैनल के पत्रकार ने इस मुताल्लिक वहा इलाज कर रहे डाक्टरों से दरयाफ्त किया तो उन्होंने बताया कि लगभग 88 फीसद मामले में ऐसा ही हुआ है और जानकारी करने पर परिजनों ने लीची खाना स्वीकार किया है।

खैर साहब जज्बातों को संभाले, कई नाम अब कोई नही पुकारेगा। मुज़फ्फरपुर में कई घरो के चिराग बुझ चुके है। शायद इसका सबसे बड़ा कारण गरीबो और कुपोषण हो सकता है। मौत गरीब बच्चो की है। तो फिर जज़्बात कहा आयेगे। सुशासन बाबु आज अस्पताल पहुचे थे और उनको विरोध का सामना करना पड़ा है। मगर आप जज्बातों को संभाले और वहा ड्यूटीरत डाक्टरों की भूरी भूरी प्रशंसा करना चैये क्योकि इतने सीमित संसाधनों के बीच कैसे इलाज कर रहे है यह उनका दिल ही जान रहा होगा। वैसे इसमें खास तौर पर जज्बातों को कंट्रोल करने की ये वजह है कि मरने वाले बच्चे गरीब थे। वैसे तो मंत्री की भैस गायब हो जाती तो पूरा महकमा मिलकर तलाश कर लेम

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