रामपुर, रामायण और रजा लाइब्रेरी

ललित
अर्से से रज़ा लाइब्रेरी की इस इमारत को देखने की हसरत थी। उत्तर प्रदेश के रामपुर से इतनी बार गुज़रा, मगर इस खूबसूरत इमारत को बाहर और भीतर से देखने का मौका नहीं मिला। लाइब्रेरी देखने का पुराना शौक है। कोलकाता की नेशनल लाइब्रेरी भी इसी तरह शाम के वक्त झांक आया था, जब वहां कोई नहीं था। 1836 में बनी थी कोलकाता पब्लिक लाइब्रेरी, 1891 में इम्पीरियल लाइब्रेरी बनी और फिर लार्ड कर्ज़न ने दोनों को मिलाकर 1903 में इम्पीरियल लाइब्रेरी बनाई। आज़ादी के बाद 1953 में यह नेशनल लाइब्रेरी के नाम से हिन्दुस्तान की जनता को समर्पित कर दी गई।
रज़ा लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए मुझे कोलकाता का ही ख़्याल आया। लाइब्रेरी के सहयोगी काफी रोचक तरीके से बता रहे थे कि देखिए सीढ़ियों, दरवाज़े और दीवारों पर वर्मा की टीक लकड़ियां लगी हैं। 1774 में रामपुर के नवाब फ़ैज़ुल्ला ख़ान ने इसकी बुनियाद रखी थी। नवाबों की अपनी एक लाइब्रेरी हुआ करती थी, जिसे कुतुबनामा कहा जाता है। एक बार ‘रवीश की रिपोर्ट’ के लिए रिसर्च करते वक्त पश्चिमी यूपी के इलाकों में फोन करने लगा, तो पता चला कि बहुत-सी लाइब्रेरी कब की खत्म हो चुकी हैं। बाहर के मुल्कों के ख़रीदार औने-पौने दामों पर किताबें ले जा चुके हैं। वह रिपोर्ट तो नहीं बन सकी, लेकिन रज़ा लाइब्रेरी देखने की हूक बाकी रह गई।
इटालियन मार्बल से बनी इन मूर्तियों की उम्र सौ साल से ज़्यादा हो चुकी है। काश इस गलियारे की तरह रामपुर की राजनीतिक विरासत भी शानदार और सौम्य होती। रामपुर के ही हैं आज़म ख़ान और मुख़्तार अब्बास नक़वी, लेकिन उनकी सियासी ज़ुबान पर इस लाइब्रेरी का ज़रा भी असर नहीं दिखता है। यहां आकर लगा कि शहर ने भी इस लाइब्रेरी को छोड़ दिया है। वहां जवानियां नहीं दिखीं। कुछ लोग मिले, जो लाइब्रेरी के लिए अपनी विरासत को देखने आए थे। कुछ थके हुए नौजवान अख़बार पढ़ते मिले। बताया गया कि यहां इज़राइल, अमेरिका से काफी विद्वान आते हैं, भारत से कम ही आते हैं। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को रज़ा लाइब्रेरी की ख़ूबी मालूम हैं। उन्होंने अपनी दो-दो विदेश यात्राओं के लिए यहां से विरासती किताबों के नमूने मंगवाए हैं। रज़ा लाइब्रेरी भारत सरकार के तहत एक स्वायत्त संस्था है।

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